गुरुवार, मार्च 24, 2022

समीक्षा राज नारायण बोहरे का उपन्यास ‘अस्थान’

 

समीक्षा

राज नारायण बोहरे का उपन्यास ‘अस्थान’

वीरेन्द्र जैन

अंतर्राष्ट्रीय ख्यति के फिल्म मिर्देशक श्याम बेनेगल ने एक फिल्म बनायी थी ‘मेकिंग आफ महात्मा’ । इस फिल्म में गाँधीजी के सक्रिय जीवन का वर्णन है कि किस तरह से वे जब दक्षिण अफ्रीका गये व वहाँ पर एशिया व अफ्रीकन मूल के लोगों का शोषण देखा तो अंग्रेज शासकों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इस संघर्ष से जो व्यक्ति जन्मा वह हिन्दुस्तान वापिस लौट कर महात्मा बना। फिल्म बताती है कि परिवेश और परिस्तिथियां ही किसी के व्यक्तित्व को गढती हैं।

सेतु प्रकाशन से प्रकाशित राज नारायण बौहरे का उपन्यास ‘अस्थान’ भी दो ऐसे युवाओं की कथा है जो ऐसे संक्रमण काल में बड़े होते हैं जिसमें सामंत काल गया नहीं है और पूंजीवाद के कदम पड़ चुके हैं। कृषि युग से औद्योगिक युग में पदाक्रमण हो रहा है। समाज की सामंती संस्कृति को लोकतंत्र क़ॆ बैनर से ढक दिया गया है। जहाँ ज़िन्दा रहने का अधिकार तो है किंतु रोजगार का अधिकार नहीं है। जिन्दा रहने के लिए अंधेरे में हाथ पाँव मारने पड़ते हैं। जातिवादी समाज में सवर्ण समाज के लोग श्रम से जुड़े वे काम भी नहीं कर सकते जो उपलब्ध तो हैं किंतु जिन्हें नीची जाति का काम समझा जाता है। परिणाम यह निकलता है कि दो अलग अलग स्थानों में पले बढे सवर्ण परिवार में जन्मे युवाओं में से एक बीए पास करने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं पा पाता क्योंकि स्थानीय राजनीति में दूसरे गुट का समझे जाने के कारण निरपराध होते हुए भी हत्या का आरोपी बना दिया जाता है। वह छूट तो जाता है किंतु दागी कहलाता है।  बाद में रामलीला में भूमिका निभाने के अनुभव के कारण मानस का प्रवचनकर्ता बन जाता है, व मंच पर प्रस्तुतीकरण के नये नये तरीके अपना कर सफल हो जाता है। कुनावी राजनीति के लोग धार्मिक आस्था का विदोहन करने के लिए राम कथा, रामलीला से भी जुड़ते हैं और स्थानीय विधायक कथावाचक को आश्रम बनाने के लिए सरकारी जमीन पर कब्जा करा देते हैं।

दूसरा विवाहोत्सक युवक, अपने किसान परिवार की एक गलत परम्परा, कि उनके यहाँ पीढियों से मझला बेटा अविवाहित रहता है, कुंठित हो जाता है और खेती के प्रति भी उदासीन हो जाता है। इसी उदासीनता में वह साधुओं के सम्पर्क में आता है व उनकी जमात में शामिल हो जाता  है। उसे पागल घोषित कर उसके दोनों भाई उसके हिस्से की जमीन हड़प लेते हैं। वह एक आश्रम के महंत की सेवा टहल में जुट जाता है। आश्रमों में चल रहे आदर्श से विपरीत आचरण पाकर उसका मोह भंग होता है, अन्य अनैतिकताओं में लिप्त महंत जी आश्रम के बगीचे में गाँजे के पौधे उगाने के आरोप में पकड़े जाते हैं ।

मानसपाठी युवा धरनीधर अपने बाजारू तौर तरीकों और विधायक के सहयोग से सरकरी जमीन पर आकर्षक आश्रम तो बना लेते हैं, मन्दिर भी स्थापित कर लेते हैं और अतिरिक्त धन को विभिन्न जगह विनियोजित कर के सम्पत्ति बढा लेते हैं। अपनी व्यावसायिक सफलता के लिए वे अपने नाम के आगे उपशंकराचार्य लगाने लगते हैं। इसी क्रम में उनकी भेंट एक मधुरकंठी प्रवचनकर्ता से होती है और दोनों अपनी परिस्तिथियों में एक दूसरे के आकर्षण में विभिन्न सम्मेलनों में साथ विचरण करने लगते हैं। वे समय मिलते ही आश्रम में ऐसे साथ रहने लगते हैं, जिसे लिव इन कहा जाता है। उनके आश्रम में कोई किसी महिला की लाश फेंक जाता है व उसकी जाँच में पुलिस बेलिहाज होकर अपने पुलिसिया तरीके से पूछताछ करती है व उनके सामाजिक सम्मान का कोई लिहाज नहीं करती।  कुम्भ यात्रा पर निकले नागा बाबाओं का एक दल वहाँ से गुजरता है जो किसी भी मठ या आश्रम को अपनी रियासत समझता है और किसी राजा की तरह अपने नियम थोपता है, व जरूरत पड़ने पर दण्ड देता है। वे देश के किसी कानून को नहीं मानते व कानून को पालन कराने वाली एजेंसियां भी उन्हें ऐसा करने की पर्याप्त गुंजाइश देती हैं। खुद को उपशंकराचार्य लिखने के आरोप में नागा बाबा धरनीधर को  खड़ाऊं से पीटते ही नहीं अपितु कमरे में बन्द भी रखते हैं व अपमान भी करते हैं। उनके साथ की महिला का भी अपमान करते हैं, जिसे तात्कालिक रूप से बाहर भेजना पड़ता है, जहाँ पर भी उसे असम्मानजनक बातें सुनना पड़ती हैं। वह आश्रम छोड़ कर चली जाती है। आश्रम की महिमा घटते ही विरोधी पक्ष आश्रम की जमीन के अवैध होने आदि का मामला उठा देते हैं। पत्रकारिता के नाम पर काक दृष्टि रखने वाले बेरोजगार ब्लैकमेल करने की फिराक में रहते हैं। अपयश से आयोजकों की निगाह में उनकी कीमत घट जाती है, धन्धा मन्दा पड़ने लगता है। अपमान असहनीय हो जाता है और वे आश्रम छोड़ देते हैं।

इन्हीं दोनों व्यक्तियों की मुलाकात ट्रेन के एक डिब्बे में हो जाती है जिन्हें अपने वैरागी स्वरूप से भी वैराग्य हो गया है और अपने उस स्वरूप से निराश होकर लौट रहे हैं। आपसी संवाद और स्मृतियों के सहारे पूरी कथा कही गयी है। कृति बताती है कि इस अर्धसामंती, अर्धपूंजीवादी दौर में शांति उन्हें वहाँ भी नहीं मिलती जहाँ से भाग कर वे धर्म के धन्धे में उतरे थे। यहाँ भी ऐसी ही लपट झपट है, ऊंचे नीच है, एक दूसरे को उठाना गिराना है, सम्पत्ति जोड़ने की तमन्नाएं हैं, षड़यंत्र हैं, महंती के लिए मुकदमेबाजी तक है। शांति वहाँ भी नहीं है जहाँ वे जाने की सोच कर निकले है। ‘राग दरबारी’ का वह अंतिम वाक्य याद किया जा सकता है कि भाग कर कहाँ जाओगे रंगनाथ, जहाँ जाओगे तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।

कृति न केवल रोचक है अपितु ऐसे विषय पर सोच समझ कर विस्तृत अध्यन अनुभव व साक्षात्कार करके लिखी गयी है जिससे एक कम ज्ञात दुनिया में चल रहे कार्य व्यापार की विश्वसनीयता बनी रहे। इस क्षेत्र के लोगों की अपनी भाषा होती है, परखने के अपने कोड होते हैं, झंडे होते हैं, खानपान के नियम होते हैं, जिससे असली नकली की पहचान होती है। कृति में न केवल चुनावी राजनीति में धर्म के स्तेमाल, पुलिस प्रणाली, राजस्व प्रणाली, के कमजोर पक्ष को वर्णित किया गया है, अपितु सामाजिक कुंठाओं की ओर भी इशारा किया गया है।

उपन्यास पठनीय है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

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