सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

आरएसएस और पारदर्शिता


सूप तो सूप छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद
               आरएसएस और पारदर्शिता
                                                                          वीरेन्द्र जैन
      राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने गत दिनों यूपीए अध्यक्ष सोनिया गान्धी पर आरोप लगाया कि वे  इमरजेंसी वाली मानसिकता की है जो निरंकुश शासन और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का परिचायक है। उनका कहना है कि श्रीमती गान्धी ने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया है जो कि एक समानांतर सत्ता केन्द्र है। आर्गनाइजर और पाँचजन्य के ताजा अंकों के माध्यम से संघ का कहना है कि वे इसी मानसिकता के के चलते वे देश  की जनता से अपना धर्म, बीमारी और आयकर सम्बन्धी जानकारी भी छुपाती हैं।
      रोचक यह है यह व्यक्तिगत जानकारियों को सार्वजनिक न करने का यह प्रश्न एक ऐसे संगठन ने उठाया है जो स्वयं में ही न केवल झूठ की नींव पर खड़ा है अपितु जिसके सारे के सारे काम गोपनीय होते हैं और जिसके लोग अपनी सच्चाई छुपाने के लिए हमेशा निरर्थक प्रतिक्रियावादी सवाल उठा कर अपनी कमजोरियां छुपाने की कोशिश करते रहते हैं। स्मरणीय है कि संघ अपने आप को सांस्कृतिक संगठन की तरह पंजीकृत कराये हुए हैं जबकि वे न केवल हर कोण से राजनीतिक हैं अपितु सांस्कृतिक कार्यों से उनका दूर का भी नाता नहीं है। 1948 में महात्मा गान्धी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब उसे उठाने के लिए दिये गये प्रार्थना पत्र में संघ के नेतृत्व ने तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को आश्वस्त करते हुए कहा था कि संघ कभी भी राजनीति में भाग नहीं लेगा। पर संघ ने इस वादे पर कभी अमल नहीं किया और अपने स्वयं सेवक भेज कर जनसंघ पार्टी का गठन करा दिया। उस समय से लेकर अब तक जनसंघ, जिसने बाद में अपना नाम भारतीय जनता पार्टी रख लिया है, के सभी स्तर के संगठन सचिव अनिवार्य रूप से आरएसएस के प्रचारक ही होते हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने सारे नीतिगत मुद्दों की पुष्टि संघ के नेतृत्व से लेता है तथा संगठन से लेकर सरकार तक की सारी नियुक्तियां संघ से पूछ कर ही की जाती हैं। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मोल्लि चन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ही अपने पद से त्यागपत्र दिया था व उसके बाद कोई अध्यक्ष संघ से टकराने की हिम्मत नहीं कर सका।  संघ के पदाधिकारियों की नियुक्ति में किसी लोकतांत्रिक तरीके का प्रयोग नहीं होता है पर वे दूसरे को अलोकतांत्रिक बता कर निन्दा करने में सबसे आगे रहते हैं और ऐसा करने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती। पाकिस्तान जाकर ज़िन्ना के मजार पर फूल चढाने के बाद उनकी प्रशंसा करने के आरोप में अडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेता को पार्टी अध्यक्ष का पद संघ के आदेश पर छोड़ना पड़ता है, और संघ की नापसन्दगी के कारण जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को लोकसभा में विपक्ष के नेतापद से वंचित करने के लिए निकालने का ड्रामा किया जाता है। गडकरी जैसे साधारण और दोयम दर्जे के नेता को देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी अपना अध्यक्ष संघ के आदेश पर ही चुनती है तथा उपलब्धिहीन कार्यकाल के बाद भी दूसरी बार अध्यक्ष बनाने के लिए तैयार बैठी है। अपने इन फैसलों के लिए देश तो क्या अपनी बगल बच्चा पार्टी के लोगों को भी वे विश्वास में लेने की जरूरत नहीं समझते।
      स्मरणीय है कि संघ अपने विशाल संगठन को संचालित करने के लिए धन संचय करता है और यह धन गुरु दक्षिणा के रूप में बन्द लिफाफों में लेने का ढोंग करता है। इन बन्द लिफाफों के पीछे का राज यह है कि उन्हें काले सफेद देशी विदेशी धन को ग्रहण करने के बारे में कोई जबाब नहीं देना पड़े। उल्लेखनीय है कि उनके पास एकत्रित धन की पवित्रता के बारे में समय समय पर सन्देह व्यक्त किये जाते रहे हैं। यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किसी के व्यक्तिगत धन के बारे में  अतिरिक्त चिंताएं दर्शा रहा है जिसने स्वयं द्वारा प्रसूत राजनीतिक दल के नेताओं की सम्पत्ति और आय को घोषित करने के बारे में  तब भी आग्रह नहीं किया जब कि उनकी राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष खुले आम नोटों के बंडल लेता हुआ कैमरे की कैद में आ जाता है और उसके एक दूसरे बड़े नेता को उसके भाई ने अतिरिक्त धन के लालच में गोली मार दी थी व उसका सुपुत्र इसी धन के मद में ‘जवानी की भूल’ कर रहा था।
      उल्लेखनीय है कि संघ की सदस्यता का कोई रजिस्टर नहीं होता और वे अपनी सुविधा अनुसार किसी को भी अपना सदस्य घोषित कर देते हैं या उससे इंकार कर देते हैं। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गान्धी की हत्या कर देने के बाद संघ ने कह दिया था कि गोडसे ने गान्धीजी को मारने से पहले संघ को छोड़ दिया था। यही बात पिछले दिनों कई आतंकी बम विस्फोटों के लिए आरोपी बनायी गयी प्रज्ञा सिंह व उसके साथियों की गिरफ्तारी के बाद कही गयी थी। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो संगठन अपनी सदस्यता के लिए किसी भी फार्म या रजिस्टर के न होने का दावा करता है वह कुछ ही घंटों में यह कैसे बता देता है कि कौन अब उसके संगठन का सदस्य नहीं है।

                यद्यपि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में पारदर्शिता को उनके विशेष गुण के रूप में देखा जाना चाहिए किंतु किसी दूसरे व्यक्ति विशेष से इसका आग्रह करते समय भूमि के कानून से अधिक की अपेक्षा करना न्याय संगत नहीं है। इसकी जगह ऐसी माँग रखने वाले लोगों को अपनी सम्पत्ति और आय की घोषणा करके एक बड़ी लकीर खींच कर दिखाना चाहिए। वैसे चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य है और उनके द्वारा दिया गया शपथपत्र चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध होता है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान श्रीमती सोनिया गान्धी ने जो शपथ पत्र प्रस्तुत किया था उसके अनुसार उनके पास कुल एक करोड़ सैंतीस लाख की कुल सम्पत्ति है जिसमें से एक करोड़ सत्तरह लाख की चल सम्पत्ति और बीस लाख की अचल सम्पत्ति है। चल सम्पत्ति बैंक जमा, म्यूचल फंड आदि के रूप में है।
      किसी की बीमारी और धर्म के बारे में जानने का दुराग्रह नितांत अनैतिक और अशालीन है। एक धर्म निरपेक्ष देश में जहाँ प्रत्येक धर्म, जाति, लिंग, को समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं वहाँ किसी के धर्म को जानने की अनाधिकार कोशिश कोई साम्प्रदायिक सोच का व्यक्ति या संगठन ही करना चाहेगा। स्मरणीय है कि पिछले दिनों संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन ने श्रीमती सोनिया गान्धी के विरुद्ध जब अनर्गल बयान दिया था तब उन्हीं के संगठन के लोगों ने उनके मानसिक स्वास्थ ठीक न होने के बहाने अपना मान बचाया था, पर यदि कोई उनके मानसिक स्वास्थ के बारे में अतिरिक्त जिज्ञासा करता तो क्या संघ के लोगों को अच्छा लगता?
वीरेन्द्र जैन
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