फिल्म समीक्षा
पान सिंह तोमर- बैंडिट
क्वीन का पुरुष संस्करण
वीरेन्द्र जैन
पान
सिंह तोमर की कहानी देश के लिए मेडल जीतने वाले एक जाँबाज़ धावक के बागी हो जाने की
वैसी ही सच्ची कहानी है जैसी कि फूलन देवी के जीवन के पूर्वार्ध की कहानी थी और
जिस पर उसके जीवन काल में ही ‘बेंडिट क्वीन’ के नाम से एक सफल फिल्म बनी थी भले ही
उसके बाद का जीवन भी घटनाओं से भरा रहा था और उसका अंत बहुत दुखद हुआ| उसके असली हत्यारे भी आज तक पकड़े नहीं जा सके। सांसद चुने जाने के कुछ वर्ष बाद
उसको उसके बंगले के बाहर ही गोली मार दी गयी थी। फिल्म पर बेंडिट क्वीन का प्रभाव
होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि दोनों ही फिल्में सच्ची जीवन कथाओं पर आधारित
हैं, जिनमें देश की पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर विश्वास खो देने के बाद ही
कथा नायक/ नायिका ने बन्दूक उठा कर अपनी दम पर अपने लिए अपना न्याय स्वयं अर्जित
करने की कोशिश की। उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए ही कानून को
अपने हाथों में लिया और अपने साथ अत्याचार करने वालों को प्रतिशोध के गहरे आवेश
में निर्ममता से मौत के घाट उतारा। चूंकि व्यवस्था की निगाह में उन पर हो रहा अन्याय
अत्याचार गैरकानूनी नहीं था पर उनके द्वारा की गयी हिंसा कानून का उल्लंघन थी
इसलिए अत्याचारियों को दण्ड देने के बाद उन्हें प्रशासन की पकड़ और उसकी पुलिस की
हिंसा से बचने के लिए फरार रहना पड़ा। इस फरारी के दौरान अपना व अपने साथियो का पेट
भरने, सुरक्षा के लिए हथियार व गोला बारूद खरीदने, तथा मुखबरी से बचने के लिए धन
चाहिए होता था इसलिए उन्होंने लूट और अपहरण करके धन संग्रह किया। बैंडिट क्वीन
फिल्म से एकरूपता होने का कारण यह भी है कि दोनों ही फिल्मों में तिग्मांशु धूलिया
का योगदान है। बैंडिट क्वीन में वे शेखर कपूर के सहयोगी थे तो पानसिंह तोमर में वे
स्वयं निर्देशक के रूप में उपस्थित हैं।
अपने
बीहड़ों और डाकुओं के लिए जाने जाने वाले भिंड-मुरैना क्षेत्र में अपनी आन के लिए
जान पर खेल जाना बहुत आम बात है। गाँव छोड़ बीहड़ों में उतर जाने वाले अपने आप को
डाकू नहीं अपितु बागी कहलवाना पसन्द करते हैं। पानसिंह तोमर की कहानी एक ऐसे फौजी
की कहानी है जिसे भरपेट भोजन के शौक व उफनते जोश के कारण फौजी अधिकारी स्पोर्ट
विंग में भेज देते हैं और जो देश और विदेश से मेडल जीतता है। उधर दूसरी ओर उसके
खेत उसके ही रिश्तेदारों द्वारा दबा लिये जाते हैं, फसल काट ली जाती है, व सामंती वृत्तिवश
अकारण ही उन्हें नीचा बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में
पुलिस तक अपनी फरियाद पहुँचना आसान नहीं होती और पुलिस हमेशा उसकी मदद करती है जो
या तो प्रभावशाली होता है या उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे भेंट कर सके। अपने खेतों
और परिवार के स्वाभिमान की रक्षा के लिए पानसिंह फौज की नौकरी छोड़ कर आ जाता है पर
अत्याचार कर रहे अपने लाइसेंसी बन्दूकधारी रिश्तेदारों को रोक नहीं पाता। वह
कलेक्टर, के पास जाता है, पुलिस के पास जाता है, पर कहीं भी उसकी सुनवाई नहीं
होती। एक ऐसी ही असहनीय हिंसा से क्रोधित होकर वह अपना गिरोह बना लेता है और अपने
दुश्मनों को ठिकाने लगाता है। उसके मन में कहीं अपना पक्ष रखने की छटपटाहट है
जिससे वह एक पत्रकार को साक्षात्कार देना स्वीकार करता है इसी साक्षात्कार के
सहारे कहानी कही जाती है, जिसमें स्पोर्ट्स से सम्बन्धित अपनी उपलब्धियां गिनाते
हुए वह अपने बागी बनने के कारणों पर प्रकाश डालता है। इस साक्षात्कार से लोगों को
पता चलता है अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फौजी खिलाडी से गैर जिम्मेवार व्यवस्था कैसा व्यहवार
करती है और उसे बागी बनने को मजबूर करती है। इशारों इशारों में फिल्म बहुत सारी
बातें करती है। स्पोर्ट्स का कोच अपने रिश्तेदार को मेडल दिलवाने के लिए सुपात्रों
को पीछे कर देते हैं। कलैक्टर अपना फैसला देने की जगह आपस में समझौता कर लेने की सलाह देकर अपनी जान छुड़ाने की कोशिश करता है।
पुलिस इंस्पेक्टर का ज्ञान और रुचि में देश के लिए जीता जाने वाले मेडल का कोई
महत्व नहीं। पैसे की दम पर अत्याचारी अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस गार्ड लगवा सकता
है और उससे नौकरों की तरह शराब लाने का काम ले सकता है। पटवारी ले दे कर किसी के
खेत किसी के नाम दिखा सकता है, जो आम तौर पर हिंसा का कारण बनता है। पर डाइरेक्टर
ने अपनी व्यावसायिक दूरदृष्टिता से राजनीतिक पक्ष को दूर रखा है, जबकि आजकल
राजनीतिक दल के नाम से काम करने वाले गिरोह भी शोषण के तंत्र में बड़ी भूमिका निभा
रहे हैं।[केवल एक संवाद में नाय़क कहता है कि मैं फौज में इसलिए आया क्योंकि बाकी
सब जगह चोर बैठे हैं।]
फिल्म में कसावट है, यथार्थ है, और कुछ भी अनावश्यक नहीं ठूंसा
गया है, न संगीत, न नृत्य, न संवाद, न संवाद के नकली स्वर। इस पर भी फिल्म लगातार
दर्शक को बाँधे रखती है। फिल्म में इरफान ने अपनी भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से
निभायी है पर निर्देशक उसके डकैत बनने और बीहड़ में रहने के बाद भी उसे चिकना चुपड़ा
दिखाने का मोह नहीं त्याग सका। यही भूल उसने नायक की पत्नी की भूमिका निभाने वाली
माही गिल के मेकअप के साथ भी की है, ये दोनों ही स्थानीय और गिरोह के लोगों से अलग
दिख कर अस्वाभाविकता पैदा करते हैं। क्षेत्र विशेष के लोगों को उच्चारण भी खटक
सकता है।
कुल मिला कर यह फिल्म बैंडिट क्वीन परम्परा की एक आफबीट अच्छी
फिल्म कही जा सकती है, जिसमें व्यवस्था की समीक्षा निहित है। इसकी सराहना की जानी
चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
bahut hi sundar aur sarthak sameeksha hai... film ka to koi tod hi nahi hai....
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