श्रद्धांजलि--ः शम्भू तिवारी
उनसे मतभेद रख कर भी मित्रता की जा सकती थी
वीरेन्द्र जैन
शम्भू तिवारी की म्रत्यु की खबर कितनी भयावह है ये वही समझ सकते हैं जो सामंती युग में जी रहे दतिया जैसे कस्बे में सोचने समझने और पढने लिखने के कारण किसी लोकतांत्रिक समाज में जीने की इच्छा रखते हैं। शम्भू तिवारी दतिया की सक्रिय राजनीति में ऐसा इकलौता नाम था जो अपनी राजनीतिक सक्रियता को एक वैचारिक आधार देता था और उस पर पूरी तार्किकता से बात करने में कभी पीछे नहीं रहता था। राजनीति में आने का चुनाव उनका अपना था। उनके पास न तो कोई वंश परंपरा थी और न ही कोई ऐसे संसाधन थे जिनकी दम पर या जिनकी रक्षा के लिए उन्हें राजनीति में आना पड़ता। शम्भू तिवारी ने नेतृत्व के गुण स्वयं विकसित किए थे और साधनों के बिना भी युवाओं की एक ऐसी टीम जोड़ी थी जो भारतीय राजनीति में केवल कम्युनिष्टों या समाजवादियों के पास ही पायी जाती रही थी। उनसे जुड़ी युवा शक्ति से चमत्कृत होकर कई संसाधनों वाले नेताओं ने उनको साथ लेने की कोशिश की किंतु वे कभी भी झुक कर समझौता करने के लिए तैयार नहीं हुये। उन्हें इमरजैंसी में जेल जाना पड़ा, किसी ग्राम में हुए किसी हत्याकांड के कारण फैले पुलिस के आतंक में जीता हुआ चुनाव हार जाना पड़ा। जीवन यापन के लिए नौकरी करनी पड़ी, पर शम्भू तिवारी को किसी ने टूटते हुए नहीं देखा। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को उन्होंने अपनी ताकत के आगे झुकाया और कई राजनीतिक दल बदले किंतु वे उन राजनीतिक दलों के गुलाम नहीं हुये। मेरे साथ उनके रिश्ते राजनीतिक विचार विमर्श के रिश्ते थे और किसी भी दल में रहते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि वे उस दल के नीतियों को पसन्द करने के कारण उस दल में गये हैं। मुझे वे बताया करते थे कि दतिया जैसे क्षेत्र में अभी वैचारिक राजनीति सम्भव नहीं है और अपनी बात कहने व कुछ सार्थक करने के लिए यदि किसी मंच की तलाश है तो अपनी ताकत को किसी से जोड़ कर शेष राजनीतिक शत्रुओं को पराजित किया जा सकता है। इस मामले में उनकी समझ बहुत साफ थी। सामान्य तौर पर उनके आस पास रहने वालों में मैं कुछ इक्के दुक्के लोगों में से था जिनके साथ उनकी राजनीतिक विचारधारा पर लम्बी बात होती थी। उनसे मतभेद होते थे, गर्मा गरम बहसें होती थीं, पर वे कभी मन भेद में नहीं बदलती थीं। कभी कहीं किसी के साथ कोई ज्यादती होती थी तो वह बेझिझक शम्भू तिवारी का दरवाजा खटखटा सकता था। भले ही वह हर चुनाव में अपना वोट किसी पैसे वाले नेता को बेचता रहता हो, पर न्याय के लिए निःस्वार्थ मदद की उम्मीद उसे इसी दरवाजे पर रहती थी, जहाँ से उसे कभी निराशा हाथ नहीं लगती थी। यह इकलौता द्वार था जहाँ पर उसे लुटने का कोई डर नहीं होता था और ना ही दलाली का खतरा रहता था। जिन गुण्डों से लोग थर थर काँपते थे उनके घर के दरवाजे पर सही बात के लिए निर्भय होकर दस्तक देने का साहस इस इकलौते नेता में था। इस व्यक्ति का व्यक्तित्व बाहरी स्वरूप पर निर्भर नहीं था। उनके कपड़े सदा सादा रहते थे, उन्हें बड़ी गाड़ियों की दरकार नहीं थी। एसी का पास होते हुए भी स्लीपर क्लास में यात्रा कर सकते थे। उनसे ठंडी सड़क के फुटपाथ या फव्वारे पर बैठ कर देर रात तक राजनीति, समाज, दर्शन और साहित्य पर बातें होती रहीं हैं। नीरज और मुकुट बिहारी सरोज की कविताएं वे दिल की जिस गहराई के साथ सुनाते थे उससे उनकी संवेदनशीलता का पता चलता था। अपने साथ रहने वालों के साथ उन्होंने कभी भी उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर भेदभाव नहीं किया। वे न ऊंचे सरकारी पद से कभी प्रभावित हुए और ना ही नामी गिरामी नेता से अपनी बात साफ साफ कहने में उन्होंने कोई संकोच किया। वे न तो किसी पाखण्डी धर्मगुरु से प्रभावित होते थे और न ही किसी प्रसिद्ध धर्मस्थल से। सामाजिक रूढियां या परम्पराओं के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था, पर वे किसी की भावनाओं को आहत नहीं करते थे। उनकी मित्रता में न कभी धर्म आढे आता था और न ही जाति। उनके मित्रों में जितने हिन्दू थे उतने ही मुसलमान। जितने ब्राम्हण थे उतनी ही दलित। जब वे विधायक थे तब उनके साथ सबसे अधिक समय रहने और साथ खाने पीने वाला व्यक्ति एक निर्धन दलित युवक ही था। यह अनुपात उनकी ओर से तब भी नहीं बदला जब उन्होंने किसी संकीर्ण सोच वाले राजनीतिक दल को भी उपकृत किया। दतिया की जन हितैषी माँगों के लिए सर्वाधिक जन आन्दोलन चलाने का इतिहास भी उन्हीं के साथ जुड़ा है।
वे यारों के यार थे और मित्रता में कुछ भी बलिदान करने की बादशाहत उनमें थी। हमारी परम्परा में भी दुनिया की सारी परम्पराओं की तरह स्वर्ग की कल्पनाएं मौजूद हैं जिसके आभास को दुनिया वाले कुछ रसायनों के सहारे पाने की कोशिश करते हैं। मध्यम वर्ग इसका आसान शिकार हो जाता है। जब कोई व्यक्ति विरोध से नहीं मरता तो उसे विकृतियों का शिकार बनाया जाता है। वे शिकार हो गये, पर जब तक जिये शान से जिये। वे न जिन्दगी में किसी से डरे और न ही मौत से डरे। दूसरे को तो डरपोक भी भयवश मार देते हैं किंतु अपने आपको मारने का काम कोई निर्भीक ही कर सकता है। उनकी अंतिम निडरता को भी सलाम।
वीरेन्द्र जैन
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