फिल्म समीक्षा- पिंक
यह सामाजिक ही नहीं
राजनीतिक फिल्म भी है
वीरेन्द्र जैन
सुजित सरकार की फिल्म ‘पिंक’ न केवल विषय के चयन में महत्वपूर्ण है अपितु उसके
निर्वहन में भी सफल है। पिछली सदी से प्रारम्भ महिलावादी आन्दोलनों के बाद जो
महिला सशक्तिकरण आया है उससे परम्परावादी समाज के साथ कई टकराव भी पैदा हुये हैं। उन्हीं
में से एक को इस फिल्म के विषय के रूप में चुना गया है।
यह बात खुले दिमाग से स्वीकार कर ली जाना चाहिए कि महिलावादी आन्दोलन उसी समय
से तेज हुआ है जब से महिलाओं को गर्भ धारण करने या न करने की सुविधा प्राप्त हुयी
है। परिवार नियोजन सम्बन्धी उपायों के विकसित हो जाने के बाद से ही महिला दोयम
दर्जे के नागरिक होने से मुक्ति पा सकी है। महिला और पुरुष के बीच गर्भ धारण की
क्षमता ही एक प्रमुख अंतर है, क्योंकि गर्भ धारण के दौरान उसे न केवल कठोर शारीरिक
श्रम से बचना होता है अपितु बच्चे को पाल कर बढा करने में उसके जीवन का प्रमुख
हिस्सा लग जाता रहा है। एक से अधिक बच्चे होने पर वह आजीवन घरेलू महिला होने के
लिए अभिशप्त हो जाती है और वैसे ही घरेलू काम अपना लेती रही है। एक मध्यमवर्गीय
परिवार के बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा करने लायक बनाने में बीस साल लग जाते हैं
जिसके लिए कई बार न चाहते हुए भी दम्पति को एक साथ रहना भी जरूरी होता है। स्तनपान
कराने से लेकर मातृत्व की भावना के कारण महिला की जिम्मेवारी बच्चे के पोषण हेतु अधिक
महत्वपूर्ण होती है तो घर चलाने के लिए साधन अर्जित करने की जिम्मेवारी पुरुष के
हिस्से में आयी है जिसके प्रति वह लापरवाह भी हो सकता है किंतु महिला अपनी
जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह नहीं हो सकती। यह बात उसे बाँधती रही है, उसकी
आज़ादी को सीमित करती रही है। गर्भधारण की स्वतंत्रता के बाद वह पारिवारिक गुलामी
से, भावनात्मक गुलामी [इमोशनली ब्लैकमेलिंग] से मुक्त हो सकने की स्थिति में आयी
है।
दूसरे के श्रम से अपने लिए सुविधाएं बढाने वाले समाज ने गुलाम बनाने शुरू किये
व इतिहास बताता है कि ऐसे प्रत्येक मालिक से मुक्त होने के लिए मानव जाति को संघर्ष
करना पड़ा है। हर बेड़ी के अपने स्वरूप होते हैं जिनमें से कुछ दृश्य होती हैं और
कुछ अदृश्य होती हैं। परम्पराओं में ढाल कर कुछ बेड़ियों को इस तरह प्रस्तुत किया
गया है जिससे वे प्राकृतिक जैसी लगने लगती हैं। अपने को प्राप्त हर पत्र का उत्तर
देने के लिए प्रसिद्ध डा. हरिवंशराय बच्चन ने एक बार लिखा था कि ‘मैं आज़ाद को भी
उतनी आज़ादी देना चाहूंगा कि अगर वह चाहे तो गुलामी स्वीकार कर ले’। न आज़ादी का
स्वरूप किसी पर थोपा जा सकता है और न ही गुलामी के स्वरूप को थोपा जाना चाहिए।
अब महिलाओं को जबरदस्ती
उस बन्धन से बाँध कर नहीं रखा जा सकता है जो बन्धन कच्चा पड़ चुका है। महिलाओं की
शिक्षा, स्वतंत्र रोजगार, के बाद उन्हें अपना स्वतंत्र घर भी चाहिए जिससे निकाले
जाने का अधिकार अब तक हमेशा परिवार के पुरुष के पास ही रहा है क्योंकि मकान का
मालिकत्व उसे ही प्राप्त रहा है। चर्चित फिल्म
की तीन महिला पात्रों में से एक दिल्ली में अपने पिता का घर होते हुए भी किराये के
मकान में दो अन्य युवतियों के साथ सहभागी की तरह रहती है व अपना मकान बनवाने के
लिए लोन लेकर किश्तें चुका रही है। वह नहीं चाहती कि डांस के कार्यक्रमों से देर
रात लौटने पर उसे परिवार की बन्दिशों का सामना करना पड़े। समझौते से देश को मिली
आज़ादी के बाद एक नया सामंत वर्ग उभरा है जो नागरिक अधिकारों, सरकारी सुविधाओं, और
कानून के पालन में भी अपनी विशिष्टता मानता है। रोचक यह है कि इस नये सामंती वर्ग
की टकराहट पूंजीवाद से नहीं है अपितु यह उसका सहयोगी है। कथा का खलनायक ऐसे ही
परिवार का लड़का है जिसे राजनीति में सक्रिय अपने चाचा का संरक्षण प्राप्त है। यही
कारण है कि डिनर के लिए ले जाकर बलात्कार करने की कोशिश करने पर युवती अपनी रक्षा
में उसे बोतल से मार देती कर घायल कर देती है, तो पुलिस उस लड़के की नियम विरुद्ध
मदद करती है और पीड़ित लड़की को ही आरोपी बना देती है। लड़के का वकील लड़कियों की
स्वतंत्र वृत्ति के कारण उनको ही चरित्रहीन सिद्ध करता है।
यह
लड़का और उसके साथी मकान मालिक को धमकाते ही नहीं अपितु उसके स्कूटर को टक्कर मार
कर डराते भी हैं जिससे वह स्वतंत्र रूप से रह रही लड़कियों से मकान खाली करा ले और
वे बेघर हो जायें। कहीं गुलाम परम्परा टूट न जाये इसलिए आसपास के सभी लोग स्वतंत्र
लड़कियों को चरित्रहीन मान कर चलते हैं व उस धारणा को स्थापित भी करना चाहते हैं।
आन्दोलनों में एक
गीत गाया जाता है- हम क्या गोरे क्या काले, सब एक हैं, हम जुल्म से लड़ने वाले सब
एक हैं, एक हैं। प्रताडित और अकेली पड़ गयी लड़कियों की मदद के लिए एक ऐसा बूढा वकील
सामने आता है जिसकी पत्नी [या प्रेमिका] मृत्यु शैया पर है और उसकी सेवा के लिए वह
वकालत छोड़ चुका है। एक पीड़ित संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे की वेदना को समझ सकता है।
इस वकील की सफल भूमिका अमिताभ बच्चन ने की है। यह वकील पर्यावरण के प्रदूषण से ही
पीड़ित नहीं महसूस करता अपितु समाज में खत्म होती जा रही संवेदनाओं की साफ हवा की
कमी को भी महसूस करता है। उम्र ने ऐसे लोगों की आवाजों को शिथिल कर दिया है व जज
को उसे कहना पड़ता है कि थोड़ा तेज बोले। यह वकील, जज और मकान मालिक जैसे कुछ लोग इस
बात का प्रतीक है कि मनुष्यता के पक्ष में आवाज उठाने वाले कुछ उम्रदराज लोग ही
बचे हैं, और वे भी प्रदूषित वातावरण में अकेले पड़ते जा रहे हैं।
पुलिस और नौकरशाही अपराधी राजनीतिज्ञों और
उनके परिवारियों के खिलाफ कानून का पालन करवाने में डरती है। होटल मालिक जैसे व्यवसाय
करने वाले उन्हीं के पक्ष में अनुकूल गवाही देने को मजबूर हैं। यह संयोग ही है कि
न्याय व्यवस्था में कहीं कहीं कुछ संवेदनशील न्यायाधीश, या निरीह महिला पुलिसकर्मी
दिख जाती हैं।
यह यथार्थवादी फिल्म स्पष्ट संकेत देती है कि यदि कुछ संयोग घटित न हुये होते
तो व्यवस्था स्वतंत्र होने का प्रयास करती लड़कियों को हत्या के प्रयास व अवैध देह
व्यापार के अपराध में सजा दे चुकी होती। महिला सशक्तिकरण कानून के दुरुपयोग को
लेकर समाज में व्याप्त धारणाओं और उनके पक्ष की महिलाओं को बड़ी बिन्दी वाली ब्रिग्रेड
बताने के संवाद बताते हैं कि बदलाव पर विमर्श न चाहने वाले उनकी निन्दा करके या
चरित्र पर हमला करके अपनी घृणा व्यक्त करते रहते हैं। महात्मा गाँधी भी राजनीतिक
स्वतंत्रता और सामाजिक स्वतंत्रता को अलग करके नहीं देखते थे। यही कारण रहा कि
उन्होंने अछूतोद्धार, और स्वतंत्रता संग्राम साथ साथ चलाया था। जो राजनीति,
सामाजिक स्वतंत्रता के आन्दोलन को दूर रख कर चलती है उसको गहराई नहीं मिलती। इस
तरह यह फिल्म सामाजिक सवाल उठाते हुए राजनीतिक सवाल भी उठाती है।
वीरेन्द्र जैन
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