श्रद्धांजलि / संस्मरण से.रा.यात्री मेरे बड़े भाई से बढ कर रहे यात्रीजी
वीरेन्द्र जैन
सुप्रसिद्ध कथाकार से रा यात्री नहीं रहे। वे 91 वर्ष के थे। जब तक मैं यात्रीजी से नहीं मिला था तब तक मैं खुद को भाई विहीन मानता था क्योंकि मैं अपने पिता का अकेला पुत्र था किंतु उनसे मिले स्नेह और वरद हस्त के बाद मैंने पहली बार जाना कि एक बड़ा भाई क्या होता है।
जबसे मैंने कुछ कुछ लिखना प्रारम्भ किया था तब लिखना केवल छपने के लिए होता था और जिस विधा में भी छपने की गुंजाइश देखता था, उसी विधा में हाथ आजमाने का प्रयास करता था। एक बार एक पुस्तकालय की रद्दी की बिक्री में मुझे कई किलो कादम्बिनी पत्रिकाएं सस्ते में मिल गयीं। रामानन्द दोषी के सम्पादन में निकलने वाली इस पत्रिका में श्रेष्ठ विदेशी साहित्य के हिन्दी अनुवाद के सार संक्षेप सहित समकालीन श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य का प्रकाशन होता था। इसकी सामग्री के चयन में यह सावधानी रखी जाती थी कि रचनाओं का आकार बहुत बड़ा न हो, वे सुगम्य, हों रोचक हों और गागर में सागर भरती हुयी लगें। जापानी हाइकू की तरह छोटी कविताओं का नियमित प्रकाशन भी क्षणिका के नाम से कादम्बिनी ने ही प्रारम्भ किया था। किसी भी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में मेरी पहली रचना क्षणिका के रूप में कादम्बिनी में ही छपी थी। कादम्बिनी का एक और गुण उसे दूसरी पत्रिकाओं से अलग करता था और वह यह कि वे लेखकों के पते भी छापते थे जिससे जरूरत पड़ने पर पाठक उनसे सीधे संवाद कर सकते थे। अपने एक मित्र से प्रभावित होकर मैंने चर्चित व्यक्तियों से पत्र व्यवहार का रोग पाल लिया था व कादम्बिनी के अंकों ने मुझे सैकड़ों की संख्या में पते उपलब्ध करा दिये थे। कई बार तो किसी की रचना पर कोई भी असंगत सवाल उठा कर उससे पत्र व्यवहार का गौरव ओढ कर खुश हो लेता था।
से.रा. यात्री जी का पता भी ऐसे ही मेरी डायरी में दर्ज हो गया था।
बाद में ऐसा हुआ कि मैं अपने समय की श्रेष्ठतम पत्रिका धर्मयुग में व्यंग्य कविताएं लिखने लगा और लगभग नियमित रूप से लतीफे भी लिखने लगा। इसी दौरान एक विवादवश धर्मयुग ने मेरे नाम के साथ मेरे नगर का नाम भी जोड़ना शुरू कर दिया था व मेरे नाम के इस अनूठेपन के कारण यह पाठकों की निगाह में खटकने लगा था। उन दिनों मैं एक छोटे बैंक में नौकरी करता था जिसमें स्थानांतरण अखिल भारतीय स्तर पर होते थे। इसी क्रम में मेरा स्थानांतरण भरतपुर से गाज़ियाबाद हो गया। एक ओर तो दिल्ली के निकट गाज़ियाबाद स्थानांतरण से मैं उत्साहित था तो दूसरी ओर कम वेतन में महानगर में रहने की समस्याएं भी थीं। मैं ने अपनी डायरी देखी और उसमें जो प्रमुख नाम सामने आया वह से.रा. यात्री का ही था। उनके नाम का संक्षिप्तीकरण मुझे पहले भी आकर्षित करता रहा था।
मैंने उन्हें पत्र लिख दिया तथा अपने बारे में पूरा परिचय देते हुए बहुत विनम्रता से निवास खोजने में मदद की याचना की। उनका उत्तर आने से पहले ही मैं एक रविवार गाज़ियाबाद के लिए निकल पड़ा ताकि ज्वाइनिंग से पहले मकान तलाश कर सकूं। बिस्तरबन्द और अटैची एक सस्ते से होटल में रखे और सबसे पहले यात्रीजी के पते कवि नगर की ओर निकल पड़ा\ अपनी पहली मुलाकात में ही मुझे उनकी प्यार भरी डांट खानी पड़ी व उसके साथ भरे पेट में भी खाना खाना पड़ा। डांट इसलिए कि मैंने होटल में कमरा क्यों लिया और सीधे घर पर क्यों नहीं आया और जोर देकर यह भी नहीं कह सका कि खाना भी होटल में खा कर आया हूं। उस पहली मुलाकात में ऐसा नहीं लगा कि किसी इतने जाने माने लेखक से पहली बार मिल रहा हूं। आज जब छोटे से छोटे परिवार में भी किसी मेहमान के आने से घर छोटा पड़ने लगता है और दिल सिकुड़ने लगते हैं लेकिन यात्रीजी के पाँच बच्चों और एक डागी के परिवार में दो बैड रूम के कमरे में वे अनजान मेहमान को घर में रुकवाने के आग्रही थे। यह बात मुझे अन्दर तक भिगो गयी। उन्होंने मेरे लिये एक वन रूम सैट का फ्लैट देख लिया था और उसी दिन मकान भी तय हो गया जो यात्री जी के निवास और मेरी बैंक की शाखा के बीच में ही बराबर दूरी पर था। मैं गाज़ियाबाद में लगभग दो वर्ष रहा और कभी भी ऐसा नहीं लगा कि मेरा कोई सरपरस्त नहीं है।
मेरा परिवार उनके जितना मेहमान नवाज नहीं था और हम लोग उनकी मेहमान नवाजी का जवाब उसी भाषा में नहीं दे पाते थे किंतु इस आधार पर उनके व्यवहार में कभी कमी नहीं आयी। उनके घर पर साहित्यकारों का आना जाना लगा ही रहता था और वे सब उनके परिवार के सदस्य की तरह ही सहज होकर आते थे। सब एक साथ बैठ कर मटर छीलने या प्याज काटने का काम करते थे। सारिका कार्यालय मुम्बई से दिल्ली आ गया था और वरिष्ठ् उप सम्पादक अवध नारायण मुद्गल को कार्यकारी सम्पादक होकर अकेले ही दिल्ली आना पड़ा, चित्रा जी को बच्चों की पढाई के लिए मुम्बई ही रहना पड़ा था।। मुद्गल जी अक्सर ही शनिवार को गाज़ियाबाद आ जाते थे और यात्री जी के यहाँ गोष्ठी जमती थी। मैं जो कभी सारिका जैसी पत्रिका का मुरीद था, व उसमें लघु कथाएं लिखता था, इसलिए उसके तत्कालीन सम्पादक के साथ बैठकी कर गर्व महसूस करता था।
एक बार राजेन्द्र यादव की चेखव के बारे में एक किताब यात्री जी लाये थे व उसको आधार बना कर वे सारिका में लगातार स्तम्भ लिख रहे थे। राजेन्द्र यादव ने पुस्तक वापिस मंगवायी थी जिसे लौटाने के लिए हम दोनों लोग उनके आफिस में गये थे तो राजेन्द्रजी बोले यात्री तुम अपना कवच साथ में लाये हो। उसी समय राजेन्द्र जी ने शानी जी के पक्ष में इन्दिरा गाँधी के नाम एक ज्ञापन लिखा था क्योंकि नवभारत टाइम्स ने शानी जी की छत्तीसगढ से सरकारी नौकरी छुड़वा कर रविवारीय परिशिष्ट के सम्पादक के रूप में बुलवाया था और एक साल पूरा होते ही उन्हें सेवा मुक्त कर दिया था। राजेन्द्र जी चाहते थे कि उनके साहित्यिक कद के अनुरूप उन्हें कोई सरकारी पद मिले। उस ज्ञापन पर उन्होंने यात्रीजी के हस्ताक्षर लिये और मुझ से भी दस्तखत करने को कहा। पहले तीन नामों में हम लोगों के नाम थे। तब ऐसी छोटी मोटी बातों से भी बड़ी खुशी मिलती थी इसीलिए घटना याद बनी रही।
जब में हाथरस में था तो एक बार मुरसान गेट से गुजरते हुए अचानक मुझसे मिलने काका हाथरसी मेरी ब्रांच में आये तो पूरी ब्रांच के सदस्यों ने उनके साथ फोटो खिंचवाना चाहा। पड़ोस के एक फोटोग्राफर ने तुरंत फोटो भी खींच लिये। उन्होंने मेरे साथ इन्टरव्यू मुद्रा में अलग से फोटो खिंचवाया। मैं वह फोटो फ्रेम में जड़वा कर टीवी के ऊपर रखता था। एक दिन यात्रीजी आये और उन्होंने कहा कि आपके साथ काका बहुत अच्छे लग रहे हैं। मैं उनका व्यंग्य समझ गया और उस दिन के बाद मैंने वह फोटो तो हटा ही दी, उसके बाद किसी भी चर्चित विशिष्ट व्यक्ति के साथ कभी फोटो नहीं खिंचवायी। इसी घटना से याद आया कि प्रबन्धन से टकराहट के कारण मेरा ट्रांसफर गाज़ियाबाद से हैदराबाद कर दिया गया तो यात्रीजी मेरे लिये दुखी थे। मैं अपने उस समय के ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के ट्रांस्पोर्टेशन में असुरक्षा के प्रति चिंतित था तो उन्होंने उस टीवी की पूरी कीमत पर अपने पास रख लिया और कहा कि तुम वहाँ दूसरा खरीद लेना। उन्होंने पूरी सहानिभूति और आत्मीयता के न जाने ऐसे कितने अहसान किये। हैदराबाद जाते हुए मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं घर से बाहर जा रहा हूं। वे स्टेशन पर छोड़ने आये थे। सामान में किताबों से भरा एक भारी स्टील का बक्सा भी था। कुलियों ने मजबूरी समझ कर कुछ ज्यादा ही पैसे मांग लिये तो उन्हें गुस्सा आ गया और बोले कि इसे हम लोग खुद ले जायेंगे। हम दोनों लोगों ने एक एक कुन्दा पकड़ा और ऊंचे जीने पर चढा कर ले गये। इस प्रयास में उनका अंगूठा भी चोटिल हो गया था। हैदराबाद पहुंचने तक भी उनकी चिंता मेरे प्रति बनी रही और उन्होंने कल्पना पत्रिका की पुरानी टीम के सदस्यों, मुनीन्द्रजी और ओम प्रकाश निर्मल को पत्र लिखे जिससे मुझे वहाँ के साहित्यकारों के बीच अपने कद से अधिक सम्मान और स्नेह मिला। मुनीन्द्रजी के साप्ताहिक पत्र हैदराबाद समाचार [ अब दक्षिण समाचार] में मुझे निरंतर लिखने का मौका मिला जिससे मेरा गद्य व्यंग्य बहुत सुधरा। इस दौरान भी मेरा उनसे पत्र व्यवहार और निजी सलाह लेने का रिश्ता बना रहा। जब हैदराबाद के बाद नागपुर होते हुए मेरा ट्रांसफर जबलपुर हुआ तो उन्होंने ज्ञानरंजन जी को मेरे लिए पत्र लिखा। जब मैं ज्ञानजी से मिलने गया तो उन्होंने कहा कि तुम्हारे कारण बहुत वर्षों बाद यात्री जी का पत्र मिला। ऐसे ही एक ट्रांसफर पर उन्होंने मुझे लिखा था कि नाम तो मेरा यात्री है पर असली यात्री तो तुम हो।
1984 में मैं हरपालपुर पदस्थ हो गया था, तब तक मेरे पास इतने व्यंग्य हो गये थे कि एक संग्रह आ सकता था। उस समय का चलन था कि नये लोग अपना पैसा खुद लगा कर संग्रह छपवाते थे, पर मेरी जिद थी कि अपने पैसे लगा कर संग्रह नहीं छपवाऊंगा। मैं अपनी पाण्डुलिपि लेकर सीधा गाज़ियाबाद पहुंच गया और अपनी बात रख दी। यात्रीजी कई प्रकाशकों के लिए पाण्डुलिपि के सम्पादन में सहयोग देने का काम भी करते थे। उन्होंने उस समय के बहु चर्चित प्रकाशक पराग प्रकाशन के श्रीकृष्ण अग्रवाल से मिलवा दिया और प्रकाशन के लिए कहा। वे यात्रीजी के आदेश से इंकार नहीं कर सके और मेरी पहली पुस्तक छप गयी। बाद में जब मैं सेवानिवृत्ति लेकर भोपाल रहने लगा तो वे एक प्रकाशक को लेकर भोपाल आये और उसके सरकारी काम में सहयोग करने व स्थानीय साहित्यकारों से परिचित कराने की जिम्मेवारी सौंप गये। मैंने उनका भरपूर सहयोग किया और कई बड़े लेखकों से पुस्तकें देने को कहा। उन्होंने मेरी दो पुस्तकें छापीं। उनके साथ मेरा अनुभव अच्छा नहीं रहा पर मैंने यात्री जी से कभी शिकायत नहीं की और ना ही जैसे को तैसा वाली नीति अपनायी क्योंकि वे यात्री जी द्वारा भेजे गये थे।
1986 में मैं फिरसे नगरी नगरी द्वारे द्वारे भटकने को मजबूर हो गया था क्योंकि बैंक ने मुझे इंस्पेक्टर [आडीटर] बना दिया था। उन दिनों मैं लखनऊ प्रवास पर ही था जब वहाँ प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना का स्वर्ण जयंती आयोजन हो रहा था। मैं छुट्टी लेकर उस आयोजन में शामिल होने का लोभ संवरण नहीं कर सका। संयोग से अतिथि के रूप में आमंत्रित यात्रीजी से मुलाकात हो गयी। मैं जिस होटल में रुका हुआ था वह आयोजन स्थल के समीप में ही था। दो तीन दिन उनका साथ रहा और दो भाइयों के बीच निजी बातें होती रहीं।
वे बहुत ही पतले अक्षरों में स्पष्ट लिखते थे और अंतर्देशीय पत्र या पोस्टकार्ड का ही प्रयोग करते थे। अपनी लम्बी लम्बी टांगों से वे प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल ही चलते थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे पहले सोशलिस्टों वाली लाल टोपी लगाते थे किंतु मैंने उन्हें कभी टोपी लगाये नहें देखा। उनका कुर्ता जरूर लम्बा होता था। उसके बारे में एक बार होली के अवसर पर बीबीसी लन्दन से एक संस्मरण सुना था कि उनके मित्रों द्वारा किसी दूर दराज के निर्जन स्थल पर भांग की पार्टी रखी गयी। उसके सेवन के बाद प्यास लगी। पास में ही एक कुंआ दिखा किंतु रस्सी नहीं थी। विचार बना कि यात्री जी का कुर्ता तो लम्बा है इसलिए वे झाड़ी के पीछे जा कर पाजामा उतार दें जिससे बाल्टी बांध कर पानी निकाल लिया जाये। इस अभियान में जब भांग का सेवन किये हुए एक साथी के हाथ से रस्सी बना पाजामा छूट गया और बाल्टी सहित पाजामा कुंएं में चला गया। यात्रीजी झाड़ी के पीछे ही खड़े रह गये।
ऐसा नहीं है कि यह सब उन्होंने मेरे लिए ही किया अपितु उनका स्वभाव ही ऐसा था कि किसी की भी सहायता करने में पीछे नहीं रहते थे। देश भर के साहित्यकारों पत्रकारों कलाकारों आदि का जो प्रेम उन्हें मिला वह दुर्लभ है। जो भी उनके सम्पर्क में आया वह उनका हो गया। वे अजातशत्रु थे। उनकी स्मृति बनी रहेगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें