श्रद्धांजलि / संस्मरण
दिनेश चन्द्र दुबे, उर्फ दिनेश भाई साहब
वीरेन्द्र जैन
दिनेश चन्द्र दुबे का नाम पहली बार मैंने दिनेश भाई साहब के रूप में ही सुना था। उनके तीन छोटे भाई मेरे साथ पढे या रहे और वे उन्हें इसी नाम से सम्बोधित करते थे। सीएमओ पद से सेवानिवृत्त प्रेमचन्द दुबे व डा. प्रकाश चन्द दुबे तो बीएससी में मेरे साथ पढते थे और इसी रिश्ते से पब्लिक प्रसीक्यूटर रहे हरीश अपने साहित्यिक शौक में मेरे साथ जुड़े और सर्वाधिक आत्मीय मित्रों में से एक रहे। हरीश अपनी अधिकांश मन की बातों को मेरे साथ बांट लेने व विश्लेषित करना चाहता था। मैं भी किसी भी अन्य की तुलना में अपनी अनेक बातें उस से साझा कर सकता था क्योंकि हम दोनों ही यह मानते थे कि हम दोनों इसके लिए सुपात्र हैं। जब कभी मैं दुखी होता था तब वह कहता था कि हम मध्यमवर्गीय लोगों में पीढीगत तनाव स्वाभाविक है। अपनी बात के समर्थन में वह अपने घर की कुछ निजी बातें भी बताता था जिससे मुझे लगने लगता था कि – दुनिया में कितना गम है, अपना दुख कितना कम है।
सात आठ बहिन भाई के उस कुनबे में सब कुछ अनियोजित था और अपनी शिक्षा के लिए हरीश को कभी सुरेश भाईसाहब [एडवोकेट ग्वालियर] , या दिनेश भाई साहब मजिस्ट्रेट के यहाँ रहना पड़ा। भाइयों के अपने अनुशासनात्मक नियमों और भाभियों के लिए अयाचित मेहमान से उपजे द्वन्द से निबटने में उसे कथा साहित्य से जो दृष्टि मिली उसने उसे दृष्टा बना दिया था और वह सारे संकटों को हँस कर सह सकता था। इसी क्रम में उसने अपने भाइयों के जीवन के बारे में जो बातें बतायीं, उसी से मैंने दिनेश भाई साहब को जाना। उनके पास रहते हुए उसने मेरे बारे में भी शायद उन्हें कुछ अच्छा अच्छा बताया होगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे मेरे प्रति मित्रता का भाव रखने लगे थे। उन दिनों मैं देश भर की पत्रिकाओं में छोटी छोटी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से खूब प्रकाशित हो रहा था। दिनेश जी में प्रकाशन के प्रति गहरा रुझान था और वह इस सीमा तक था कि 1976 के दौरान जब धर्मयुग में उपसम्पादक की जगह निकली तो उन्होंने उस के लिए आवेदन किया था। संयोग से मैं उन्हीं दिनों मुम्बई में धर्मयुग कार्यालय मे गया था तो मनमोहन सरल जी के साथ बातचीत में प्रसंग निकल आया। जब मैंने उनके आवेदन की चर्चा की तो सरल जी ने आश्चर्य से पूछा कि वे तो मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ हैं। हरीश के माध्यम से मैं उन्हें जितना जान पाया था उसके आधार पर मैंने उन्हें बताया कि भले ही वे मजिस्ट्रेट के पद पर हैं, किंतु तोते की जान कहीं और बसती है। तब तक उनकी कहानियां धर्मयुग सारिका आदि में छप चुकी थीं और भी अनेक पत्रिकाओं में वे छप रहे थे। उनका पद भी इसमें मदद कर रहा था।
उन दिनों हिन्दी में ‘आज़ाद लोक’ और ‘अंगड़ाई’ नाम से दो पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं जिनमें प्रकाशित कथाओं की कथावस्तु अश्लील मानी जाती थी। दिनेशजी इन पत्रिकाओं में कथात्मक स्तम्भ लिखते थे। पत्रिका का सम्पादक प्रकाशक लेखकों में सबसे ऊपर उनका नाम छापता था और साथ में प्रथमश्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट लिखना भी नहीं भूलता था। इस तरह वह अपनी पत्रिकाओं को थोड़ी वैधता और गरिमा प्रदान करने की कोशिश कर लेता था। अपने उक्त स्तम्भ के बारे में दिनेश जी का मुझसे कहना था कि वे तो केवल किसी बलात्कार, देह व्यापार के किसी मुकदमे की केस डायरी लिख देते हैं और उनमें अश्लीलता जैसी कोई चीज पिरोयी नहीं जाती। इसी निजी बातचीत में उन्होंने यह भी कहा था कि ये पत्रिका मुझे एक कहानी के चार सौ रुपये देती हैं जिनके सहारे मैं ईमानदार बना हुआ हूं। उल्लेखनीय है कि उनकी न्यायिक सेवाओं के प्रारम्भिक दौर में उनकी ईमानदारी और कठोर अनुशासन की बहुत ख्याति रही है। टीकमगढ जिले में कोई नामी गुंडा था जिसे पुलिस अदालत का सम्मन तामील नहीं कर पाती थी और बार बार आकर यह कह देती थी कि वह मिलता ही नहीं है। दिनेश जी ने पुलिस इंस्पेक्टर से कहा कि अपनी जीप बुलाओ और उस जीप में खुद बैठ कर आरोपी के घर पहुंचे और अन्दर घुसकर उसे गरेबान से पकड़ कर पीटते हुए ले आये। मजिस्ट्रेट के काम करने का यह तरीका बहुत चर्चा का विषय रहा।
उनकी कोर्ट कुछ दिनों के लिए टीकमगढ की जतारा तहसील में भी लगती थी। उन्होंने धर्मयुग में प्रकाशित अपने न्यायिक संस्मरणों में उसकी एक घटना की चर्चा की है जिसमें न्याय के लिए बार बार चक्कर लगाती एक बुढिया कहती है कि उसे हर बार फैसले की जगह ‘ जौ कागज कौ टूंका मिल जात है’ [अगली तारीख की कगज की पर्ची] । बाद में फिल्मी दुनिया का ऐसा ही डायलाग बहुत चर्चित हुआ था कि तारीख पै तारीख, तारीख पै तारीख... । हो सकता है कि डायलाग लेखक ने इसे इसी सच्चे संस्मरण में से लिया हो।
जब उन्होंने मुझे आज़ादलोक और अंगड़ाई में लिखने की मजबूरी बतायी थी उन्हीं दिनों की बात है कि देश भर के प्रथमश्रेणी मजिस्ट्रेटों ने अपनी वेतंनवृद्धि की मांगों को लेकर दिल्ली में जलूस निकाला था और देश को बताया था कि उनकी तनख्वाहें बैंक के चपरासियों से भी कम हैं। तब तत्कालीन कानून मंत्री या वित्तमंत्री ने कह दिया था ‘ तो जाकर बैंक में चपरासी हो जाओ’। उसे याद करते हुए वे बहुत तल्खी के साथ कहते थे कि वीरेन्द्र तुम बैंक में बाबू हो और तुम्हारी तनख्वाह मुझ से भी ज्यादा है।
इसी से जुड़ा एक और किस्सा है कि एक जिले में एक महिला वकील जो सोशल एक्टविस्ट भी थीं उन से ऐसे बोलीं जैसे वे उनका बहुत बड़ा रहस्य जान गयी हों कि मजिस्ट्रेट साब आप तो बहुत पढे लिखे प्रतिष्ठित साहित्यकार हो, पर ऐसी पत्रिकाओं में क्यों लिखते हो। उन्होंने उत्तर दिया कि यह तो मैं बाद में बताऊंगा, पहले तो आप यह बताओ कि ऐसी पत्रिकाएं आप तक कैसे पहुंच गयीं? महिला वकील चुपचाप चली गयीं।
दिनेशजी दुस्साहसी, निर्भय और बेपरवाह थे। उन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जिया। वे अफसरों की दावतों में छुरी कांटे से खाने की जगह हाथ से खाना शुरू कर देते थे जिनकी देखादेखी दूसरे अनेक लोग भी उनका अनुशरण करते थे। वे रूढियों, परम्पराऑं के अन्धे गुलाम नहीं थे। जब वे सागर में पदस्थ थे तब उन्होंने अपनी एक बेटी की शादी वहाँ के एक बड़े वकील के बेटे से कर दी थी। शादी के दूसरे दिन मैं किसी काम से सागर गया तो एडवोकेट महेन्द्र फुसकेले बोले यार यह तुम्हारा दोस्त कैसा है, पूरी शादी में इसने अपने समधी से इस तरह का व्यवहार किया जैसे कोर्ट में कोई मजिस्ट्रेट अपने वकील से करता है। जब मैं उन से घर पर मिलने गया तब तक वे अपने सारे मेहमानों को विदा कर चुके थे। उन्होंने शादी के बारे में तो कोई बात नहीं की किंतु तुरंत वीसीआर खोल कर बैठ गये और बोले देखो मेरी कहानी पर एक फिल्म बनी है।
एक विधवा से दूसरा विवाह कर लिया, पहली पत्नी गाँव चली गयीं जहाँ उनकी पैतृक जमीन थी, किंतु कुछ वर्षों बाद वहाँ उनके नौकर ने उनकी हत्या कर दी। एक बेटा अविवाहित रहा, बेटी का तलाक हो गया किंतु वे सब सहन करते गये।
पिछले वर्षों में उन्हें सुनायी देना कम हो गया था और अगर किसी समारोह में मिल जाते तो खुद जोर जोर से बोलते और सामने वाले को भी बाध्य करते। इससे समारोह के श्रोताओं और कार्यक्रम में व्यवधान पड़ता। किंतु वे निरपेक्ष रह कर अपनी बात करते रहते। हर बार उनकी किताबों की संख्या बढ जाती। एक फिल्म में भूमिका निर्वहन के लिए वे दण्डित भी किये गये और नौकरी छोड़ना पड़ी।
किसी की परवाह किये बिना, उन्होंने घटनाओं से भरा जीवन जिया। ऐसे लोग मुझे बहुत भाते रहे हैं, पर उनका प्रशंसक होते हुए भी कभी उनका अनुशरण नहीं कर सका। उनका मित्र होने पर गौरवान्वित महसूस करता रहा हूं । वे अनेक दंतकथाएं छोड़ गये हैं इसलिए याद आते रहेंगे।
दिनेश भाईसाहब को विनम्र श्रद्धांजलि।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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