श्रद्धांजलि /
संस्मरण वाहिद काज़मी
एक मस्त मलंग यायावर
का चला जाना
वीरेन्द्र जैन
वाहिद काज़मी मेरे ऐसे दोस्त थे जिनसे मैं कभी नहीं मिला, किंतु ऐसे इकलौते
दोस्त भी थे जिनसे मैंने अपनी आदत के विपरीत अपने जीवन की निजी बातें भी पत्र में
लिखी थीं। आज जब उनके निधन का समाचार मिला तो विचार करने के लिए विवश हुआ कि पता
नहीं ऐसा क्या था जो मैं उनके साथ अपना अंतर मन साझा कर सका।
पिछले पचास साल से जब से मैंने पहले पढना और फिर लिखना सीखा तब से देश भर की
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों व विधाओं पर उनका लिखा हुआ पढने को
मिला। सबसे ज्यादा मुझे उनके नाम ने आकर्षित किया था- स्वामी वाहिद काजमी। ये वही
दिन थे जब रजनीश जी जो तब आचार्य रजनीश हुआ करते थे, ने अपने प्रवचनों और
वक्तव्यों से पूरे हिन्दी क्षेत्र के पढने लिखने सोचने विचारने वालों के बीच तहलका
मचा दिया था और लाखों लोगों की तरह मैं भी उनके भाषा माधुर्य और तार्किकता के प्रभाव
में था। उन दिनों मैं अमृता प्रीतम, और रजनीश की किताबें तलाश तलाश कर पढ रहा था।
एक अंग्रेजी के पत्रकार ने उन पर जो लेख लिखा था उसका शीर्षक था – प्लेजर आफ
रीडिंग रजनीश। आप उन्हें मानें या न मानें किंतु रजनीश को पढने में किसी कथा या
व्यंग्य साहित्य को पढने का मजा तो आता ही था। वाहिद काजमी के आगे स्वामी लग जाने
से यह संकेत तो मिल ही र्हा था कि एक अपेक्षाकृत कट्टर समुदाय का व्यक्ति भी रजनीश
के विचारों से प्रभावित हुआ है व अपनी धर्मिक कट्टरता को छोड़ कर अपना चुनाव खुद
करने का साहस दिखा रहा है। किसी भी क्षेत्र की क्रांतिकारिता मुझे लुभाती थी क्योंकि इससे अपनी सोच और विचार
को बल मिलता था।
हम अपने नगर के सभी लोगों को नहीं जानते किंतु फिर भी अगर सुदूर कोई मिल जाता
है तो आत्मीयता उमड़ आती है। वाहिद काजमी ने संतों विशेष कर सूफी संतों के बारे में
बहुत खोज खोज कर लिखा है और इसी क्रम में उन्होंने 50-55 साल पहले दतिया के एक
सूफी संत ऐन सांई पर भी एक लेख कादम्बिनी में लिखा था और कादम्बिनी के पुराने अंक
देखते हुए उस पर दोबारा नजर पड़ गयी थी। लगा कि जब उसे पहली बार पढा होगा तभी वाहिद
काजमी का नाम कहीं दिमाग में आत्मीय लोगों में दर्ज हो गया होगा। तब तक मुझे यह
पता नहीं था कि वे ग्वालियर के मूल निवासी हैं और हमारी दतिया के पड़ोसी हैं।
जब मुझे पत्रिकाओं में छपने का शौक जागा तो हर नई पत्रिका मुझे चुनौती की तरह
लगती थी कि इसमें छपना है, इस शिखर पर
चढना है। इसलिए हर स्तर की पत्रिकाओं के सम्पर्क में आता गया और अनेकों में एक बार
छप कर छोड़ दिया। मैंने देखा कि लगभग उन सारी पत्रिकाओं में कहीं न कहीं वाहिद
काज़मी मौजूद मिलते थे। हंस, वर्तमान साहित्य से लेकर दक्षिण समाचार तक की बहसों
में हम लोग शामिल मिलते थे और लगभग एक ही तरफ होते थे। स्मरणीय है कि दक्षिण समाचार
श्री मुनीन्द्रजी द्वारा सम्पादित साप्ताहिक टेबुलाइज्ड पत्र था जिसमें साहित्य को
विशेष स्थान मिलता था। मुनीन्द्र जी हिन्दी की उन पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं में
से एक कल्पना के सम्पादक मंडल के प्रमुख रहे थे जिसमें उनके साथ भवानी प्रसाद
मिश्र, प्रयाग शुक्ल, ओम प्रकाश ‘निर्मल’ आदि अनेक लोगों ने काम किया था जो बाद
में साहित्य के आकाश में सूरज की तरह चमके। हरिशंकर परसाई का व्यंग्य वहीं से
स्तम्भ की तरह छपा जिसका नाम ‘और अंत में’ था। मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध कविता “
अंधेरे में “ वहीं पहली बार छपी थी और तब उसका शीर्षक दिया गया था “ सम्भावनाओं के
दीप अंधेरे में”। जब मेरा ट्रांसफर हैदराबाद कर दिया गया था जिसे परसाई जी के
शब्दों कहें कि फेंक दिया गया था तो मैंने इस चुनौती और भय मिश्रित दुस्साहस की
सूचना अपने तमाम परिचितों को दी थी। परिणाम यह हुआ था कि जिससे भी सम्भव हुआ उसने
हैदराबाद के अपने परिचितों को पत्र लिखा। शायद सबसे अधिक पत्र मुनीन्द्र जी को ही
मिले होंगे और सम्भव है कि उसमें मेरी साहित्यिक औकात के बारे में कुछ अतिरंजित
बातें भी लिखी हों। बहरहाल मुझे मुनीन्द्र जी का विशेष स्नेह मिला और लिखने के लिए
दक्षिण समाचार जैसा खुला प्लेटफार्म मिला। मैंने उस खुलेपन का भरपूर उपयोग किया।
दक्षिण समाचार कल्पना से जुड़े रहे देश भर के सभी प्रमुख साहित्यकारों के पास
पहुंचता रहा व उसके सहारे मैं भी पहुंचता रहा। मेरे गद्य व्यंग्य लेखन ने वहीं से
गति पकड़ी। मैं हैदराबाद से स्थानांतरित भी हो गया किंतु दक्षिण समाचार में
प्रकाशित होना जारी रहा। इस पत्र में स्वामी वाहिद काजमी भी समय समय पर लिखते रहते
थे जिसमें मेरा और उनका पता भी छपता रहता था। इसी के सहारे उनसे तब छुटपुट
पत्रव्यवहार शुरू हुआ जब मैं 1990 में लीड बैंक आफिस में दतिया वापिस लौट आया था।
शायद इसी दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि वे ग्वालियर के ही रहने वाले हैं और अपने
स्वतंत्र लेखन के शौक में अकेले जिन्दगी गुजार रहे हैं। मैंने भी ऐसी जिन्दगी
गुजारनी चाही थी किंतु अपनी जिम्मेवारियों से मुँह न मोड़ सकने के कारण वैसा नहीं
कर सका। जब कोई ऐसा करता दिखता था तो मेरे मन में उसके प्रति बड़ी श्रद्धा उमड़ती
रही। वाहिद काजमी के प्रति श्रद्धा व स्नेह में शायद इस कारक की भी भूमिका रही हो।
जब मैं भोपाल आकर रहने लगा तब कई वर्षों बाद उनका पत्र आया कि आपके नाम के
मेरे एक मित्र दतिया में भी हैं। उत्तर में मैंने लिखा कि मैं वही हूं और नौकरी
छोड़ कर अब भोपाल ही रहने लगा हूं व ज्यादातर समय यहाँ अकेले ही रहता हूं क्योंकि
अभी बच्चे दतिया में ही हैं। इसी क्रम में निजी बातों और निजी अनुभवों का सिलसिला
चल निकला। बात यहाँ तक पहुंच गयी कि उन्होंने अम्बाला छोड़ कर भोपाल में बसने का
प्रस्ताव कर दिया व रहने का ठिकाना मिलने तक मेरे यहाँ ही रहने का प्रस्ताव कर
डाला। मैं असमंजस में पड़ गया क्योंकि मैं उनके समान स्वतंत्र नहीं था व मेरा
परिवार आता जाता रहता था जिसे किसी भी तरह के बाहरी व्यक्ति का घर में रहना
बिल्कुल भी पसन्द नहीं आ सकता था, चाहे वह कोई रिश्तेदार ही क्यों न हो।
उन्हें सुनने में समस्या थी इसलिए वे टेलीफोन का प्रयोग नहीं करते थे इसलिए
उनसे जितनी भी बात हुयी वह पत्रों के माध्यम से ही हुयी। उनकी स्मृति जरूर बहुत
अच्छी थी। एक बार उन्होंने दस साल पहले धर्मवीर भारती पर लिखा एक लेख मांग लिया जो
मुझे भी याद नहीं था। फिर उन्होंने बताया कि वह फलां सन में दक्षिण समाचार में
प्रकाशित हुआ था। संयोग से वह मिल गया और मैंने उन्हें भेज दिया किंतु मैं उनकी
स्मृति पर चमत्कृत था। इसी तरह उन्होंने किसी पत्रिका के महिला विशेषांक के लिए
मुझसे लेख मांगने के लिए प्रतिष्ठित लघु पत्रिका सम्बोधन के सम्पादक को लिख दिय।
सम्पादक का पत्र आया तो मैं असमंजस में था पर उन्होंने ही याद दिलाया कि हंस में
छिड़ी एक बहस में जो मेरे विचार थे उसे ही विस्तार देकर लिख दूं। वह अच्छा खासा लेख
बन गया जो अन्यथा मैंने नहीं लिखा होता।
जब शीबा असलम फहमी ने अपनी पत्रिका ‘हैड लाइंस प्लस’ निकाली तो राजेन्द्र यादव
के इशारे पर मैंने उसमें नियमित लिखना शुरू कर दिया और देखा कि वहाँ भी वाहिद
काजमी अपनी मौलिक खोजों के साथ मौजूद हैं। उनके एक शीर्षक का नाम तो अभी भी याद है
जिसमें उन्होंने बताया था कि औरंगजेब का एक नाम नौरंगीलाल था और वह होली भी खेलता
था।
उन्होंने सैकड़ों साल पहले के संतों की खोज तो की किंतु उनके निजी जीवन के बारे
में ऐसे ही फुटकर फुटकर् सुनने को मिला। वे ग्वालियर में आंतरी से थे। शिक्षा में
बीएससी पूरी नहीं कर सके। घर छोड़ कर चले आये व विभिन्न शहरों में रहते हुए अंततः 1989
में अम्बाला के पुल चमेली पर स्थित होटल में स्थायी निवास बना लिया। अपना खाना खुद
बनाते थे और आजीविका के लिए स्वतंत्र लेखन पर निर्भर थे। उन्होंने शायराओं की
विलुप्त पांडुलिपियों पर बहुत काम किया व विस्मृत हो गये संत साहित्य को सामने
लाये। उनकी सहायता से सैकड़ों छात्रों ने पीएचडी की व उन्होंने बिना किसी लोभ लाभ
के उनकी मदद की। वे चित्रांकन में भी महारत रखते थे भले ही अंतिम वर्षों में उनके
हाथ कांपने के कारण यह विधा छोड़नी पड़ी। मेरे पास उनके जो दर्जनों पत्र हैं वे बहुत
ही छोटे छोटे किंतु स्पष्ट सुन्दर अक्षरों में लिखे गये हैं। मैं उन्हें संक्षिप्त
पत्र लिखता थ किंतु वे विस्तार से उत्तर देते थे।
4 दिसम्बर 1945 को
जन्मे वाहिद काजमी ने ‘रूपा की चिट्ठी’ पत्रिका में कई वर्ष काम किया। कहानी लेखन
महाविद्यालय के महाराज कृष्ण जैन के सहयोगी रहे, हिन्दी के जाने माने साहित्यकार
‘रावी’ के बहुत आत्मीय रहे। पता नहीं यह गिनती कितनी सही है क्योंकि संख्या ज्यादा
भी हो सकती है, पर उनके मित्र बताते हैं कि उनके एक हजार से ज्यादा लेख, समीक्षाएं,
व्यंग्य, संस्मरण, और कहानियां प्रकाशित हैं। उन्होंने दो सौ से अधिक उर्दू
उपन्यासों के अनुवाद किये हैं। उनकी एक कहानी ‘लानत’ व उनकी जीवनी आज भी केरल विश्वविद्यालय में स्नातक के छात्रों की अंग्रेजी
पुस्तक ‘रीडिंग एंड रियलिटी’ का हिस्सा है। क्रमशः उनकी सुनने की क्षमता कम होती गयी थी किंतु उन्होंने
अपने अनुभव के आधार पर संगीत पर ढाई सौ से अधिक लेख लिखे जिनमें से बहुत सारे काका
हाथरसी की संगीत कार्यालय से प्रकाशित पत्रिका संगीत में प्रकाशित हुये। संगीत
अमृत महोत्सव में उन्हें संगीत मर्मज्ञ की उपाधि से विभूषित किया गया था। हरियाणा
सरकार के 10 बड़े खंडों में विभक्त साहित्य ‘हरियाणा इनसाइक्लोपीडिया’
में भी
उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके लिए न केवल उन्होंने लिखा, बल्कि वह एक खंड की परामर्श समिति के सदस्य भी रहे। उनकी ‘सिने संगीत’ पुस्तक भी विशेष वर्ग में लोकप्रिय
रही। इसमें सिने संगीत पर उनके गूढ़ शोध लेख शामिल हैं।
सभी धर्मों को मानने का दावा करने वाले वाहिद
कजमी मानते थे कि मैं इतने धर्मस्थलों तक कैसे जा सकता था इसलिए मेरी कर्मभूमि ही
मेरा धर्मस्थल रहा है। एक मुस्लिम परिवार में पैदा होकर भी वे नवाज पढने कभी
मस्जिद नहीं गये। वे मेडिकल कालेज को अपनी देह दान कर गये थे किंतु कोरोना पाजटिव
होकर ठीक हुये लोगों की देह मेडिक़ल कालेज स्वीकार नहीं करते इसलिए उनके मित्रों ने
परम्परागत रूप से उनका अंतिम संस्कार कर दिया था।
उनके निधन की सूचना मुझे उनकी मृत्यु के चार
महीने बाद अचानक अम्बाला के विकेश निझावन से बातचीत होने पर लगी। कोरोना काल में
सूचनाओं का भी लाक डाउन रहा क्योंकि जब मैंने उनसे परिचित साहित्यकार राम मेश्राम
और अनवारे इस्लाम से पूछा तो उन्हें भी इस खबर का पता नहीं था।
भविष्य में जब कोई उन पर शोध करेगा तब पता
चलेगा कि हमने कोरोना काल में ना जाने कितने लोगों को ऐसे ही खो जाने दिया था।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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