स्मरण नामवर सिंह - हमने फिराक को देखा है
वीरेन्द्र जैन
फिराक गोरखपुरी ने कहा था
आने
वाली नस्लें तुम पर फक्र रश्क करेंगी हमअस्रों
जब उनको
ये मालूम होगा तुमने फिराक को देखा है
हम लोग जिन्होंने नामवर
सिंह को देखा है, वे भी ऐसे ही फक्र के हकदार होंगे। नामवर सिंह ने पूरे देश के कम
से कम छह चक्कर लगाये थे व अमेरिका को छोड़ कर पूरी दुनिया में घूम चुके थे। ऐसा
करते हुए वे देश और दुनिया के इतने सारे लोगों से मिले होंगे कि सब को याद रखना
सम्भव नहीं, किंतु जिन लोगों से वे मिले होंगे उनके जीवन में वह क्षण इतिहास बन
गया होगा और उन्हें याद होगा। आज जब नामवर सिंह दुनिया में 93 वर्ष बिता कर विदा
हो चुके हैं तो अपनी ज़िन्दगी के उन ऎतिहासिक क्षणों की याद आना स्वाभाविक है जब
हमने “ फिराक को देखा था”।
हिन्दी साहित्य का पाठक
और फिर छोटा मोटा लेखक हो जाने के बाद हजारों लेखकों के दिमाग में यह सपना रहा है
कि काश उनकी किसी किताब पर नामवर सिंह की निगाह पड़ जाये और अगर कुछ लिख दें तो वह धन्य
हो जाये। मेरे लिए तो यह सपना देखना भी दुर्लभ था। जब कहीं नामवर सिंह का लेख पढने
को मिल जाता तो किसी धार्मिक पाठ की तरह जरूर पढता था। साहित्य की राजनीति की
चर्चाओं में जब उन्हें अपनी राजनीति सोच के नेतृत्व में पाया तो एक आत्मीयता सी
महसूस हुयी, दूसरी ओर अपनी सोच को भी ताकत सी मिलती दिखी। नामवर जी के दुश्मन मुझे
अपने दुश्मन दिखने लगे। हाथरस में बागला कालेज के प्रोफेसर डा. रामकृपाल पांडे कभी
जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके वाइस चांसलर रहते नियुक्त हुये थे और राजनीतिक
कारणों से हटाये गये थे। मैं 1976 में जब हाथरस में पदस्थ हुआ तो पांडे जी मेरे
मित्र बने, व उनके बारे में बहुत सारी बातें बताया करते थे। मैनेजर पांडे जी भी
उनके ही साथ थे और उनके साथ भी वही व्यवहार हुआ था।
उनका पहला भाषण 1982 में
जबलपुर में सुनने को मिला था। मैं पहली बार बैंक मैनेजर पोस्ट हुआ था व चार्ज लेने
की प्रक्रिया में था, दूसरी ओर जिसे चार्ज देना था वह टाल रहा था। मुझे भी कोई
जल्दी नहीं थी व इस प्रकार वेतन लेकर भी लगभग खाली बैठा था। अचानक ज्ञानरंजन जी का
फोन आया कि नामवर जी का भाषण है और फलां फलां हाल में पाँच बजे पहुंचो। मैं लगभग
कथा वार्ता सुनने वाले भक्त की तरह श्रद्धा भाव से पहुँच गया था। ज्ञान जी से पत्र
व्यवहार तो पहले भी रहा था किंतु साथ ताजा था इसलिए मैं उम्मीद कर रहा था कि
ज्ञानरंजन जी के सहारे नामवर जी से परिचय के साथ उन्हें प्रणाम का अवसर मिल जाये। किंतु
पूरे भाषण के बाद भी ज्ञानरंजन जी नहीं दिखे। पूछने पर पता चला कि वे तो अपने घर
पर होंगे। यह बात बाद में पता चली थी कि ज्ञान जी आम तौर पर नेपथ्य में रह कर ही
काम करते हैं और मंच से बचते हैं। नामवर जी को सामने से सुनने का वह पहला अवसर था।
बाद में 1986 में जब प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयंती समारोह का ऎतिहासिक आयोजन
लखनऊ में हो रहा था तब मैं बैंक में इंस्पेक्टर था और उन दिनों लखनऊ की ही ब्रांच
का आडिट कर रहा था, सो छुट्टी लेकर पूरा कार्यक्रम देखा था। तब कैफी आज़मी, शौकत
आज़मी, नागार्जुन आदि अनेक साहित्य के सितारों के साथ लाइन में लग कर लंच लेने का
गौरव महसूस किया था। तब तक मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका था कि किसी विशिष्ट
व्यक्ति से तब तक मत मिलो जब तक कि ऐसा कोई कारण न हो कि वह तुम्हें याद रख सके।
1994 में जब मैं भोपाल पदस्थ हुआ तब नामवर जी समेत हिन्दी उर्दू साहित्य के सभी
सितारों को बार बार सुनने का मौका मिलता रहा। मैंने आफिस से छुट्टी लेकर भी उन्हें
सुनने का शौक पूरा किया है। राजेन्द्र यादव ने तो एक बार कहा था कि आप लोग तो
नामवर जी को यहीं भोपाल में बसा लो ताकि उन्हें बार बार आने जाने की तकलीफ न उठाना
पड़े। विभिन्न विश्व विद्यालयों, यूजीसी के कार्यक्रमों, साक्षात्कारों आदि के लिए
उनका भोपाल ही नहीं देश भर में आना जाना लगा रहता था। हिन्दी साहित्य की उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में स्थान बनाने के लिए उनकी कृपादृष्टि जरूरी मानी जाती थी।
कुछ लोग तो उन्हें हिन्दी साहित्य का डान भी कहने लगे थे।
शिवपुरी में कथाकार
पुन्नी सिंह जी ने प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वाधान में ‘दलित कलम’ के नाम से एक
आयोजन किया था जिसमें नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, मैनेजर पांडे, कमला प्रसाद.
भगवत रावत के साथ साथ दलित साहित्य से जुड़े अनेक मराठी लेखक आमंत्रित थे। दतिया से
डा. के. बी. एल. पान्डेय, राजनारायन बोहरे, कामता प्रसाद सड़ैया के साथ मैं भी
पहुंचा था। इस अवसर पर उपस्थिति का लाभ लेने के लिए अनेक लोगों ने अपनी अपनी पुस्तकों
का विमोचन करा लेना चाहा था। कुछ ही महीने पहले व्यंग्य कविताओं की मेरी एक पुस्तक
छपी थी ‘देखन में छोटे लगें’ । मेरे एक मित्र ने उन्हीं दिनों नई प्रैस डाली थी और
जिद करके मेरी किताब छापने के लिए चाही। मजबूरन मैंने पूर्व में धर्मयुग कादम्बिनी
आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित व्यंग्य कविताएं, क्षणिकाएं आदि को समेट कर उन्हें दे
दी थीं जिन्हें पुस्तक का रूप देने का उन्होंने पहला प्रयोग कर डाला था। उन दिनों मैं
जो अच्छा पढ रहा था उसे देखते हुए यह
प्रयास बचकाना सा था किंतु राज नारायन बोहरे जी जो खुद भी प्रैस मालिक के मित्र थे
ने कुछ पुस्तिकाएं साथ रख ली थीं। इस आयोजन के एक भाग में पुस्तक विमोचन का
कार्यक्रम भी रखा गया था और मुझे आश्चर्य में डालते हुए मेरी किताब भी उनमें शामिल
थी। इसका विमोचन किन्हीं मराठी लेखक ने किया था जिनका नाम मैं अक्सर भूल जाता हूं।
शाम को राजनारायन बोले कि नामवर जी बगैरह को किताब भेंट करने चलते हैं। मुझे ऐसा
लगता था कि वह किताब मेरे [अपने अनुमानित] कद को घटायेगी इसलिए मैंने साफ मना कर
दिया और कहा कि ऐसी किताब उन्हें देने का कोई मतलब नहीं, और देना हो तो तुम खुद ही
दे देना। और वैसा ही हुआ।
एक बार जब अटल बिहारी
वाजपेयी की सरकार थी तब एक सेमिनार में लगभग सभी वक्ताओं ने सरकार पर पाठ्यक्रमों
के भगवाकरण का आरोप लगाया पर जब नामवर जी के बोलने का नम्बर आया तो वे बोले कि
पाठ्यक्रम वे कुछ भी बदल लें पर उसे पढायेगा तो अध्यापक ही। यह उनके उस
आत्मविश्वास की झलक देता था कि देश की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जिस परीक्षण से गुजर
कर नियुक्तियां हुयी हैं, वे प्रोफेसर पाठ्यक्रमों में बदलाव के बाद भी न्याय
करेंगे। भोपाल आकर वे कहते थे कि कमला प्रसाद और भगवत रावत मेरी दो आँखें हैं।
दोनों लोग ही सरकार की अकादिमियों में बड़े बड़े पदों पर रहे थे और समय समय पर उनसे
मार्गदर्शन लेते रहते थे। पाठक मंच योजना से लेकर अन्य जो भी अच्छी योजनाएं मध्य
प्रदेश में लागू हुयीं उन्होंने हिन्दी साहित्य को जनता के बीच बचाये रखने में
बहुत मदद की। पुस्तकों के चयन और महत्वपूर्ण साहित्य के रचनाकारों को सम्मानित
किये जाने में भोपाल ने जो बढत ली, उसमें नामवर जी के मार्गदर्शन और कमलाप्रसाद जी
की कर्मठता का बड़ा योगदान रहा।
मैं सदैव साहित्य के
हाशिए के लोगों में रहा क्योंकि न तो विश्वविद्यालीन लोगों जैसा अकेडिमक था और ना
ही किसी चर्चित कृति का रचनाकार था, पर पाठक ठीक ठाक रहा। कमलेश्वर और राजेन्द्र
यादव जैसे लोगों का प्रशंसक व पाठक रहा। इसी तरह के अध्ययन के सहारे एक दो बार
नामवर जी के विचार को काटने का दुस्साहस भी किया और उनकी नाराजी भी झेली। मैं ना
तो किसी पद पर था और ना ही किसी पुरस्कार की दौड़ में था इसलिए निर्भय था। एक
कार्यक्रम में दूधनाथ सिंह की कहानी शायद ‘नमो
अन्धकार:’ पर उन्होंने कुछ कहा जिससे मैं सहमत नहीं था। मैंने कोई सवाल पूछ लिया
जो उन्हें नागवार गुजरा। उन्होंने किंचित आवेश में कहा कि दूधनाथ सिंह मेरे
रिश्तेदार हैं किंतु आलोचना में रिश्तेदारी नहीं चलती।
ऐसे ही इलाहाबाद के
सत्यप्रकाश जी द्वारा आयोजित किसी बड़े होटल में एक वर्कशाप था और मैं भी भागीदार
था। इस कार्यक्रम में नामवरजी और दूधनाथ सिंह जी दोनों आमंत्रित थे। उन्हीं दिनों
मेरी नई किताब आयी थी। जिन लोगों की भी पिछले दिनों चार छह लोगों की किताबें आयी
थीं वे सभी दोनों लोगों को किताबें भेंट कर धन्य हो रहे थे किंतु मैं जानता था कि नामवर
जी को तो उन किताबों के पन्ने पलटने का भी मौका नहीं मिलेगा किंतु दूधनाथ सिंह जी
अवश्य एक बार मेरे व्यंग्य पाठ के कार्यक्रम में मेरे व्यंग्य की प्रशंसा कर चुके
थे। नामवर जी कनखियों से देख रहे थे कि चलन के विपरीत मैंने उन्हें किताब न देकर
केवल दूधनाथ सिंह जी को किताब दी थी। बाद में आपसी बातचीत में उन्होंने दूधनाथ
सिंह जी पर व्यंग्य भी किया था कि अब तो तुम्हें किताबें भी मुझ से ज्यादा मिलने
लगी हैं।
म.प्र. में सरकार बदल
गयी थी और देश भर में सबसे अधिक सक्रिय प्रदेश की सांस्कृतिक नीति लगभग लकवाग्रस्त
हो गयी थी। पूर्व मंत्री व अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह ने एक प्रतिरोध सभा
आयोजित की थी जिसमें नामवर सिंह जी भी आमंत्रित थे। सारे लेखक एक स्वर से सरकार को
कोस रहे थे और विरोध का आवाहन कर रहे थे। संचालक रामप्रकाश जो मुझे बोलने के लिए
कहना भूल गये थे को अचानक याद आया तो कार्यक्रम के अध्यक्ष नामवर सिंह जी से ठीक
पहले मुझ से बोलने के लिए कहा। मैंने धारा के विपरीत जाकर कहा कि हम लोग कितने
पंगु हो गये हैं कि सांस्कृतिक नीति पर भी अपना विरोध दर्ज नहीं करा पाते और इस
विरोध के लिए भी राजनेताओं [अजय सिंह] की पहल का मुँह देखते हैं। स्मरणीय है कि
श्री कमला प्रसाद जी साहित्य के क्षेत्र में जो भी उल्लेखनीय कर सके हैं, उसमें
अर्जुन सिंह और अजय सिंह जी का विशेष सहयोग रहा था। अजय सिंह जी मंत्री रहते हुये
कमलाप्रसाद जी के सभी सुझाव मानते रहे। मेरे बोलने से वातावरण में कुछ तनाव सा
पैदा हो गया था, जिसे महसूस करके नामवर सिंह जी ने अपने प्रभावी वक्तव्य से दूर किया।
नईम जी की पहली
पुण्यतिथि देवास में मनायी गयी थी जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में नामवरजी को
आमंत्रित किया गया था। आयोजकों में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम विशेष प्रेरक की भूमिका
में उपस्थित थे और उनके साथ मैं भी अपने प्रिय कवि को श्रद्धा सुमन अर्पित करने
गया था। तब उनके साथ दोपहर का भोजन करने और कुछ बातचीत का भी मौका मिला था किंतु
ना ही उनकी आँखों में कोई पहचान उभरी थी और ना ही मैं ने अपने परिचय का कोई प्रयास
किया।
स्मृतियां बहुत छोटी
छोटी हैं और सार्वजनिक रूप से इनका कोई महत्व भी नहीं है, किंतु मुझे याद हैं
क्योंकि नामवर जी का कद बहुत बड़ा रहा है, इसलिए क्षमा याचना के साथ वही पंक्ति
दुहराते हुए दर्ज कर रहा हूं कि मैंने फिराक को देखा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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