धर्मवीर भारती – संस्मरण
धर्मवीर भारती- साहित्य के
कुम्भकार थे
वीरेन्द्र जैन
[ आज एक व्हाट’स एप्प
ग्रुप ‘व्यंग्यकार’ में शरदजोशी का एक भाषण सुना जो उन्होंने धर्मवीर भारती के
सम्मान में आयोजित एक समारोह में दिया था। इससे मुझे लगभग 25 वर्ष पहले लिखा अपना
एक लेख याद आ गया जो ‘हैदराबाद समाचार’ [नया नाम दक्षिण् समाचार] में 15 अक्टूबर
1997 में प्रकाशित हुआ था। मैं तो इसे भूल ही गया था किंतु बेहद प्रतिभाशाली लेखक
स्वामी वाहिद काज़मी [ अम्बाला] ने 2004 में याद दिला कर इसे मांग लिया था जिससे
मुझे यह आत्म संतोष मिला था कि लिखा हुआ कहीं न कहीं दर्ज होता है। पता नहीं वाहिद
काज़मी अब कहाँ हैं, लगभग एक दशक से उनसे सम्पर्क नहीं हुआ। वे फोन का स्तेमाल नहीं
करते थे और पत्रों का उत्तर भी नहीं दे रहे। किसी को पता हो तो सूचना देने की कृपा
करें। ]
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जब भारतीजी धर्मयुग
के सम्पादक थे, उस दौरान मुझसे कई बार किशोरों ने पूछा था कि क्या इस पत्रिका का
नाम इसीलिए ‘धर्मयुग’ है, क्योंकि इसके सम्पादक धर्मवीर भरती हैं। हर बार मेरा
उत्तर नकार में होता था, पर हर बार ऐसा लगता था कि मेरे नकार में ज्यादा दम नहीं
है। भले ही तथ्य के रूप में मेरी बात सही हो, पर ‘धर्मयुग’ ने भारतीजी के कार्यकाल
से भारतीजी के कार्यकाल तक ही अपने को शिखर पर बनाये रखा और उनके जाने के बाद उसका
क्रमशः उतार प्रारम्भ हुआ, जो उसे बन्द होने तक ले गया।
सन 1972 के होली अंक
के लिए नये रचनाकारों से रचनाएं आमंत्रित की गयीं थीं और कुल प्रप्त लगभग 3100
रचनाओं में से धर्मयुग ने चौदह-पन्द्रह रचनाओं का चुनाव किया था। इन रचनाकारों में
सूर्यबाला, प्रभु जोशी, सुरेश नीरव, आदि के साथ मेरा भी नाम सम्मलित था। [ तब
मेरा नाम पूरा था अर्थात वीरेन्द्र कुमार जैन ] मेरी व्यंग्य रचना के चुनाव के
बाद ही धर्मयुग ने इति नहीं कर दी, अपितु पत्र भेज भेज कर रचनाएं आमंत्रित कीं, ये
पत्र मुझ जैसे नये रचनाकार के लिए किसी पुरस्कार से कम महत्व के नहीं थे। इसलिए
मैंने भी अपना सम्पूर्ण श्रम और प्रतिभा का स्तेमाल करते हुए धर्मयुग की अपेक्षाओं
को पूरा करने का प्रयास किया व मेरी रचनाएं उसी गर्मजोशी के साथ प्रकाशित भी हुईं।
संयोग से मेरे हमनाम वरिष्ठ साहित्यकार श्री वीरेन्द्र कुमार जैन को ऐसा लगा कि
हास्य-व्यंग्य हल्के स्तर की रचनाएं हैं और समकालीन साहित्यकारों को यह गलतफहमी हो
सकती है कि वे हास्य-व्यंग भी लिखने लगे हैं। वे वरिष्ठ और आदरणीय थे और भारतीजी
से पहले उनका नाम भी धर्मयुग सम्पादक के रूप में प्रस्तावित था। उनके इस प्रस्ताव
का भारतीजी को भी बुरा लगा कि मेरे नाम की रचनाओं का प्रकाशन बंद कर दिया जाए।
उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा कि मैं इस नाम का प्रकाशन बन्द कर दूंगा पर आप मुझे
विश्वास दिला दीजिए कि उसके बाद कोई व्यक्ति वीरेन्द्र कुमार जैन नाम नहीं रखेगा,
और रखेगा तो लिखेगा नहीं। और फिर मैं धर्मयुग में ही तो रोक सकूंगा पर आप कौन कौन
सी पत्रिकाओं को रोक सकेंगे।
वे निरुत्तर होकर
चले गये पर उन्होंने अपने प्रयासों में कमी नहीं आने दी। उन दिनों वे महावीर
स्वामी पर अपना उपन्यास ‘अनुत्तर योगी’ लिख रहे थे और धर्मयुग आदि के मालिकों में से एक
श्री श्रेयांस प्रसाद जैन को अपना लिखा हुआ सुनाने जाते थे क्योंकि श्रेयांस
प्रसाद जी ने उन दिनों आँखों का आपरेशन कराया हुआ था और वे कुछ पढ नहीं पाते थे।
इस स्थिति का लाभ लेते हुए जब उन्होंने दबाव बनाया तो भारतीजी को कहना पड़ा कि मैं
इसे रोकूंगा तो नहीं पर इसके नाम में कुछ परिवर्तन का प्रयास करूंगा। भारती जी के
सुझाव अनुसार मेरे नाम के साथ मेरे नगर का नाम भी धर्मयुग में लिखा जाने लगा। यह
प्रयोग धर्मयुग के लिए सर्वथा नया था। इससे मेरी भी पूरे देश में एक अलग पहचान बन
गयी थी।
‘धर्मयुग’ भले ही
साहित्य-प्रधान पत्रिका रही हो पर वह मध्यमवर्गीय हिन्दी भाषी परिवारों की इकलौती
साप्ताहिक पत्रिका का दर्जा पा सकी जिसकी पाँच लाख प्रतियां तक प्रकाशित हुईं। उसमें समकालीन राजनैतिक, सामाजिक घटनाओं से लेकर
महिलाओं, बच्चों, फिल्मों आदि सभी के बारे में इतनी संतुलित और विश्वसनीय सामग्री
प्रकाशित होती थी कि आज अनेक लोगों के पास उनके कई वर्षों के अंक संकलित हैं।
हिन्दी पत्रकारिता
के इतिहास में चमकने वाले अनेकानेक सम्पादक धर्मयुग से ही निकले हैं। इनमें
सुरेन्द्र प्रताप सिंह, राजकिशोर, योगेन्द्र कुमार लल्ला, हरिवंश, सुदीप. शीला
झुनझुनवाला, कन्हैयालाल नन्दन, आदि अनगिनित नाम हैं और रचनाकारों का तो कोई अंत ही
नहीं है।
भारतीजी का अनुशासन
बहुत कठोर था। वे किसी से भी ‘धर्मयुग’ कार्यालय में नियत समय के अलावा नहीं मिलते
थे और अपने स्टाफ से भे याही अपेक्षा रखते थे। रचनाओं का अंतिम चुनाव वे स्वयं करते थे और प्रतिभा को पूरा महत्व देते थे।
साहित्य की राजनीति वे इतने खूबसूरत तरीके से करते थे कि उनके ऊपर सीधे सीधे कोई
उंगली नहीं उठ सकती थी। यहाँ तक कि वे सम्पादकीय भी नहीं लिखते थे।
साहित्य के लिए पूरा जीवन समर्पित
कर देने वाले व प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए वे सदैव याद किये जायेंगे।
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