रविवार, जून 06, 2021

संस्मरण /श्रद्धांजलि रामरतन अवस्थीजी मेरे पहले साहित्यिक गुरुओं में थे

 

संस्मरण /श्रद्धांजलि

रामरतन अवस्थीजी मेरे पहले साहित्यिक गुरुओं में थे


वीरेन्द्र जैन

बचपन में पिता से मिले साहित्यिक संस्कारों के बीच जब मैंने कक्षा दस में प्रवेश किया तब शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय दतिया में मेरे कक्षा अध्यापक श्री राम रतन अवस्थी जी थे। उन दिनों मेरे स्कूल में तीन अध्यापक ऐसे थे जो साहित्य पढाते ही नहीं थे अपितु साहित्यिक सम्भावनाओं को तलाश कर उन्हें संवारने का काम भी करते थे। इनमें श्री राधारमण वैद्य के अलावा शेष दो तो चर्चित कवि भी थे जिनमें अवस्थीजी के अलावा दूसरे थे श्री घनश्याम कश्यप जो अध्यापकों के प्रतिनिधि के रूप में एक ग्रुप में विदेश यात्रा भी कर चुके थे।

यह 1962-63 का वर्ष था जब चीन के साथ हुये सीमा संघर्ष के कारण पूरे देश में भावनात्मक उबाल आया हुआ था और जिसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति ह्न्दी कविता के मंचों पर हो रही थी। उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश सरकार की ओर से भी जगह जगह कवि सम्मेलन आयोजित करवाये जा रहे थे। दतिया में प्रतिवर्ष एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की परम्परा थी जिसमें, नीरज, सोम ठाकुर, मुकुट बिहारी सरोज, आनन्द मिश्र, गोपाल सिंह नेपाली, भवानी प्रसाद मिश्र,  काका हाथरसी, बालकवि बैरागी, रमानाथ अवस्थी, रामानन्द दोषी, तन्मय बुखारिया, देवराज दिनेश जैसे लोगों के अलावा क्षेत्रीय और स्थानीय वासुदेव गोस्वामी, चतुरेश, आदि कवियों को मैंने इसी सम्मेलन के दौरान देखा और सुना था। मैं इस बात को गर्व के साथ बताता था कि इस कवि सम्मेलन का संचालन मेरे क्लास टीचर अवस्थीजी किया करते हैं। इसी वर्ष में मैं अपनी कक्षा से कक्षा प्रतिनिधि चुना गया था, जिससे मेरा सम्पर्क उनसे बढ गया था। इसी दौरान स्कूल के वार्षिक फंकशन के दौरान तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था जिसके निर्णायक भी श्री अवस्थीजी और वैद्यजी थे।

औसत से कुछ अधिक लम्बाई वाले अवस्थीजी तन कर और तीव्र गति से चलते थे। कवि गोष्ठियों में उनके गीतों को जिस ध्यान से सुना जाता था उससे उनके साहित्यिक कद का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था। उनके गीतों में जो पूर्णता होती थी वही बात उनके पाठ में भी होती थी। यही कारण है कि मुझे आज भी उनके गीतों के मुखड़े और कुछ अंश याद हैं जैसे यह गीत-

सौ सौ दीप जलाये इस धरती के प्रांगण पर

फिर भी तम की गहराई का अंत नहीं निकला

सोचा था शायद अवनी की तपन शमन होगी

इसीलिए नीलाम्बर ने शबनम बरसाई थी

और शूल की पीर अरे शायद मिट जायेगी

इसीलिए उस पादप पर कलिका मुस्काई थी

मधुर मिलन को बाँहों की सीमा में बाँध लिया

फिर भी विरहानिल से व्याप्त दिगंत नहीं बदला

सौ सौ दीप ............................. 

कवि सम्मेलन के अवसर पर नीरज समेत अन्य कवियों को देखने की उत्सुकता बनी रहती थी और हम किशोर किसी तरह तय समय से पूर्व पहुंच कर दूसरों को यह बताने का गौरव प्राप्त करना चाहते थे कि कौन कौन आ चुका है या मैं किस किस को पहचानता हूं। उस दिन अवस्थीजी का उत्साह भी देखते बनता था। नीरज जी एक खास तरह का कालरदार कुर्ता पहिनते थे , जिसके बटन गले से ठीक नीचे नहीं अपितु दाहिने तरफ होते थे। फुर्तीले अवस्थीजी भी उस दिन वैसा ही कुर्ता पहिन कर आते थे।

फिर 1965-66 में उनका स्थानांतरण या प्रमोशन नौगाँव हो गया, और वे दतिया छोड़ गये। 1971 में मेरी नियुक्ति हरपालपुर में हो गयी। तब तक मुझे लिखने का चस्का लग चुका था और मेरी रचनाएं कुछ राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। उन दिनों हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रिकाएं सीमित संख्या में ही प्रकाशित होती थीं, उससे उनमें प्रकाशित रचनाकारों के नाम को दूर तक पहुंचने में मदद मिलती थी, भले ही उन्हें इसका आभास ना हो। हरपालपुर में भी प्रतिवर्ष एक कवि सम्मेलन आयोजित होता था और उसमें मुझे भी आमंत्रित किया जाता था। एक वर्ष कुछ ज्यादा ध्यान से सुन लिया गया तो मेरी ख्याति कुछ और आगे बढी व बढ कर नौगाँव तक पहुंच गयी। मुझे पता नहीं था कि वहाँ के कवि सम्मेलन का संचालन भी अवस्थीजी ही करते हैं। उनका आमंत्रण मिला और मैंने आदेश का पालन किया। अपने नगर से बाहर कविता पाठ का मेरा वह पहला कवि सम्मेलन था। पहले स्कूल में मिले पुरस्कार के बाद जिस पहले कवि सम्मेलन में मुझे कविता पाठ के लिए पारश्रमिक मिला उसका श्रेय भी अवस्थीजी को ही जाता है। इसके बाद तो जब तक मैं हरपालपुर में रहा, मुझे छतरपुर, टीकमगढ, महोबा आदि आसपास के कवि सम्मेलनों के निमंत्रण भी मिलते रहे। इसी भरोसे मैं इस दुस्साहसी विचार तक भी पहुंचने लगा था कि अगर मंच से आय होने लगे तो मैं नौकरी ना करने की अपनी दबी हुयी इच्छा पूरी कर लूं। वह तो विवेक ने समय पर साथ दिया और मैंने यह अतिवादी कदम नहीं उठाया।

प्रारम्भ में मेरी नौकरी एक छोटे बैंक में थी जिसमें अधिकारियों के स्थानांतरण अखिल भारतीय स्तर पर होते थे। इस नौकरी और मेरे कबीर स्वभाव ने मुझे बहुत भटकाया व मेरे स्थानांतरण पाँच राज्यों के पन्द्रह स्थानों में हुये। हर बार मैं अपने सभी परिचितों को पत्र लिख कर अपने ट्रांसफर और पता बदलने की सूचना देता था। सौ से अधिक की इस सूची में आदरणीय अवस्थीजी का नाम भी रहता था।

1989 से दूषित राजनीति के दुष्प्रभाव के चलते देश भर में जो विषाक्त वातावरण बनता जा रहा था उसने मुझे बहुत उद्वेलित कर दिया था। प्रतिवर्ष नववर्ष के ग्रीटिंग कार्ड के रूप में मैं कुछ काव्य पंक्तियां लिख कर छपवा कर सभी मित्रों, सम्पादकों, आदि को भेजता था, जो साम्प्रदायिक विषाक्तता के खिलाफ होती थीं। इससे जो फीडबैक मिलता था उससे मुझे पता चलता था कि दूसरे भी क्या सोच रहे हैं। मुझे खुशी होती थी जब उन पंक्तियों के लिए मुझे अवस्थीजी का आशीर्वाद मिलता रहता था। यह सिलसिला सन 2001 तक चला। उन्होंने अपनी प्रकाशित कविता पुस्तक भी मुझे भेजी। जब वे फेसबुक से जुड़े तो फेसबुक पर उनसे सम्वाद करने के अवसर निरंतर मिलते रहे। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ कर जो वातावरण बनाया गया था तब नववर्ष 1993 के अवसर पर भी मैंने कार्ड भेजा था, उसके उत्तर में 11 जनवरी 1993 का उनका जो लम्बा पत्र पन्ना से मिला था उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

“................... यह जानकर अभिभूत हूं कि आप जैसे विज्ञ स्वजन, एक अंतराल के पश्चात भी मुझे मन के किसी कोने में स्थान दिये हैं। जिन्दा रहने के लिए इतनी खुशफहमी का टानिक पर्याप्त है। नूतन वर्ष पर अग्रज होने के नाते आपके लिए सुखद, समृद्ध, और समुन्नत भविष्य की परमप्रभु से कामना करता हूं।

यह जानकर और खुशी हुई कि आपका साहित्यकार, गतिशील है, अन्यथा मुझ जैसे तथाकथित साहित्यसेवियों को तो हालातों और सवालातों के भँवर में उलझकर अपनापा भूल जाते हैं। आपकी यह पंक्तियां बड़ी सार्थक और जीवंत लगीं;-

एक मन्दिर से बड़ा है आदमी

एक मस्जिद से बड़ा है आदमी ....

बधाई हो इन पंक्तियों के लिए। आप साहित्यसेवा में इसी तरह निरत रहें- यही मेरी कामना है ।

आज के हालातों पर मैंने भी कुछ मुक्तक लिखे थे जिनमें से एक इस तरह है-

सोये दानव को जगाया- ये क्या किया तुमने

हँसते मानव को रुलाया- ये क्या किया तुमने

बीते कल तक तो रहे थे आदमी की तरह

भेड़िया उनको बनाया – ये क्या किया तुमने

उनका निधन कोरोना काल में पटना में हुआ। उसी दौरान अन्य चर्चित लेखकों का निधन भी हुआ। फेसबुक पर श्रद्धान्जलि देने का एक दोष मुझे यह दिखायी दिया कि लेखकों के सभी मित्र, पाठक या प्रशंसक गूगल से फोटो डाउनलोड करके एक जैसे जीवन परिचय दे कर अपना सम्बन्ध प्रकट करना चाहते हैं, इससे एक घटाटोप छा जाता है और सम्वेदनाओं की गहराई कम होती जाती है। इसलिए ऐसे अवसरों पर मैं संगठनों द्वारा व्यक्ति श्रद्धांजलि के साथ ही होता हूं। यही कारण रहा कि मैं उन्हें विलम्ब से याद कर सका।

 दिल की पूरी गहराइयों से उन्हें श्रद्धांजलि। वन्दनाजी [वन्दना अवस्थी दुबे]  उनकी सभी बहिनों और माँ जी को नमन।  

    वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629

      

   

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