संस्मरण /
श्रद्धांजलि
विजेन्द्र जी के साथ खट्टे मीठे अनुभव रहे
वीरेन्द्र जैन
मैं पहले हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करता था जो एक छोटा बैंक था और
उसमें अधिकारियों के स्थानांतरण पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। साफ साफ कह्ने
के कारण मेरे पांच राज्यों में पन्द्रह स्थानांतरण हुये पर कभी कोई विभागीय दण्ड
नहीं मिला। इन्हीं स्थानांतर्णों में से ही एक भरतपुर [राजस्थान] भी था। और वह
वर्ष थे 1977 से 1979 के बीच।
उन दिनों मैं वामपंथियों का इकलौता दैनिक अखबार ‘जनयुग’ मंगाता था जिसकी कुछ
ही प्रतियां आती थीं। याद नहीं किसके साथ वे अचानक मेरे निवास पर पधारे और घर में जनयुग
को देख कर बहुत खुश हुये। उस दौरान मैं अकेला ही रहता था और कम्युनिष्टों की तरह
बेतरतीब सा रहन सहन था। मकान मालिक की कृपा से निवास जरूर नया और आधुनिक सा था जिस
में मेरा फोल्डिंग फर्नीचर और चारपाई उस बेतरतीबी को और बढा देते थे। फिर उनसे
मुलाकातों का दौर जारी रहा।
उसी दौरान आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में कमलेश्वर को बुलाने के
नाम पर फूट पड़ चुकी थी और नये संगठन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी जो बाद में 1982
में जनवादी लेखक संघ के रूप में प्रकट हुयी। भरतपुर में भी अलग संगठन का समर्थन
करने वाले अनेक साथी थे जिनमें मेरे निकट कामरेड रामबाबू शुक्ल, अशोक सक्सेना, आदि
थे। रामबाबू जी जिन्हें हम लोग मास्साब कहते थे, ने ही वहीं मुझे अनौपचारिक मार्क्सवाद
का पाठ पढाया था और सव्यसाची जी से मिलवाया था। इन लोगों की विजेन्द्र जी से तीखी
तकरार चलती थी। इनके बीच में मैं सिकुड़ने की कोशिश करता था। इसी दौरान कुछ घटनाएं
भी हुयीं। विजेन्द्र जी की कविता धर्मयुग में छपने वाली थी जिसकी सूचना उसके पिछले
अंक में ही आ जाती थी। जाने क्या संयोग हुआ कि उक्त अंक का बंडल ही भरतपुर नहीं
पहुंच सका और वह अंक रास्ते या स्टेशन से ही गायब हो गया। किसी कवि का दर्द आप समझ
सकते हैं। जिस कालेज में विजेन्द्र जी थी उसी में प्रसिद्ध कहानी लेखक पानू खोलिया
भी रहते थे जो प्रगतिशीलों के विरोधी थे, शैलेश मटियानी के मित्र थे। अशोक सक्सेना
उनके निर्देशन में शोध कर रहे थे, जो पूरा नहीं हो सका। पानू खोलिया जी ने कम लिखा
लेकिन वे स्तरीय कथाकार थे। इसी दौरान विजेन्द्र जी किसी कार्यक्रम में भोपाल आये
थे और लौट कर बहुत मुदित मन से बताया था कि मैं तुम्हारे मध्य प्रदेश गया था और
भोपाल में एक बेहद प्रतिभाशाली युवा से मिल कर आया हूं। वह बहुत अच्छी कविताएं
लिखता है। वह युवा राजेश जोशी थे। मैंने तब तक उनका नाम नहीं सुना था और ना ही
कविताओं से परिचय हुआ था।
धर्मयुग में मेरी व्यंग्य कविताएं तो छपती रहती थीं किंतु उन्हीं दिनों मेरा
पहला व्यंग्य लेख छपा और उसका कुछ हिस्सा ऐसा लगता था जैसे विजेन्द्र जी पर
केन्द्रित हो। जब 1984 में मेरी पहली किताब छपने को जाने लगी तो सलाह के लिए उसे
मित्र प्रमोद पांडेय [कमला प्रसाद जी के भाई] छतरपुर, को दिखाया तो उन्होंने बाकी
के व्यंग्यों की तारीफ करते हुए, उसे कमजोर बताया तो मैंने उसे हटा दिया।
1978 के अंत में मेरा भरतपुर छूट गया और उसके साहित्यिक रिश्ते भी छूट गये।
कभी कभी जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलनों में साथी मिलते तो पुरानी यादों
पर चर्चा कर लेते। 2001 मैं स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेने के बाद मैंने एक पत्रिका
प्रदर्शनी लगायी तो उसके लिये जब सूची खोजी तो उसमें ‘कृति’ सम्पादक विजेन्द्र का
नाम आया। मैंने तुरंत अपनी याद दिलाते हुए कृति के कुछ पुराने अंक भेजने के लिए
लिखा। उत्तर में उन्होंने बमुश्किल याद करते हुए लिखा कि पहले पत्रिका का मूल्य
भेजें जो शायद कुल 20/- रुपये रहा होगा। यह अपरिचय व दूरी मुझे नहीं भायी और मैंने
उत्तर नहीं दिया। दो एक वर्ष पहले वे फेसबुक पर जुड़े और मार्क्सवादी सौन्दर्य
शास्त्र पर कुछ सारगर्भित टिप्पणियां भेजीं, जिन्हें मैंने शेयर किया। फिर वे आनी
बन्द हो गयीं।
आज किन्हीं रेवती रमन ने उनके निधन का समाचार देने की उतावली में मेरे निधन की
सूचना जारी कर दी किंतु फोटो उन्हीं का लगाया हुआ था इसलिए औपचारिक रूप से मरने से
बच गया।
उनकी स्मृतियों को
प्रणाम करते हुए, विनम्र श्रद्धांजलि।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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