सोमवार, जुलाई 26, 2010

मुकुट बिहारी सरोज [जन्मदिन के अवसर पर विशेष]

मुकुट बिहारी सरोज
जिनके जीवन के डर से मौत मरती रही वीरेन्द्र जैन
26 जुलाई 1926 को जन्मे मुकुट बिहारी सरोज ने स्वतंत्रता के बाद ही गीत रचना के क्षेत्र में पदार्पण किया और शीघ्र ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गये। सन 1959 में प्रकाशित उनके प्रथम काव्य संग्रह में उनके परिचय में लिखा हुआ है कि इकतीस वर्षीय सरोज दस बारह वर्षों से लिख रहे हैं और साथ के लोगों की लिखनेवाली पंक्ति में काफी दूर से दिखते हैं। यह वह दौर था जब नई कविता की घुसपैठ के बाबजूद भी गीत ही जनमानस की काव्य रुचि में प्रमुख स्थान बनाये हुये था। जगह जगह होने वाले कवि सम्मेलन ही रचना के परीक्षण व उसके खरी खोटी होने के निर्णय स्थल होते थे। यद्यपि इस परीक्षा में कुछ अंक मधुर गायन वाले ग्रेस में ले जाते थे पर रचना को उसके भावों, विचारों, शब्दों और सम्प्रेषणीयता की कसौटी पर कसा जाकर ही किसी कवि को परखा जाता था तथा दुबारा मिलने वाला आमंत्रण उसका प्रमाण पत्र होता था। सरोज जी को नीरज बलबीर सिंह रंग, शिशुपाल सिंह शिशु, गोपाल सिंह नेपाली, रमानाथ अवस्थी, आदि के साथ जनता की कसौटी पर खरा होने का प्रमाण पत्र मिला और वे हिन्दी कविसम्मेलनों में अनिवार्य हो गये थे।
सरोजजी के गीतों में अन्य श्रंगारिक कवियों के तरह लिजलिजा लुजलुजापन कभी नहीं रहा। उनके गीत सदैव ही खरे सिक्कों की तरह खनकदार रहे। वे आकार में भले ही छोटे रहे हों किंतु वे ट्यूबवैल की तरह गहराई में भेद कर जीवन जल से सम्पर्क करते रहे हैं। उन्हीं की पंक्तियों में कहा जाये तो-
प्रश्न बहुत लगते हैं, लेकिन थोड़े हैं
मैंने खूब हिसाब लगा कर जोड़े हैं
उत्तर तो कब के दे देता, शब्द मगर
अधरों के घर आना जाना छोड़े हैं
कल जब ये मौन भंग होगा
कोई गम तब न तंग होगा
इसलिए कि तन मरता है
मरती उसकी आवाज़ नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
सरोजजी अपनी कहन में, अन्दाज़ में, अपने समकालीनों से भिन्न रहे हैं इसलिए अलग से पहचाने जाते रहे हैं। अपने संग्रह की भूमिका में उन्होंने खुद ही व्यंजना में कहा है-
“ मेरे इस संग्रह की भाषा आपको अखरेगी या अज़ीब लगेगी या आपके मन में खुब जायेगी। इसे आप शायद भाषा वैचित्र्य की संज्ञा दें। बड़ी आसानी से इसे शैली की पृथकता भी माना जा सकता है। ....... बोल चाल में रात दिन जो आपने कहा सुना है उसी को जब आप पढेंगे तब मेरा विचार है कि आपको उसमें कुछ अपनेपन का अनुभव होना चाहिए।“

1962 में चीन के साथ सीमा विवाद में षड़यंत्र पूर्वक अपने देश को उलझा दिया गया था व तभी से अमरीका का हस्तक्षेप बढ गया था। अमरीकी फिल्मों के दुष्प्रभाव के साथ साथ साहित्य में भी वे बीमारियाँ प्रविष्ट हो गयी थीं, जिनका संघर्षरत आम आदमी से दूर का भी लेना देना नहीं था। 1965 में पाकिस्तान और फिर भुखमरी से लड़कर देश बुरी तरह कमजोर हो गया था व आम आदमी का तथाकथित आज़ादी से मोहभंग हो चुका था। इस दौर में सरोज जी के गीतों की धार दिन प्रति दिन पैनी होती गयी। उनके गीतों में व्यंग्य तेज होता गया।
क्योंजी, ये क्या बात हुयी
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी
त्यों त्यों रात हुयी
क्यों जी, ये क्या बात हुयी
उन्होंने कवि सम्मेलनों के मंचों पर ही कवियों की कतार में बैठे नेताओं की ओर इशारा करते हुये सीधे सीधे व्यंग्य का पात्र बनाते हुये कहा-
ये जो कहें प्रमाण, करें वो ही प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा तब तब नये विधान बने
कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की
ये खुद जनम पत्रियाँ लिखते हैं सरकारों की
होगे तुम सामान्य भले, ये पैदायशी प्रधान हैं
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं
1969 के बाद दिन प्रतिदिन दुहरे होते जा रहे सत्ता के चरित्र को रेखांकित करते हुए उन्होंने “नाटकों के गीत” में साफ साफ लिखा है-
नामकरण कुछ और खेल का खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गयी दिखाई लक्ष्मी की पूजा
अकुशल असम्बद्ध निर्देशन, दृष्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है अब क्या होगा जी के
या
है मुझको मालूम हवाएं ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएं ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण गलत होते जाते हैं
शायद युग की नई ऋचाएं ठीक नहीं हैं
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वो किताब भी क्या कोई अच्छी किताब है?
मेरी कुछ आदत खराब है

कवि सम्मेलनों के पतनशील दौर में जब सारे मंच को चुटलेबाज़ों और भड़ैती करने वालों ने हथिया लिया हो तथा सारे गम्भीर कवि मंच त्याग कर भाग गये हों, तब अपने कथ्य तेवर और विचारों से बिना कोई समझौता किये सरोजजी मंचों के माध्यम से जनता के साथ सीधा सम्पर्क बनाये रहे। वे हिन्दी के पहले व्यंग्य गीतकार हैं। दुष्यंत कुमार ने बाद में यही काम गज़लों के माध्यम से किया और लोकप्रियता हासिल की।

सरोजजी सहज व्यवहार भी अपनी व्यंजनापूर्ण भाषा और व्यंगोक्तियों के माध्यम से हर उम्र के लोगों को अपना मित्र बना लेने की क्षमता रखते थे। उनके सम्पर्क में आने वाले ऐसे सैकड़ों लोगों से मैं स्वयं मिला हूं ज्न्होंने उनकी व्यंगोक्तियों के कारण अपनी कमजोरियों को पहचाना है और उससे मुक्ति पायी है।
भीड़ भाड़ में चलना क्या
कुछ हटके हटके चलो
वो भी क्या प्रस्थान
कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत बेहद जिसकी,
कोई वजह न हो
एक दूसरे को धकेलते,
चले भीड़ में से
बेहतर था वे लोग
निकलते नहीं नीड़ में से
दूर चलो तो चलो
भले ही भटके भटके चलो
भीड़ भाड़ में चलना क्या कुछ हटके हटके चलो
इन पंक्तियों के रचियता मुकुट बिहारी सरोज सचमुच ही अपने रंग के अलग और अनूठे गीतकार हैं। उनके सारे गीत आम बोल चाल की भाषा में लिखे गये हैं। सामान्यजन के दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले मुहावरों की भाषा के शब्दों से वे वे ऐसा चित्र खींचते हैं जिसे संस्कृति के शिखर पर सजाया जा सकता है व जीवन के संघर्ष को गरिमा दी जा सकती है। जिस तरह विष्णु चिंचालकर कचरे से कालाकृतियां तैयार कर हमारी संस्कृति के शिखर पर पहुँचते हैं उसी तरह सरोजजी भी सामान्यजन के शब्दों को ऐसे गूंथते हैं कि कला जगत के शीर्ष पुरुषों को उसके आगे माथा झुकाना ही पड़ता है।
अब्बल मंच बनाया ऊंचा जनता नीची है
तिस पर वर्ग वर्ग में अंतर रेखा खींची है
बोलचाल की भाषा के ‘अब्बल’ का यह सटीक और मेरी जानकरी के अनुसार गीतों में इकलौता प्रयोग है।
कैसे कैसे लोग रह गये !
बनें अगर, तो पथ के रोड़ा
करके कोई एब न छोड़ा
दीख न जाये असली सूरत
इसीलिए हर दर्पन तोड़ा
फूलों को घायल कर डाला
काँटों की हर बात सह गये
कैसे कैसे लोग रह गये
उनका वाक्य विन्यास उनका बिल्कुल अपना है। न भूतो न भविष्यति वाला मामला। प्रेम गीतों में शामिल किये जाने वाले उनके इस गीत की बानगी देखिए-
तुमको क्या मालूम, कि कितना समझाया है मन
फिर भी बार बार करता है भूल, क्या करूं
कितनी बार कहा खुलकर मत बोल बाबरे
कानों के कच्चे हैं लोग ज़माने भर के
और कहीं भूले भटके सच बोल दिया तो
गली गली मारेंगे लोग निशाने कर के
लेकिन, ज़िद्दी मन को कोई क्या समझाये
खुद मुझ से ही रहता है प्रतिकूल क्या करूं
वैज्ञानिक चेतना के पक्षधर, अन्ध्विश्वासों और रूढियों के विरोधी सरोजजी की रचनाएं, आशा, उत्कर्ष आस्था, और भविष्य की ओर संकेत करती हैं। यही कारण है कि केंसर जैसा भयानक रोग भी इस जीवट के आगे हार मान गया, जिसकी पंक्तियाँ हैं-
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर
जिसने चाहा घर बुलवाये चाँद सितारे
कहने वाले तो कहते हैं, बात यहाँ तक
मौत मर गयी थी जीवन के डर के मारे
कोई गम्भीर स्वर में कहता कि आपको कैंसर हो गया है तो वे उसे लगभग डाँटते हुये से कहते कि यह कहो कि कैंसर को सरोज हो गया है। वे कैंसर से नहीं मरे अपितु ‘उसने कहा था’ के सरदार लहना सिंह की तरह मैदान के घावों से मरे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

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