रविवार, जुलाई 09, 2017

फिल्म समीक्षा –माम मैम से माम बनने की यात्रा

फिल्म समीक्षा –माम
मैम से माम बनने की यात्रा  
वीरेन्द्र जैन

फिल्मों के प्रचार के लिए हिन्दी अखबारों और पत्रिकाओं का बहुत सा हिस्सा फिल्मी दुनिया की गपशप से भरा हुआ होता है जिसमें तन मन से युवा पाठकों को सतही सम्वेदनाओं में लपेट कर तरह तरह की झूठी सच्ची सूचनाओं के सहारे जोड़ा जाता है। माम फिल्म को किसी समय की चर्चित अभिनेत्री श्रीदेवी की सौवीं फिल्म और पन्द्रह साल बाद वापिसी आदि से जोड़ कर प्रचारित किया गया था। वस्तुतः यह फिल्म एक ममतामयी सौतेली माँ के विश्वास अर्जन की मूल कथा है जिसमें वह लम्बे समय तक पूरा प्रयास करके भी अपनी अपनी सौतेली बेटी का प्यार नहीं जीत पा रही थी। इसी ग्रंथि ने उसे अपनी इस बेटी के साथ दुष्कर्म कर उसे जीवन भर की मानसिक यातना देने वालों से बदला लेने को प्रेरित किया। जब वह काँपते हाथों से अपराधी पर गोली चलाने न चलाने के द्वन्द में थी उसी समय स्कूल टीचर के रूप में काम करने वाली माँ को हमेशा मैम के नाम से पुकारने वाली बेटी का उसको माम कह कर सम्बोधित करना उसे माँ के गौरव से भर देता है।
इस फिल्म को खूबसूरती के लिए भी याद किया जा सकता है। खूबसूरत शहर में खूबसूरत स्कूल है, खूबसूरत सड़कें हैं, खूबसूरत अस्पताल हैं, क्लब हैं, इमारतें हैं, पेंटिंग प्रदर्शनियां हैं, इसमें एक खूबसूरत घर है जिसमें खूबसूरत सम्पन्न परिवार है। परिवार में सभी एक दूसरे को प्यार करते हैं, भले ही सौतेली बेटी अपनी दिवंगत माँ की याद में दूसरी माँ को यथोचित स्थान नहीं दे पाती और दूसरी माँ अपनी खुद की बेटी के बराबर प्यार प्रकट करने के लिए उस पर माँ के जरूरी अनुशासन को शिथिल करती है। कथानक इसी द्वन्द से पैदा होता है। पिता अपने काम से अमेरिका गया होता है और उसी समय वेलंटाइन डे की लेट नाइट पार्टी में गयी हुयी बेटी के साथ धनाड्यों के बिगड़ैल बेटे उसका अपहरण करके बलात्कार कर नाले में फेंक देते हैं। बहुत घायल होकर भी वह किसी तरह मौत के मुँह में जाने से बच जाती है, पर एक निर्दोष के साथ अन्याय न होने देने के लिए हजार दोषियों को छोड़ देने वाली न्याय व्यवस्था उसे न्याय नहीं दे पाती, जिससे किसी भी तरह बदला लेने की भावना पैदा होती है।
 इस फिल्म के दूसरे आयाम में सामाजिक चुनौतियों के विषय सामने आते हैं जिसमें पैसे वालों के किशोर बच्चे रोक के बाद भी स्कूल में मोबाइल ले जाते हैं और उसमें वह सब कुछ देखते दिखाते हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार अपराधी भी न्यायिक कमजोरियों के कारण छूट कर स्वतंत्र घूम कर उपहास सा करते हैं तो एक शांतिप्रिय नागरिक भी कानून की जगह गैर कानूनी तरीकों को अपनाने को विवश हो जाता है। इस फिल्म में शायद पहली बार थर्ड ज़ेंडर की शिक्षा और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के सवाल को उठाया गया है, जिसमें वे शिक्षित होकर अपना व्यवसाय खुद खोलते हैं, भले ही फिल्म में उनका उपयोग गुरु दक्षिणा के रूप में बदले की कार्यवाही में सहयोगी की तरह किया गया है।
इस फिल्म में कानून से निराश होकर बदला लेने के लिए नये तरीके सोचे गये हैं जिनमें सूचना एकत्रित करने वाले प्राइवेट जासूस की भूमिका भी रची गयी है, जिसका प्रचलन अभी समाज में शादी व्याह के सम्बन्ध में लड़के लड़कियों से सम्बन्धित जानकारी जुटाने तक ही सीमित है। इस प्रतिभा का उपयोग अपराधियों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए भी हो सकता है। जेल में पैसे वाले परिवारों के कैदियों, और किशोरों के साथ दूसरे बन्दियों द्वारा होने वाले दुर्व्यवहार की भी थोड़ी झलक भी है। एक ओर जहाँ बलात्कार के दोषियों को कानूनी कमजोरियों के कारण सजा नहीं मिल पाती वहीं दूसरी ओर इनसे बदला लेने के लिए नायिका गलत सबूत देकर उसे उस बात के लिए सजा दिलवा देती है जो अपराध उसने किया ही नहीं था। इसी न्याय व्यवस्था से असंतुष्ट पुलिस अधिकारी दुर्दांत अपराधी पर गोली चलाने के लिए खुद ही नायिका को सहयोग करता है।
न्यायिक कमजोरी के अलावा सबकुछ सुन्दर बनाने के लिए कहानी के अंत को बम्बइया बना दिया गया जिसमें ठीक समय पर आकर पुलिस नायक नायिका को बचा लेती है और अपराधी मारा जाता है। अपराधी हिमालय की खूबसूरत वादियों में कुछ ही घंटों में पहुँच जाता है, और ईमानदार पुलिस भी ठीक समय पर पहुँच जाती है। चौकीदार के घर को छोड़ कर फिल्म में स्वच्छता इतनी अधिक है जैसे कि देश में स्वच्छता अभियान सफल हो गया हो। ऐसी प्रस्तुति फिल्म को एक मनोरंजक व्यावसायिक फिल्म में बदल देती है।
फिल्म में सबका अभिनय सधा हुआ है, एक प्रौढ मां के रूप में श्रीदेवी, जासूस के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दीकी, पुलिस अधिकारी के रूप में अक्षय खन्ना व पिता की भूमिका में अदनान सिद्दीकीकी मुख्य भूमिकाएं हैं जिसे निभाने में वे पूरी तरह सफल हुये हैं। पहली फिल्म का सफल निर्देशन करके चित्रकार रवि उदयावर खरे ने बहुत उम्मीदें जगायी हैं। लगातार बाँधे रखने वाली आम व्यावसायिक फिल्मों से तो यह बहुत अच्छी फिल्म है किंतु सार्थक सिनेमा से दूर है।  
वीरेन्द्र जैन
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