क्या भाजपा ने नैतिक पराजय स्वीकार कर ली है
वीरेन्द्र जैन
2019 के आमचुनाव चल रहे हैं और परिणाम तो
दूर अभी बाकी के चरणों के चुनाव बाकी हैं तब जय पराजय की बात वैसे नहीं की जा
सकती, जैसी कि परिणाम आने के बाद की जाती है। किंतु 1971 के आम चुनावों की हार के
बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘ हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर हिम्मत नहीं
हारे ‘। वही हिम्मत न हारने वाले वाजपेयी जी बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। दर
असल जय पराजय को नापने के कई आयाम होते हैं। मैं कभी युवा उत्साह में मीडिया [उस
समय प्रिंट मीडिया ही था] में चलती बहसों के आधार पर चुनावी निष्कर्ष निकाला करता
था, जबकि चुनावों की दिशा तय करने के दूसरे दूसरे कारक होते हैं। एक बार मैं एक
मित्र की दुकान पर बैठा हुआ चुनावी चर्चा कर रहा था कि उसी समय उसके यहाँ एक
ग्रामीण ग्राहक आ गया। मैंने उससे पूछा-
‘वोट देते हो?’
‘हव [हाँ]’ उसका उत्तर था
“ इस बार किसको दोगे? “ मैंने पूछा
“ जौन खों मराझ आप कव [ महाराज जिसको आप
कहें उसको दे दें] ‘ उसने उत्तर दिया
“ नहीं, मैं किसी का प्रचार नहीं कर रहा
हूं, मैं तो ये जानना चाहता हूं कि वोट क्या सोच कर, माने किस आधार पर दोगे? ”
उसका उत्तर सुन कर मेरी आँखें खुल गयीं,
जब उसने कहा कि हमारे गाँव में तो दो ही पार्टियां हैं एक फूल वाले [भाजपा] और एक पंजा
वाले [कांग्रेस] , हमारे घर में कुल चार वोट हैं, सो हम तो दो वोट फूल वालों को दे
देते हैं और दो पंजा को, किसी से बुराई नहीं लेते।
मेरा मित्र मुझ से बोला कि तरह तरह से
विश्लेषण कर के जो एक वोट तुम दोगे उसे तो इनके ‘मत-दान’ के वोट बराबर कर देंगे।
कमोवेश आज भी वही स्थिति है। वोट देने में
चुनावों के एक दिन पहले आने वाले घोषणापत्र, वादे, या झूठे सच्चे प्रचार के अलावा
बड़ी संख्या में वोट जाति, रिश्तेदारियां, धर्म, गाँव के दबंग, पुलिस और बैंकों के
सम्पर्की, आदि के कारण असर डालते हैं, कहीं जयप्रदा, कहीं फसल काटती हेमा मालिनी,
या अचानक उभरी प्रियंका गाँधी भी उस वोट का दान करा देती हैं जो वोटर की निगाह में
निरर्थक है, और अगर उससे हजार दो हजार रुपये ही मिल जाते हैं तो वह सबसे सफल सौदा
होता है। इसलिए कौन जीतेगा या कौन हारेगा वह विभिन्न कारकों से तय होता है। यही
कारण है कि सरकार बनाने वाले प्रशांत कुमार जैसे चुनाव प्रबन्धकों की सहायता लेते
हैं, या वैसा ही प्रबन्धन करने वाले अमित शाह अपने धूमिल अतीत के बाद भी भाजपा के
अध्यक्ष मनोनीत हो जाते हैं और पार्टी में कहीं से विरोध की महीन आवाज भी नहीं उठ
पाती।
2019 का चुनाव कोई भी जीते किंतु यह तय है
कि भाजपा नैतिक रूप से चुनाव हार चुकी है। सच तो यह है कि मोदी-शाह के दौर में
भाजपा का केवल नाम भर शेष है, पर असल में यह मोदी जनता पार्टी में बदल चुकी है, जो
मोदी के अन्धभक्तों या अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित लोगों का समूह है। इसमें अगर
कोई अलग से विचार देने का साहस भी करता है तो भयभीत समूह उससे किनारा कर लेता है,
बिका हुआ मीडिया उसके सवालों को स्थान नहीं देता है, और सत्ता में बैठे लोग उसके
सवालों का कोई उत्तर नहीं देते। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, कीर्ति आज़ाद, राम
जेठमलानी, शत्रुघ्न सिन्हा, सुब्रम्यम स्वामी आदि को अपने सवालों के जबाब नहीं
मिले तो अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, गोबिन्दाचार्य, संजय जोशी, आदि ने
दूरदृष्टि से मुँह ही नहीं खोला। सुषमा स्वराज ने किसी तरह अपना कार्यकाल पूरा
किया तो उमा भारती ने सिफारिश लगवा कर बीच कार्यकाल में मंत्रिपरिषद से हटाये जाने
से खुद को बचाया। मंत्रिपरिषद के लोग केवल दो लोगों द्वारा लिये गये फैसलों का
पालन करने के लिए थे और वहां लोकतंत्र की जगह घुटन थी। सांसदों को सांसद निधि तक
व्यय करने की स्वतंत्रता नहीं थी। जावड़ेकर कैसे कपड़े पहिनेंगे इसका निर्देश भी
पीएम आफिस से मिलता था इसलिए उन्होंने जींस पहिनना छोड़ दिया था। दूसरी ओर सत्ता
में बने रहने का सुख था, इसलिए सब चुप थे।
पिछले दिनों एक समाचारपत्र को साक्षात्कार
देते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह से प्रज्ञा ठाकुर को टिकिट देने के बारे में पूछा
गया तो उनका उत्तर था कि जब सही उम्मीदवार नहीं मिलता तो ऐसे ही लोगों को टिकिट
देना पड़ता है। अर्थात भोपाल म.प्र, समेत पूरे देश में दिग्विजय आदि जैसे नेताओं के
सामने भाजपा के पास उचित उम्मीदवार नहीं थे। पूरे चुनाव में उन्हें अपनी
उपलब्धियों की जगह अपने विरोधियों के ऎतिहासिक दोष गिनाने पड़े। जिस एयर स्ट्राइक
के बारे में रहस्यमय बयान देकर वे नासमझों को बहला रहे थे उसके बारे में बीच चुनाव
में ही सुषमा स्वराज ने कह दिया कि एयर स्ट्राइक में कोई भी पाकिस्तानी नागरिक
नहीं मारा गया। इस बयान से पढे लिखे लोगों के बीच उनके गुब्बारे की हवा निकल गयी,
पर नासमझ लोग एयर स्ट्राइक से अपने पन्द्रह लाख वसूले हुये मानने लगे। आतंकियों,
अलगाववादियों, द्वारा किये गये हमलों की प्रतिक्रिया में जो हमलों की बात फैलायी गयी
वह अतिरंजित मानी गयी तथा सच्चाई जानने के प्रयास को देशद्रोह करार दिया गया।
दलबदल कर आयी जयप्रदा को टिकिट देने या सनी देवल, हंस राज हंस, मनोज तिवारी के
साथी दो भोजपुरी गायकों, नर्हुआ और किशन, क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गम्भीर, आदि के साथ
स्मृति ईरानी, किरण खेर, बाबुल सुप्रियो, आदि को टिकिट देकर लोकप्रियता को भुनाने
की कोशिश की गयी। साक्षी महाराज को टिकिट देना पड़ा।
प्रज्ञा ठाकुर को टिकिट देने के बारे में
न तो मध्यप्रदेश के किसी नेता से पूछा गया न ही भोपाल के किसी नेता से सलाह ली
गयी। किंतु केवल एक पूर्व विधायक डागा जिन्हें विधानसभा के टिकिट से वंचित रखा गया
था, ने इस विषय पर घुमा फिरा कर पार्टी छोड़ने की बात की। यद्यपि सारे भाजपा नेता
चेहरा दिखाने के लिए समर्थन कर रहे हैं पर इस फैसले से खुश कोई नहीं है। देश भर के
मीडिया ने इस फैसले की भर्त्सना की है या चतुर चुप्पी साध रखी है। बेरोजगारी, किसान समस्या, नोटबन्दी जैसी फेल
योजना, जीडीपी की दर में गिरावट, आरबीआई समेत सभी आर्थिक संगठनों के सलाहकारों
द्वारा पदत्यागना. न्यायाधीशों द्वारा चेतावनी. सीबीआई के पद पर हुये तमाशे, आदि
तो सब किताबी बातें हैं, पर वे भीतर भीतर जीवन पर गहरे असर भी डालते हैं। इन्हें
छद्म राष्ट्रवाद से ढका जा रहा है। गौवंश के नाम पर हमलों ने न केवल मुसलमानों
अपितु दलितों के मन पर बुरा असर डाला है। छात्रों और युवाओं के आन्दोलनों से बहुत
सारी सच्चाइयां सामने आयी हैं। बुद्धिजीवियों की हत्याएं और प्रतिक्रिया में सामूहिक
रूप से सम्मान वापिसी ने भी इनके मुख पर कलिख पोती है।
कुल मिला कर कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है
जिसके लिए प्रशंसा के स्वर उठे हों, या इनके 31% मतों में वृद्धि के कारक बन सकें।
वे मुँह के जबर जरूर हैं । चुनाव परिणाम जो भी हो किंतु नैतिक रूप से मोदी पराजित
हैं और इसीलिए कभी प्रैस कांफ्रेंस न बुलाने वाले वे, फिल्मी कलाकार को बुला कर
पहले से तैयार स्क्रिप्ट पर खुद ही अपना गुणगान कर रहे हैं। वे नैतिक रूप से
पराजित हैं वोटों की गिनती के परिणाम प्रतीक्षित हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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