गुरुवार, जून 27, 2024

पुस्तक समीक्षा एक आलोचक की गीत कविताएं

 

 पुस्तक समीक्षा

एक आलोचक की गीत कविताएं


[ प्रोफेसर डा. कृष्ण बिहारी लाल पांडेय का गीत संग्रह ‘ लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं ‘ ]

वीरेन्द्र जैन

सुप्रसिद्ध प्रोफेसर डा. कृष्ण बिहारी लाल पाण्डेय, जिन्हें अधिकतर लोग के.बी.एल. पाण्डेय के नाम से जानते हैं, का गीत संग्रह ‘ लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं ‘ लोकमित्र प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। बहत्तर पृष्ठ के इस संग्रह में 89 वर्षीय प्रोफेसर के कुल 36 गीत संकलित हैं। ज्ञात हुआ है कि यह पहला संग्रह भी उन्होंने प्रसिद्ध कथाकार श्री राज नारायण बोहरे के विशेष आग्रह पर दिया है।

प्रोफेसर पाण्डेय लम्बे समय तक कालेज में हिन्दी के उन प्रोफेसर्स में रहे हैं जो हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी एम ए और पी एचडी भर नहीं थे अपितु समकालीन साहित्य की गतिविधियों में निरंतर सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं और विभिन्न सम्मेलनों, सेमिनारों में देश के प्रतिष्ठित प्राध्यपकों, साहित्यकारों, सम्पादकों, आलोचकों के साथ निरंतर विमर्श करते रहे हैं। उनकी यह भागीदारी विभागीय औपचारिकता भर नहीं होती रही अपितु वे अपने विषय की विभिन्न विधाओं में चल रही प्रवृत्तियों पर सतर्क निगाह रखने से जनित समालोचना के साथ मौलिक उल्लेखनीय टिप्पणी के साथ होती रही है। सुप्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों पर भी उन्होंने विशेष समीक्षात्मक टिप्पणियां की हैं। इतना ही नहीं उन्होंने यह पुस्तक भी उनके कालजयी उपन्यासों की समाज से जूझती हुयी चर्चित नायिकाओं का स्मरण करते हुए उन्हें ही समर्पित की है। बुन्देलखण्ड में जन्मे और पले बड़े तथा पूरा जीवन बुन्देलखण्ड में ही गुजार देने वाले डा. पाण्डेय इस क्षेत्र की मिट्टी की रग रग से परिचित हैं। उनके निर्देशन में ईसुरी समेत अनेक बुन्देली रचनाकारों पर शोध हुआ है। बुन्देलखण्ड के साहित्य, संस्कृति, पुरातत्व, इतिहास आदि पर जब भी बाहर से कोई अध्येता आता है तो वह पाण्डेय जी से सलाह लिए बिना नहीं जाता। यह भूमिका मैंने इसलिए दी है कि ताकि यह समझा जा सके कि कोई आलोचक जब स्वयं रचना करता है तो वह अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के साथ यह भी दृष्टि में रखता है कि उसके पूर्व के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में क्या क्या त्रुटियां की थीं, और उनके किसी भी तरह के दुहराव से भी बचना है। इसलिए इसे एक निर्दोष [बे एब]  गीत संग्रह माना जा सकता है।

कह सकते हैं कि डा. पाण्डेय का यह संग्रह एक ऐसे सतर्क कवि की रचनाओं का संग्रह है जिसने केवल संख्या बढाने के लिए रचनाएं नहीं कीं अपितु अपने अनुभवों, अध्ययन, और समझ से अपनी संवेदनाओं को शब्दों से संवारा है। ये रचनाएं नवगीत की श्रेणी में आती हैं भले ही संकलन में इसे गीत संग्रह कहा गया है, क्योंकि अपनी नवता के साथ नवगीत भी गीत ही है। दिवंगत विनोद निगम ने नवगीत की बहुत सरल सी परिभाषा दी थी कि गीत में निजी दुख को गाया जाता है और नवगीत में सामाजिक, सार्वभौमिक पीड़ा को व्यक्त किया जाता है। नचिकेता जी ‘नवगीत’ की जगह ‘समकालीन गीत’ शब्द के प्रयोग पर जोर देते थे। इस संग्रह के गीत भी इन्हीं परिभाषाओं के अंतर्गत आने वाले गीत हैं। ये गीत अपने समय की पहचान कराते हुए उन धोखों और चालाकियों की ओर इंगित करते हैं जो स्वतंत्रता की घोषित तारीख के बाद निर्मित होते देश में स्थापित होते लोकतंत्र को लागू करते समय पैदा हुयी हैं। इसलिए इसमें तल्खी या व्यंग्य आना भी स्वाभाविक है। जो धोखे मासूम जनता को लगातार दिये जाते रहे हैं, उन्हें मुकुट बिहारी सरोज अपने ‘असफल नाटकों का गीत ‘ में इन शब्दों में पहचानते रहे हैं-

नामकरण कुछ और खेल का, खेल रहे दूजा

प्रतिभा करती गई दिखायी, लक्ष्मी की पूजा

इस संग्रह का शीर्षक गीत भी दूसरों के योगदान को चुरा कर अपने नाम कर लेने वालों पर करारा व्यंग्य है।

घाट पर बैठे हुए हैं जो सुरक्षित

लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं

आचमन तक के लिए उतरे नहीं जो

कह रहे वे खास वंशज हैं नदी के

सोचना भी अभी सीखा है जिन्होंने      

बन गये वे प्रवक्ता पूरी सदी के

या

पुरातत्व विवेचना में, व्यस्त हैं वे

उंगलियों से हटा कर दो इंच माटी

हो रहे ऐसे पुरस्कृत गर्व से वे

खोज ली जैसे उन्होंने सिन्धु घाटी

हर धर्म में दो सूत्र प्रमुखता से आते हैं, एक सत्य बोलो. और दूसरा चोरी मत करो। चोरी चाहे वस्तु की हो. श्रेय की हो, पद की हो या अन्य किसी भी वस्तु की वह चोरी ही होती है। मेरे पिता जिन काव्य पंक्तियों को गाहे बगाहे दुहराते थे उनमें दो पंक्तियां ये भी थीं –

जो पर पदार्थ के इच्छुक हैं  / वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं

नकल करके, पेपर आउट कराके, नम्बर बढवा के, नकली प्रमाणपत्रों के सहारे, सिफारिश से, नौकरी या अन्य पद, पुरस्कार या सम्मान पा जाने वाले लोग्, सुपात्रों का हक छीनने के बाद उन्हीं पर आँखें दिखाते रहे हैं। इस तरह के छद्म से पूरा तंत्र भरा हुआ है। कवि ने इसे जगह जगह अन्धकार के रूप में चित्रित किया है जो रोशनी के नाम पर परोसा जा रहा है। फज़ल ताबिश का शे’र है – रेशा रेशा उधेड़ कर देखो / रोशनी किस जगह से काली है। संग्रह की रचनाएं, इसी तरह रेशा रेशा उधेड़ कर देखने की कोशिश हैं। ये मुकुट बिहारी सरोज की परम्परा की रचनाएं हैं, जो अर्धसामंती समाज, भ्रम पैदा करने वाली व्यवस्था की राजनीति, प्रशासन और न्याय द्वारा निभाये जा रहे दोहरे चरित्र का खुलासा करती हैं।

अन्धकार के साथ जिन्होंने / सन्धि पत्र लिख दिये खुशी से / उन्हें सूर्य के संघर्षों का /

कोई क्या महत्व समझाये

बिजली के तारों पर बैठे जमे अंधेरे / चिड़ियों के, बेदखल छतों से हुये बसेरे / अंधकार की उम्र बढ गई इतनी ज्यादा / धुंधले धुंधले लगते हैं सब शुभ्र सवेरे

       किसी प्रोफेसर के गीत, शिक्षण, पुस्तकों और ज्ञान के आस पास से ही प्रतीक लेते हैं। देखें –

हम यहाँ पर किस तरह हैं / आपको अब क्या बताएं / जगह भरने को छपी हों / जिस तरह कुछ लघु कथाएं

सुबह लिये जो भी पुनीत व्रत / डूब गये सन्ध्या के रंग में / रह गयी अधूरी हर भूमिका / महाकाव्य लिखने के ढंग में

       भूल गये अभिनेता अपने संवाद / रह गये सुभाषित बस लेखक को याद

हर क्यारी में जहां लगी हैं / नागफनी की ही कक्षाएं / उस आश्रम में भला कमल के / कौन सही पर्याय बताये

दर्द काव्य का क्या जाने / ये चौड़े चौड़े रिक्त हाशिए / जैसा राजयोग तिनकों ने / वृक्षों के अधिकार पालिए

सच तो रफ कापी में ही रह गया बचा / उज्जवल प्रति तक आने में कागज़ ही बदल गया

जिन्दगी की पांडुलिपियों / को मिले कैसे प्रकाशन / जब पुरस्कृत हो रहे हैं / जुगनुओं के भजन कीर्तन

उद्घाटन भर करने आये समारोह में जो / सबने उनकी ही स्वागत में गौरव वचन कहे / और जिन्होंने पूरा रचना तंत्र बनाया था / धन्यवाद तक की सूची में वे इत्यादि रहे

सनसनी भरा हर दिन बीता / माया या मनोहर कहानी सा

है कथानक सभी का वही दुख भरा / ज़िन्दगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही

 

आम तौर पर पारम्परिक गीतों में कवि पुरानी सभ्यता संस्कृति को महान मानता हुआ जीवन के संकटों को आधुनिकता की देन मानता और बताता है, किंतु नवगीत में ऐसा नहीं होता है। इस संग्रह में कहीं पुराने गाँव का, हल बैल या पनघट का या देवस्थानों से जुड़ी अन्ध आस्थाओं का गुणगान नहीं मिलता है, अपितु अन्धआस्थाओं, उनके व्यावसायिक विदोहन पर व्यंग्य किया गया है-

धर्म के प्रति आदमी की रुचि बढेगी / अगरबत्ती और भी ज्यादा बिकेगी /पापियों का अंत होगा अब धरा से / सिर्फ एक पवित्रता जीवित रहेगी / आपका ही तना होगा हर जगह पंडाल / ऐसा ज्योतिषी जी कह रहे हैं ।

आरती के दीप ने ही जब जला दी है हथेली / ज्योति का हर पर्व अब बेकार सा लगने लगा है ।

इतनी दूर आ गये हम / उत्पादन के इतिहास में / भूल गये अंतर करना अब / भूख और उपवास में

सबके सिर पर धर्मग्रंथ हैं / सबके हाथों में गंगाजल / किस न्यायालय में अब कोई / झूठ सत्य का न्याय कराये

जिनके पात्र विदूषक भाषा पुरातत्व वाली / क्या निकलेगा उस बेहद कमजोर कहानी से

हमें पता है यहां कुशल कुछ लोगों की है / बाकी तो ईश्वर से नेक चाहते रहते /एक दूसरे का मन रखने को वैसे ही / सिर्फ औपचारिकता में वे ये बातें करते / क्या देखें पंचांग किसलिए समय विचारें /हमको जैसा सोमवार वैसा मंगल है / मगर अंत में यह मत लिखना शेष कुशल है।

       न्याय से भी उम्मीद घटती जा रही है –

बात अब किससे कहें बोलो / आप कहते हैं कि मन खोलो / खो चुके हैं शब्द अपना सच/ लग रहा है, बैठ कर रो लो । किसे सौंपें न्याय की अर्जी/ सब यहां पर बने बैठे चौधरी हैं । 

सच कहने वालों को यहाँ , गवाह न मिल पाये / लोग जीतते रहे मुकदमे गलत बयानी से

समाज में गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों पर भी कवि की निगाह है। शार्टकट संस्कृति, रेडीमेड फास्ट फूड, और आम जन के स्वास्थ की कीमत पर सुदर्शन वस्तुओं के व्यावसायिक उत्पादन भी कवि को अखरते हैं-    

डाल पर अब पक न पाते फल / हमारे पास कितना कम समय है/ कौन मौसम के भरोसे बैठता अब / चाहतों के लिए पूरी उम्र कम है / मंडियां सम्भावनाएं तौलती हैं / स्वाद के बाज़ार के अपने नियम हैं ।

  पिछले दिनों रहीम पर बोलते हुए प्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने बताया था कि रहीम ने अपनी कविता में भले ही मायथोलोजी से बहुत सारे प्रतीक लिये हैं किंतु उनकी कविता में ईश्वर के भरोसे सब होने या उसकी कृपाकांक्षा के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। इस संग्रह के नवगीत भी इसी गुण से सम्पन्न हैं। जगह जगह पाखंड और उसके सहारे पल रही समाज व्यवस्था और राजनीति पर उंगली उठाई गयी है। आधुनिक हो रहे समाज में भी सभी कुछ अच्छा नहीं अपितु उसमें भी विकृतिंया आती रहती हैं। सामाजिक सम्बन्धों में दुख दर्द भी आते रहते हैं। वे लिखते हैं कि

इतना अपनापन तुम में बढा / जो कुछ भी देखा अपना लिया / सिर्फ शपथ खानी थी वन्धुवर / तुमने तो हर विधान खा लिया ।

ओढ लिये हमने विदूषकी मुखौटे / अपनी ही दृष्टि में हुए हैं हम छोटे

इंकलाब के कंठ मुखर हैं / अब दरबारी बातों में / नाच रहे चेतक के वंशज / घुंघरू पहिन बरातों में

लग सका जो न हिलते हुए लक्ष्य पर / उस बहकते हुए बान सी ज़िन्दगी

डालियां जिसकी स्वयं ही आचरण करती वधिक का / भूल भी कितनी मधुर थी नीड़ उस तरु पर बनाना

लोरियां ही झँप गईं पर दर्द यह सोता नहीं है / मन नहीं पाषाण जो आघात पर रोता नहीं है

ज़िन्दगी में बस अभी तक / यही हमको मिल सका है /गलतियों का सफर पश्चाताप /पर आकर थका है

इन गीतों में सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति भी दिखती है –

चुप्पियों का अर्थ केवल डर नहीं है / यह किसी प्रतिरोध की आवाज भी है / मौन का आशय महज स्वीकृति नहीं है / वह असहमति का नया अन्दाज भी है

लोरियों से, क्रुद्ध पीड़ाएं नहीं सोतीं / व्रत कथाएं भूख के उत्तर नहीं होतीं

समाज का नेतृत्व करने वाले नेताओं और राजनीति से कवि की कविता सवाल पूछती है –

जिस सुबह के लिए सारी रात जागे हम / आपने वह लिखी अपनी जमींदारी में

       कौन सी जलवायु निर्मित आपने कर ली / आपकी फसलें पनपती हैं अकालों से  

मिट्ठुओ पहले कहो तुम चित्रकोटी / फिर खिलायेंगे तुम्हें हम दूध रोटी / और वह भी बन्द पिंजरे में/ क्या पता तुम बैठ जाओ दूसरी ही डाल पर / आइए बैठें जरा चर्चा करें चौपाल पर

शब्द अब एकार्थवाची हो चले हैं / खोजिए ये कहाँ जन्मे हैं, पले हैं / लिखी है प्रस्तावना ‘हम लोग भारत के’ / पर हमारे अलग सबके मामले हैं

गांव गांव का चरित्र युद्ध प्रिय / होता जा रहा राजधानी सा

ऐसी हवा चली तुलसी के बिरवे आज बबूल हो गये / आंगन आंगन जुड़ी संसदें, इतने अधिक उसूल हो गये / फूलों के बदले उगते अब कांटों भरे सवाल / न जाने कैसा फागुन आया

इतना बड़ा अपरिचय, हमसे नाम पूछती अपनी छाया

जाना क्या घुल गया कुएं में, सारा गांव लगे बौराया

छोड़ो हम भी क्या ले बैठे, दो कौड़ी की बातें छोटी / आखिर देश प्रेम भी है कुछ, जब देखो तब रोटी रोटी / करतल ध्वनि में आज़ादी का झंडा आप चढाते रहना / कभी कभी बस आते रहना

इतना था विस्तार धूप का रोज नहाया करते थे / पहला लोटा डाल आपकी जय ही गाया करते थे / जिसने हमसे धूप छीन ली, उसको ईडी सम्मन दें / चलो धूप को ज्ञापन दें

 बड़े बड़े प्रस्थान चले, पर थोड़ी दूर चले / चलते रहे विमर्श मगर निष्कर्ष नहीं निकले / या

जाइए जिस घाट हत्यारे वहीं पर / रक्त रंजित वस्त्र अपने धो रहे हैं / भूख से बेचैन इस वातावरण में रात्रि भोजों के तमाशे हो रहे हैं / मोक्ष के कुछ और दरवाजे खुले हैं / कार में, तन्दूर में या बेकरी में ।

अंततः कवि को कहना पड़ता है

अच्छा बोलो, अपना भी कोई जीवन है / या उंगली पर स्याही भर अपना विधान है / कुछ तो लगे कि हाँ यह है अधिकार हमारा / या सब कुछ कर कमलों का कृपादान है / इसीलिए कुछ प्रश्न उछालो, उत्तर मांगो, / आखिर यहां हमारा होना क्यों असफल है 

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023