श्रद्धांजलि / संस्मरण
सुशील गुरु
वीरेन्द्र जैन
जैन परिवार में जन्मे सुशील गुरु सेना से सेवा निवृत्त ऐसे सैनिक थे जो कवि भी थे। ऐसा संयोग कम ही देखने को मिलता है, किंतु वे स्वयं ही कविता नहीं करते थे अपितु अपने जैसे दूसरे कवियों को जोड़ कर गोष्ठियां करने, उनके साथ सहयोगी कविता संकलन प्रकाशित कराने में भी अग्रणी रहते थे। इसके लिए उन्होंने रंजन कलश नामक संस्था बनायी थी जिसकी ओर से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय स्तर पर नौ कवियों को रंजन कलश शिव सम्मान देते थे। आम तौर पर ऐसा काम करने वाले कुछ धन्धेबाज लोग होते हैं जो साहित्य में रुचि रखने वालों की यशकामना का विदोहन करते हैं और इस कार्य से कुछ कमाई भी कर लेते हैं, जबकि इसके विपरीत श्री गुरु यह काम बिना किसी लाभ लोभ के अपनी ओर से अपनी रुचि के कारण करते थे। इसमें उन्हें आनन्द आता था।
श्री गुरु आगरा में जन्मे थे। उनकी एक
फेसबुक पोस्ट से ज्ञात हुआ कि उनके बचपन में ही उनकी माँ का निधन हो गया था और
उन्हें उनके पिता ने ही पाला जो डिप्टी कलैक्टर थे और बच्चों को पालने के लिए ही
उन्होंने सेवा में विस्तार लेने से मना कर दिया था। वे पिता की प्रेरणा से ही सेना
में भरती हुए थे। उनके प्रोफाइल में लिखा है कि वे चीन के साथ हुयी लड़ाई में लड़े
थे व सेवा काल के दौरान उन्हें रक्षा मेडल,
संग्राम मेडल स्वंतंत्रता जयंती मेडल व दीर्घ सेवा मेडल प्राप्त हुये थे। सेना से
सेवा निवृत्त होने के बाद उन्होंने बी एच ई एल भोपाल में सेक्यूरिटी अधिकारी के
रूप में सेवायें दीं और अपना निवास भोपाल में बनाया।
वे ब्रज क्षेत्र के थे और प्रमुख रूप से ब्रज भाषा के छन्दों
में ही अपनी रचनाएं लिखते थे। सैनिक होने के कारण उन्होंने राष्ट्रभक्ति की ओजस्वी
कविताएं भी लिखी हैं व बाल साहित्य भी रचा है जो उनकी पुस्तकों 1. काव्य कलश, 2. शब्द कलश, 3. मधु कलश, 4. मन के गीत, 5.गीत साधना, 6.बाल कलश, 7. नेह कलश, 8..गीत कलश व 9. नव क़लश में संकलित है।
कुछ मामलों में सैनिकों जैसी मुखरता और स्पष्ट्वादिता के बाद भी
वे साहित्य प्रेम के प्रति इतने समर्पित थे कि साहित्य में रुचि रखने वालों तक
स्वयं पहुंचते थे, उन्हें अपनी गोष्ठियों में आमंत्रित करते थे, उनकी रचनाओं को
सहयोगी प्रकाशनों में सम्मलित करते थे, और यथा सम्भव सम्मान पुरस्कार से नवाजते
थे। 2001 से मैं भोपाल बस गया था और जब मेरी कुछ रचनाएं उन्हें विभिन्न पत्र
पत्रिकाओं में पढने को मिलीं तो उन्होंने खुद मेरे पास आकर मुझे संस्था का सम्मान
देने का प्रस्ताव दिया जिसे मैंने विनम्रता से यह कह कर मना कर दिया कि मैं स्वयं
को किसी सम्मान के लायक नहीं समझता हूं इसलिए ग्रहण नहीं कर सकता जिसका प्रमाण यह
है कि तीस वर्ष के निरंतर लेखन के बाद भी मेरे परिचय में किसी सम्मान, पुरस्कार का
जिक्र नहीं है। बहरहाल मैंने उनकी गोष्ठियों में सम्मलित होने के निमंत्रण को सिर
झुका कर स्वीकार कर लिया। अनेक ऐसी गोष्ठियों में उन्होंने मुझ नाचीज को अध्यक्षता
दी और अनेक लोगों को मेरे हाथ से सम्मान दिलवाये।
उनकी परिचित किसी पत्रकार को जब दैनिक भास्कर में कल्चर को कवर
करने की बीट मिली तो उन्होंने उसे मेरे ऊपर लिखने को कहा और जब उसने पूछा कि आपको मिले
पुरस्कार सम्मान बताइए और जब मैंने यही कहा कि मुझे कहीं से कोई सम्मान पुरस्कार
नहीं मिला तो उसने आश्चर्य से कहा कि भोपाल में तो गली गली सम्मान देने वाली
संस्थाएं हैं और कोई भी लेखक बिना सम्मान के नहीं है तो यह कैसे सम्भव है। उसने आगे
कहा कि गुरुजी तो आपके मित्र हैं और प्रतिवर्ष ढेरों पुरस्कार देते हैं, वे आपके
प्रशंसक भी हैं और उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है। कभी मुहल्ले से, मन्दिर से
कहीं से कुछ तो मिला होगा! मेरे मना करने पर उसे निराशा हुयी तो उसने मेरे लेख से लेकर
आन्ध्र प्रदेश स्थापना के रजत जयंती कार्यक्रम में मुख्यमंत्री द्वारा कवियों के
स्वागत को सम्मान बता कर अपनी खबर बनायी। इस पर मैंने गुरु जी से अपना असंतोष भी
व्यक्त किया। पर वे सहज रहे।
कोरोना के बाद उनके कार्यक्रमों की आवृत्ति भी कम हो गयी थी और
मेरा वहां जाना भी। एक दुर्घटना के बाद वे अक्सर ही अपने बेटे के पास इन्दौर रहने
चले जाते थे। पिछले 22 अगस्त 24 को इन्दौर में ही उनका देहावसान हो गया। उन्होंने
भोपाल के एक साहित्यिक कोने को सूना कर दिया। उनकी रुचि और समर्पण को नमन।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023