पुस्तक चर्चा
बाल कविता संग्रह ‘बच्चे होते फूल से’
वीरेन्द्र जैन
देश के प्रसिद्ध नवगीतकारों में से एक मनोज जैन
‘मधुर’ अपने नवगीतों और उसकी वेब पत्रिकाओं के लिए जाने जाते हैं। वे मंचों के भी
मधुर कंठी गीतकार हैं। उनके अनेक नवगीत संग्रह प्रकाशित होकर साहित्य जगत में
चर्चित रहे हैं जिन पर अनेक संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत सम्मानित किया गया
है। प्रस्तुत पुस्तक ‘ बच्चे होते फूल से ‘ उनका बाल कविताओं का संग्रह है। इस
संग्रह के द्वारा उन्होंने सुधी समीक्षकों का ध्यान आकर्षित कर उनका आशीर्वाद
हासिल किया है। इस संग्रह में उनकी वे कविताएं हैं जो उन्होंने मुग्धभाव से बच्चों
के कार्यकलापों पर लिखी हैं, इनमें वे कविताएं भी है जो प्राथमिक पाठ सीखते बच्चों
की जिज्ञासाएं और अर्जित ज्ञान को अपने दूसरे साथियों के साथ बांटने के क्रम में
उनकी गतिविधियों में नजर आती हैं।
बाल कविताओं को हम दो तीन भागों में बांट सकते
हैं। पहला भाग तो शिशु गीत होते हैं जिन्हें उनकी माँ, दादी और बुआ चाची आदि गाकर
सुनाती हैं और उन्हें स्वर का प्राथमिक ज्ञान देती हैं। देश के प्रतिष्ठित कवि
नरेश सक्सेना एक कविता में कहते हैं कि शिशु भाषा से पहले संगीत सीखता समझता है।
बिना शब्द के आ आ आ आ के स्वर उसका ध्यान आकर्षित करते हैं और थपकी का संगीत उसे
सुला देता है। भाषा का पहला पाठ भी वह माँ या माँ के समान घर की महिलाओं से सीखता
है जो उसकी पहली भाषा की शिक्षक होती हैं और इस पाठ को ही मातृभाषा कहा गया है।
इसी भाषा से वह माँ से छोटे छोटे संवाद सुनता है जो क्रमशः उसके मानस में बीज की
तरह पड़ते हैं और बाद में अंकुरित होते रहते हैं। पहले कुछ वर्ष वह जो बात करता है
वह घर में सुनी गयी बातों से सीखी हुयी, घर में देखी हुयी वस्तुओं और व्यक्तियों
तक ही सीमित होती है। बात बनाना तो वह बहुत बाद में सीखता है। [ये बात नई है कि
अपना समय बचाने के लिए अब घर के लोग उसे मोबाइल थमा देते हैं और वह उससे भी शब्दों
को सीखता रहता है।] शिशुओं से संवाद की शैली स्वरों की शैली होती है, उसमें बोलने
में कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता। मा [माँ] दादी दीदी, दुद्धू, आदि से
सिखाया जाता है। उसी तरह के शिशु गीत होते हैं जो लल्ला लल्ला लोरी की तरह के होते
है। म.प्र. साहित्य परिषद से पुरस्कृत अनवारे इस्लाम की पुस्तक का नाम है ‘ चकइ के
चकधम ‘ । मनोज के इस संकलन में भी ‘ घर आयी है, बड़ी बुआ / आज बनेगा मालपुआ और ‘ लोरी
गीत ’ जैसी कविताएं हैं, जो लय के सहारे उसका मन बहलाने का काम करती हैं ।
ओशो कहते हैं कि बच्चे किसी के भी हों वे प्यारे
लगते हैं, और इसका कारण यह है कि वे सच्चे होते हैं। यह प्यार उस गुण के लिए है जो
हर धर्म के मूल सिद्धांतों में सबसे ऊपर आता है। अगर सारे लोग सत्य ही बोलने जानने
और जीने लगें तो दुनिया स्वर्ग से बेहतर हो सकती है। यही कारण है कि ईसा मसीह ने
कहा था कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं, जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं। यह
सत्य के प्रति स्वाभाविक आकर्षण है। फूलों समेत प्राकृतिक वस्तुएं उनके रंगों,
कोमलता और स्वाभाविकता के लिए भी आकर्षित करती हैं।
हिन्दी साहित्य में सूरदास को शिखर पर इसीलिए
प्रतिष्ठापित किया गया है कि उन्होंने सुन सुन कर ही कृष्ण की बाल लीलाओं और
भोलेपन का जो वर्णन किया है वह मुग्धकारी है। जब बाल कृष्ण सबकी समझ में आने वाला
मासूम तर्क देते हैं कि ‘ ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, जबरईं मुख लिपटाओ, मैया मोरी
मैं नहिं माखन खायो ‘। रसखान कहते हैं कि ‘ वा छवि खों रसखान विलोकित वारत काम कला
निधि कोटी”। यही वात्सल्य निदा फाज़ली में इस तरह से आया है कि ‘ घास में खेलता है
इक बच्चा, और माँ बैठी मुस्कराती है/ सोचता हूं मैं आखिर क्यों दुनिया, काबा या
सोमनाथ जाती है ‘। वात्सल्य का यही गुण मनोज मधुर की अनेक कविताओं में बिखरा हुआ
है।
मुक्तिबोध साहित्य को संवेदनात्मक ज्ञान कहते
हैं। ज्ञान दान में ज्ञान देनेवाले का जो महत्व है उतना ही महत्व है सीखने वाले का
भी है, इसलिए दोनों के समन्वय के बिना शिक्षण प्रशिक्षण सम्भव नहीं होता। वे ही
शिक्षक सफल हुये हैं जो शिक्षार्थी के स्तर पर उतर कर अपनी बात कहते हैं। उसे रोचक
बना कर कहना एक विशेष गुण होता है। छन्द की कविता अपनी लय और अनुशासन के कारण उसे
आसान कर देती है। आमिर खान की फिल्म ‘ सितारे जमीं पर ‘ इसी बात को कहती है कि जब
शिक्षक गा कर और अभिनय के सहारे ज्ञान देता है तो कम विकसित दिमाग का बच्चा भी उसे
समझने लगता है। सन्देश को ग्रहण करता है।
इस संकलन में अक्षर ज्ञान और भाषा को समझने वाले
बच्चों को गीत कविता के माध्यम के सहारे ढेर सारी जानकारियां और अच्छी अच्छी बातें
बतायी गयी हैं जिनमें ‘गिनती गीत’ ‘जादूगर’ ‘ मेरी प्यारी दोस्त गिलहरी’ ‘पुस्तक मेला’
‘हमारा प्यारा भारत देश ‘ ‘चूहों के सरदार ने ‘ ‘सैर सुबह की ‘ ‘पाली क्लीनिक’ ‘ सैर
करो जी ‘ ‘मेरा नाम जिराफ़ है’ ‘जाओ स्वेटर लेकर आओ’ ‘मैट्रो पकड़ी चिड़ियाघर की ‘ ‘विटामिन
डी’ ‘दो गज की दूरी बहुत जरूरी ‘ ‘मोबाइल से दूरी ‘ ‘पानी है अनमोल ‘ ‘अल्मोड़ा’ आदि
रचनाएं संकलित हैं। कुछ कथाएं भी गीत कविता के माध्यम से कही गयी हैं। यह हमारी
परम्परा है कि रामायण से लेकर महाभारत तक कथात्मक ग्रंथों को काव्य के द्वारा
व्यक्त किया गया है और इसीलिए वे कालजयी रचनाएं बन सकी हैं। बच्चों को जो
उपदेशात्मक कविताएं बचपन में सिखायी जाती हैं वे जीवन भर उनके साथ रहती हैं। ‘ चन्दा
मामा दूर के ‘ ‘ मछली जल की रानी है, उसका जीवन पानी है’ या ‘लकड़ी की काठी, काठी
का घोड़ा’ सबको याद आती है। यदि बच्चे अपनी कविताएं खुद लिख पाते तो वही यथार्थ
लिखते जिसे वे महसूस कर रहे होते हैं।
बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, उनके सहारे कौशल
सीखते हैं वहीं दूसरी तरफ बड़े लोग बच्चों से खेलते हैं । फूल से कोमल स्पर्श वाले
बच्चे उन्हें संवेदना सिखाते हैं। मंटो की एक कथा है जो कहती है कि साम्प्रदायिक
दंगों के दौरान शाम को एक जगह बैठ कर दिन भर के कार्यकलाप बताते हैं कि किसने
कितनी बहादुरी दिखा कर कितने विधर्मियों को मारा। उनमें एक व्यक्ति बुझा बुझा बैठा
है और पूछने पर बताता है कि उसने आज एक बच्चे को मारा, तो उसकी बात पर सारे लोग
हँसने लगते हैं कि बस एक बच्चे को मारा। इस प्रतिक्रिया पर वह कहता है कि बच्चे को
मारना सबसे कठिन होता है। कारण पूछने पर वह बताता है कि बच्चे को मारते समय अपने
बच्चे याद आने लगते हैं।
बच्चे फूलों की तरह दुनिया को सुन्दर बनाते हैं
और जैसा कि नीत्शे ने कहा था ‘ सुन्दरता संसार को बचायेगी ‘ यह काम फूल से बच्चों
को संवार कर ही होगा।
वीरेन्द्र जैन
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