अब गोरखालैंड का क्या होगा?
वीरेन्द्र जैन
जिन्ना को उनकी उस छवि से भिन्न दर्शाने वाली छवि बनाने, जिसके आधार पर नफरत फैला कर संघ परिवार अपनी दुकान चलाता रहा था, के आरोप में जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को बिना सफाई मांगे पार्टी से निकाल दिया गया है। अपने निष्कासन के बाद जसवंत सिंह ने भाजपा के जो जो राज खोले हैं उससे भाजपा में दहशत का माहौल है, क्योंकि उनका सारा अस्तित्व ही इसी तरह के कारनामों से भरा हुआ है जिनके सामने आ जाने पर वे नैतिक रूप से झूठे और दोहरे चरित्र वाले प्रमाणित होते हैं। अब सवाल केवल जसवंत का ही नहीं रहा अपितु बंद दरवाजा खुल जाने का हो गया है जिससे दिनप्रति दिन कोई न कोई राज बाहर फूट कर आ रहा है। अरूण शौरी, भुवन चंद खण्डूरी, आदि का साहस उसके बाद ही फूट सका है जबकि असंतोष तो अन्दर ही अन्दर पनप रहा था।
इधर जसवंत सिंह ने संसद की लोकलेखा समिति के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने से इंकार कर दिया है जिसके लिए सुषमा स्वराज को उनके पास भेजा गया था। वे अब दार्जिलिंग से स्वतंत्र सांसद हैं व भाजपा ने जिस हथकण्डे के माध्यम से बंगाल में घुसने का दावा किया था वह भी फेल हो चुका है। स्मरणीय है कि बंगाल में नेपाल की सीमा से लगे दार्जिलिंग जिले में पिछले दो दशक से अलग राज्य बनाने का आन्दोलन चल रहा है जिसे वहाँ के सत्तारूढ मोर्चे ने राष्ट्रहित में कभी भी स्वीकार नहीं किया था भले ही उसके लिए कितनी भी कुर्बानी देनी पड़ी हो और अलग से विकास परिषद का गठन करके गोरखालैंड आन्दोलन के प्रमुख सुभाष घीसिंग को उसका प्रमुख बनाना पड़ा हो। पर पिछले दिनों गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के विस्तार के बाद फिर से अलग राज्य के बहाने अलगाव की मांग जोर पकड़ती जा रही थी व सत्तारूढ मोर्चे व सीपीएम के कार्यकर्ताओं पर खुले हमले बढते जा रहे थे। देश के अधिकांश राजनीतिक दल अलगाववाद के इस खतरे को समझ रहे थे व अलग राज्य की मांग के नाम पर चल रहे इस आंदोलन से दूरी बनाये हुये थे किंतु अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा ने न केवल गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से समझौता किया अपितु वहाँ से अपनी पार्टी के लिए उस सीट का सौदा कर लिया। उनके पास वहाँ कोई स्थानीय नेता नहीं था तथा वे खतरा उठाने के लिए संघ से आये किसी अपने खास आदमी को नहीं भेजना चाहते थे इसलिए उन्होंने बलि का बकरा बनाने के लिए पूर्व फौजी व अनुशासन का पालन करने वाले जसवंत सिंह को ही भेज दिया। संयोग से वे वहाँ से जीत भी गये।
उल्लेखनीय है कि अपनी विवादित पुस्तक के पिछले कवर पृष्ठ पर जसवंत सिंह के जीवन परिचय में लिखा हुआ है कि वे “दार्जिलिंग पर्वतीय राज्य” से लोकसभा के लिए चुने गये हैं। भले ही प्रकाशक का कहना है कि ऐसा गलती से हुआ है किंतु ऐसी गलती सहज गलती नहीं हो सकती जबकि जसवंत सिंह का कहना था कि वे उक्त पुस्तक के विमोचन के लिए अपनी पार्टी से बार बार कह रहे थे पर पहले विधानसभा चुनावों के नाम पर और फिर लोकसभा चुनावों के नाम पर इसे टाला गया था। अभी भी महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के नाम पर इसका विमोचन स्थगित करने की सलाहें दी गयीं थीं। यदि देश के विभाजन के लिए जिम्मेवार माने जाने वाले जिन्ना की पुस्तक में लेखक के जीवन परिचय के बारे में इतनी बड़ी भयंकर भूल हो सकती है कि उसे उस राज्य का सांसद बताया जाये जो अस्तित्व में ही नहीं है व जिसका गठन राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है, तब गैर जिम्मेवारी की और क्या सीमा हो सकती है! खेद है कि फ्लैप पढ कर पुस्तक समीक्षा कर देने के लिए मशहूर नामवरसिंह का ध्यान भी इस बड़ी भूल पर नहीं गया।
अब सवाल है कि दार्जिलिंग के लोगों ने जिस उम्मीद में अपना सम्पूर्ण समर्थन एक बाहरी व्यक्ति और उनके क्षेत्र के लिए बाहरी पार्टी को दे दिया था, उनकी उम्मीदों को क्या होगा जो भाजपा के सत्ता में न आने के कारण पहले ही धूमिल हो चुकी थीं। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के केन्द्रीय समिति नेता अमर लामा कहते हैं कि उनका समझौता तो भाजपा के साथ हुआ था और वे भाजपा के साथ हैं व हमारी मांगों को भाजपा ही उठायेगी जबकि भाजपा के लोग इस मांग से सहमत नजर नहीं आते तथा उस मांग का प्रतिनिधित्व करने वालों के प्रतिनिधि को ही उन्होंने पार्टी से निकाल दिया है। दूसरी ओर मोर्चा प्रमुख और आन्दोलन के जाने माने नेता गुरूंग जसवंत सिंह के निरंतर सम्पर्क में बने हुये हैं व उनसे निरंतर न केवल फोन पर बात कर चुके हें अपितु दिल्ली आकर उनसे मिल भी चुके हैं।
यह एक अकेला मामला नहीं है। भाजपा नेता चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए किसी भी तरह की मांग का समर्थन करने व मौखिक समझौता करने में देर नहीं करते पर उसके बाद सब अपने अपने स्वार्थ साधने में लग जाते हैं। चुनाव जीतने और सरकार बनाने में वे किसी से भी कैसा भी समझौता कर लेते हैं यही कारण है कि वे अकेली ऐसी पार्टी हैं जो सभी तरह की उन संविद सरकारों में सम्मिलित रही है जिन्होंने उसे आमंत्रित किया है। वे वीपी सिंह की सरकार में भी सम्मिलित होने के लिए उतावले थे किंतु बिना बाममोर्चे के समर्थन के सरकार बन नहीं रही थी व माकपा के हरकिशन सुरजीत ने साफ कह दिया था कि हमारा समर्थन तभी मिलेगा जब भाजपा को सरकार से बाहर रखा जायेगा। बाद में उन्हीं वीपीसिंह के खिलाफ उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव रखा था और सरकार गिरा दी थी।
संघ के नेता भी अलग गोरखा लैंड बनाने के मामले में चुप्पी साधे हुये हैं व कुछ भी कहने से बचते हैं क्योंकि इसके खतरे से वे अनभिज्ञ नहीं हैं व अलग राज्य बनाने की वे कोई आवश्यकता नहीं समझते। तय है कि दार्जलिंग की जनता भी भाजपा के हाथों ठगी गयी है क्योंकि उन्होंने इस बार अभूतपूर्व एकता दिखायी थी व कठोर संघर्ष किया था। स्मरणीय है कि चुने जाने के बाद जसवंत सिंह ने भी अलग राज्य के बारे में अपने श्री मुख से कुछ नहीं कहा है और अब तो उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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भाजपा का यही हाल है..कोई ना कोई सुर अलापना ही है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति....
कभी कांग्रेस की करतूतों पर भी आप कुछ लिखेंगे क्या ?
जवाब देंहटाएंमें कांग्रेस को इस लायक नहीं समझता यदि आप समझते हैं तो आप स्वतंत्र हैं
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