आखिर क्या बुराई है बदले की भावना में
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश का सामाजिक संविधान कुछ धार्मिक कथाओं में वर्णित चरित्रों, घटनाओं और आदर्शौ के आधार पर चलता रहा है। इन कथाओं में हम रिशतों को परिभाषित व उसी अनुसार निधर्रित होते हुये देखते हैं और अच्छे व बुरे की पहचान करते हुये सामजिक मूल्य ग्रहण करते रहे हैं। इन कथाओं में जो एक चीज हम बहुत ही सामान्य पाते हैं वह है बदले की भावना। राम कथा में ही रावण जैसे राक्षस को मारने का फैसला उसके द्वारा छल पूर्वक सीता हरण करने के कारण लिया गया बताते हैं तथा इसी तरह अन्य कथाओं में भी कथा नायकों द्वारा समाजविरोधी तत्वों का विनाश किसी व्यक्तिगत रंजिश के कारण ही संभव हुआ पाते हैं। इतिहास में भी दर्ज हैं कि अगर औरंगजेब ने शिवाजी को बड़े मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया होता तो वे औरंगजेब के विरोधी न होकर उसके पक्ष में लड़ने वाले राजाओं की तरह जाने जाते।
आज की लोकतांत्रिक राजनीति में हम आये दिन देखते हैं कि जब भी किसी नेता के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो वह इसे बदले की भावना से की गयी कार्यवाही कह कर सत्तारूढ दल को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है और यदि सत्ता में हुआ तो दूसरे गुट के नेता को दोष देने की कोशिश करता है। उक्त आरोपियों का ऐसा बयान देश के संवैधानिक कानूनों में खुला अविशवास और उनके अपमान का सूचक होता है। आखिर बदले की भावना से भी की गयी कानूनी कार्यवाही यदि नियमानुसार है तो उसे करने में दोष ही क्या है?
हमारे कानून के अनुसार जब तक कि कोई दोषी साबित न हो जाये वह आरोपी ही माना जाता है तथा जब तक फैसला नहीं हो जाता तब तक वे आरोपी ही कहलाते हैं। प्रत्येक आरोप की एक जाँच प्रक्रिया है व विधिवत भरपूर समय देकर प्रकरण चलता है। इस दौरान आरोपियों को अपने आप को निर्दोष साबित करने का भरपूर अवसर रहता है। यदि यह साबित हो जाता है कि आरोपी निर्दोष था व जाँच अधिकारी अथवा शिकायतकर्ता ने उसे जानबूझ कर फॅंसाने की कोशिश की है तो उस पर भी प्रकरण दर्ज किया जा सकता है।
हमारे देश में इतने मुकदमे लम्बित हैं कि अगर सारी अदालतें बिना किसी छु़टिट्ओं के लगातार भी बैठें तो भी लगभग 150 साल उन्हें सुलझाने में लग जावेंगे। लोकतंत्र में प्रत्येक पाचँ साल में सरकार का नवीनीकरण होतहै इसलिए नये आने वाले शासन को अपना अभियान कुछ लागों से प्रारंभ करना पड़ता है। पर यदि ऐसे लोग किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं तो उनका आरोप होता है कि ये कार्यवाही उन्हें अनावशयक रूप से झूठे फॅसाने के लिए की जा रही है ऐसा आरोप लगाते हुये वे न केवल सत्ता में बैठे अपने विरोधी पर ही आरोप लगा रहे होते हैं अपितु यह भी कह रहे होते हैं कि पूरी न्याय प्रणाली सत्तारूढ दल की गुलाम होती है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। यह न्याय के प्रति उनके अविशवास को प्रकट करता है। हो सकता है कि कुछ हद तक यह सही भी हो किंतु केवल अपने ऊपर आरोप लगने के बाद ऐसे विचार प्रकट करना किसी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि न्याय प्रणाली समेत किसी भी व्यवस्था में कोई दोष है तो उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं को उन पर आरोप लगने से पूर्व भी निरंतर कार्य करना चाहिये। आखिर इससे पहले वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे होते?
मेरी दृष्टि में यदि बदले की भावना से भी न्यायसंगत कार्यवाही होती है तो वह स्वागत योग्य है क्योंकि आखिर कहीं न कहीं से तो शुरूआत करना ही होगी। यदि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार आयकर के छापों का प्रारंभ साम्प्रदायिक दलों के सदस्यों और उनको वित्तीय मदद देने वालों से करते हैं तो उसमें दुहरा फायदा है। जहाँ एक ओर छुपाये गये आयकर की वसूली होती है तो दूसरी ओर देश विरोधी साम्प्रदायिकता को पल्लवित पोषित करने वालों पर लगाम लगती है। विभिन्न सरकारें यही प्राथमिकता विरोधी दलों से जुड़े संदिग्ध माफिया गिराहों व असामाजिक तत्वों के साथ कर सकती हैं। अतिक्रमण हटाने के मामले में भी यह प्रक्रिया परिण्ाामदायी सिद्ध होगी।
राजनीतिक दलों के सदस्य होने के आधार पर किसी को भी कानून से कोई छूट नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि बहुत सारे दलों में कानून से सुरक्षा पाने के लिए ही अनेक अपराधी सम्मिलित हो गये हैं जो कार्यवाही होने पर अपनी राजनीतिक हैसियत का कवच पहिन लेते हैं। राजनीतिक विरोधियों को प्राथमिकता पर रखने का एक लाभ यह भी होगा कि फिर वे भी पलट कर सत्तारूढ दल के सदस्यों में छुपे अपराधियों के खिलाफ अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करेंगे जिससे सरकार स्वत: ही लाभान्वित होंगी। यह प्रक्रिया प्रशासनतंत्र को साफसुथरा बनाने में मददगार होगी। देखने में यह आ रहा है कि अभी अपराधों का सहकार चल रहा है और सत्ता व विपक्ष में सम्मिलित नेताओं में यह समझ सी बन गयी है कि ना हम तुम्हें छेड़ें और ना ही तुम हमारे मामले में अपनी चाेंच डालो। जनता के सामने पिछली सरकार पर तरह तरह से आरोप लगाने वाला विपक्षी दल सत्ता पाने के बाद उदार बन जाता है क्यों कि वह स्वयं भी उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार होकर आता है जिसकी आलोचना करते करते उन्होंने सत्ता हथियायी होती है। होना तो यह चाहिये कि किसी भी आरोपी को किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोक लगाये जाने के प्रावधान हों, अथवा उन्हें चुनाव में खड़े होने से वंचित किया जा सके। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि यदि कोई आरोपी चुन लिया जाये तो उस पर चल रहे प्रकरणों की सुनवाई किसी फास्ट ट्रैक अदालत से नियमित रूप से करवायी जाये। हमारे चुने हुये सदस्यों को जो अनेक विशोष सुविधाएॅ मिली हुयी हैं तो यह एक विशोष सुविधा और मिलने से हमारे सदन दाग रहित सदस्यों के सदन बन सकेंगे।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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