वस्तु की तरह बाजार में खड़ी हुई देह
वीरेन्द्र जैन
देश के सभी महानगरों में सेक्स व्यापार के रैकट पकड़े आने की खबर आम होती जा रही है। प्रति सप्ताह ऐसी कोई न कोई खबर समाचार पत्रों में बहुरूचि के साथ पढ़ी जाने लगी है। सैक्स व्यापार के मामले में देश का कानून सामाजिक नैतिकता की तुलना में बहुत भिन्न है इसलिए पकड़े गये लोगों को सजा नही हो पाती अपितु वे देर -सबेर बाइज्जत बरी हो जाते हैं। इन घटनाओं में नैतिक और सामजिक अपयश ही प्रमुख दण्डात्मक भूमिका निभाते हैं। पुलिस की रूचि भी इस अपयश के भय का दोहन करने के लालच वश ही होती है सामान्यत: इन कांडो में पकड़े गये पुरूष, अधिकारी कर्मचारी वर्ग अथवा समाज के सम्पन्न विचौलिया तबकों से सबंध रखते हैं इसलिए वे अपना नाम ना आने देने के बदले में यथासंभव 'आर्थिक दण्ड' देकर मामले को रफा दफा करवाने का प्रयास करते हैं और सफल भी हो जाते हैं। तय है कि प्रकाश में आये मामलों की तुलना में यह रोग बहुत तेजी से फैल रहा है जिसकी परोक्ष स्वीकृति एड्स के मरीजों की संख्या और उसके खिलाफ किये जा रहे व्यापक प्रचार अभियान के माध्यम से हमारी सरकारें कर ही रही हैं। विचारणीय यह है कि यह स्वीकृति क्यों पनप रही है तथा इसकी जड़ें कहॉ पर हैं।
पुरातन काल की सामन्ती व्यवस्था में वेश्यावृति एक समाज स्वीकृत धंधा था और सेठों तथा सामन्तों द्वारा अपना ऐश्वर्य प्रर्दशन का भी एक हिस्सा था। दूसरी और जासूसी के लिए विष कन्याएं तथा देवदासियों के रूप में भी इनकी धार्मिक स्वीकृति थी। लोकतंत्र में आधे अधूरे प्रवेश के बाद देश में मध्यम वर्ग तेजी से विकसित होने लगा जो मूलतय: निम्नवर्ग का वह ऊपरी हिस्सा था जो अपनी जाति या शिक्षा के कारण अपने को उच्चवर्ग समझने के भ्रम में पड़ा हुआ था तथा उसकी नकल करने की कोशिश करता रहता था। इस वर्ग में जो नैतिक मूल्य स्वीकृत थे उसके अनुसार ना तो वह वेश्या बाजार में सीना खोलकर जा सकता है और ना ही उसकी आर्थिक स्थिति रखैल या उप पत्नी रखने की थी इसलिए इस वर्ग ने अपने अंदर उच्च वर्ग जैसे आकांक्षाओं के पलते बीच का रास्ता खोज निकाला जो अवैध सबंधों से होकर जाता था चूंकि यह सामाजिक रूप से स्वीकार्य मार्ग नही था इसलिए इसे चोर रास्ते की तरह प्रयोग किया गया इसकी जानकारी इन अवैध सबंध रखने वालों और अधिक से अधिक उनके निकट रहने वालों तक ही हो पाती है जिससे इसकी व्यापकता के सही सही आंकड़े कभी उपलब्ध नहीं हो सके। किंन्तु व्यक्तिगत बातचीत में आत्मीय लोगों को मिलती सूचना से लगता है कि अनेक व्यक्ति कम ज्यादा कहीं न कहीं ऐसे किन्हीं सबंधों से जुड़े रहे हैं। चूंकि ये सम्बंध महिला पुरूषों के सबंध थे इसलिए इसी अनुपात में महिलाएं भी इनसे जुड़ी रही हैं। संयुक्त परिवार की व्यवस्था होने के कारण ऐसे बहुत सारे सम्बंध रिश्तेदारी, मित्र परिवार या पड़ोस में ही बनाये जाना सुविधाजनक रहा है। गत वर्षो में सुप्रसिद्व कथा पत्रिका हंस में अनेक लेखिकाओं ने अपनी आत्म रचनाओं के माध्यम से ऐसे सबंधों को स्वीकारा है। चूंकि ये लेखिकाएं विख्यात हो चुकी लेखिकाएं है और उनकी इस स्वीकृति से उनके व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक सम्मान के कम हो जाने का कोई खतरा नहीं है इसलिए वे ऐसा सार्वजनिक स्वीकार कर सकी हैं, पर इससे यह पता चलता है कि यदि सार्वजनिक उद्घाटन के साहस की स्थिति अन्य महिलाओं को मिल जाये तो हमारे पूरे समाज की नैतिक मान्यताओं को करारा आघात लग सकता है। हमारे यहां परोक्ष रूप से यह स्वीकारा गया है कि 'त्रिया चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्य:'' किंतु क्या स्त्री का चरित्र बिना पुरूष का चरित्र गिरे गिर सकता है! अभी तो स्थिति यह है कि बलात्कार जैसा अपराध हो जाने पर भी परिवार के लोग स्वयं ही रिपोर्ट लिखाने से कतराते हैं।
आज देश में 42 प्रतिशत से अधिक मध्यम वर्ग है, यह वर्ग वे सारी सुख- सुविधाएं प्राप्त करने के लिए उतावला हो गया है जो कभी केवल उच्च वर्ग को प्राप्त थीं। इस दौड़ में वह केवल उपभोक्ता सामग्री तक ही सीमित नही रह गया है अपितु लोक व्यवहार में भी उच्च वर्ग जैसा दिखावा करने का प्रयास करता है। दूसरी ओर वह वे सामाजिक मान्यताएं नकार नही सका है जो उसे सामंती समाज की ओर से मिली हैं। महानगरों के तेजी से फैलाव के पीछे भी मध्यम वर्ग के आर्थिक सामाजिक हालातों व विश्वासों में आये परिवर्तन का हाथ रहा है। संयुक्त परिवार को भंग करने और अपना स्वप्नलोक अलग बसाने में अब शर्म नही आती। एकल परिवारों के नई जगह बसने से एक नई सामाजिक नैतिकता ने आकार ग्रहण किया है जो बुजुर्ग पीढ़ी की नैतिकता से मुक्त होकर अपने नव मध्यवर्गीय सपनों वाला समाज बनाने में जुट गयी है।
मध्यम वर्ग के इस तेज विकास ने देश में एक बहुत बड़ा उपभोक्ता समुदाय भी पैदा किया है और इस बाजार को हथियाने में पश्चिमी औधोगिक देश उसी तेजी से आकर्षित भी हुये है। नई आर्थिक नीतियों को स्वीकारने के लिए बनाया गया दबाव और उसकी स्वीकृति इसी का परिणाम है। इस स्वीकृति के बाद हमने विदेशी सामानों के लिए अपने सारे खिड़की दरवाजे खोल दिये। अपने सामानों की बिक्री हेतु यह आवश्यक हो गया कि पश्चिमी देश हमारे देश में उस संस्कृति का भी विकास करें जिससे उनका सामान बिक सके। इस कार्य के लिए टेलीविजन चैनलों और इन्टरनैट का भरपूर इस्तेमाल होने लगा जिसके माध्यम से सैक्स से जुड़ी सतही सम्वेदनाओं को रात दिन परोसा जाने लगा। वातावरण में बनावटी फागुन और बंसत फैलाया जाने लगा। दूसरी ओर पुरानी शोषित व्यवस्था से नई शिक्षित नारी ने घर के बाहर कदम रखा तो उसे भटकाने वाली व्यवसायिक संस्कृति सामने खड़ी थी। जिस शोषित व्यवस्था से टकराने के लिए उसे जुझारू बनने की जरूरत थी उसकी जगह वह मॉड बनने के रास्ते भटक गयी। इस रास्ते पर उसे अपनी जवानी के बदले में धन धान्य युक्त सपनीला जीवन नजर आया। मन में सामाजिक मान्यताओं को बदलने का स्वीकार लिये हुए मध्यवर्गीय एकल परिवार भिन्न दिशा में बदलने लगा। परिवार नियोजन से सबंधित उपकरणों, औषधियों और उपचारों ने उसे गर्भधारण के सभी खतरों से सुरक्षित कर दिया।
जब देह व्यापार के रैकिट पकड़े जाने की खबरें सामाजिक चिंता की जगह लोक रूचि का विषय बनने लगें तो हमें इस सामाजिक अस्वस्थता की जड़ में छुपे आर्थिक राजनीतिक कारणों की पड़ताल करनी ही चाहिए यदि संभव हो तो उपचार भी तलाशना चाहिऐ।
---- वीरेन्द्र जैन
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