लिवइन और परंपरागत विवाह का घालमेल अनुचित
वीरेन्द्र जैन
विवाह, केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों की सामाजिक व कानूनी स्वीकृति भर नहीं होती अपितु यह पति की सम्पत्ति में पत्नी का अधिकार और संतानों को विरासत कानून के अनुसार सम्पत्ति का अधिकार भी देता है। विवाह से पति पत्नी के अलावा भी परिवार में कई दूसरे रिश्ते बनते हैं। इसके विपरीत लिव इन रिलेशन केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों को ही स्वीकृति देता था जो कुछ दिनों बाद सामाजिक स्वीकृति तो नहीं बनी पर कानूनी स्वीकृति बन गयी। आज अपने देश में भी हजारों लोग लिव इन रिलेशन के अर्न्तगत साथ रह रहे हैं पर ज्यादातर लोग अपनी पुत्री पुत्र या निकट के रिशतेदार का लिव इन रिलेशन पसंद नहीं करते। यह स्थिति बताती है कि इस रिश्ते को अभी सामाजिक स्वीकृति मिलना शेष है।
पिछले दिनों हमारे सुप्रीम कोर्ट ने 'लिव इन रिश्ते' को मान्यता देते हुये इस रिश्ते में शामिल महिला को पत्नी के समान अधिकार दे दिया है जो एक तरह से उसे सम्पत्ति का अधिकार दिया जाना है। इस अधिकार को यदि एक महिला(निर्बल वर्ग) को दिये गये अधिकार की तरह देखा जाये तब तक तो ठीक है किंतु इस अधिकार ने इस रिश्ते का स्वरूप ही बदल दिया है। ये रिश्ता असल में नारी की स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक था जबकि विवाह उसकी परतंत्रता और परनिर्भरता का प्रतीक होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने भले ही उसे धन का अधिकार दिया हो पर उसे फिर से उसी कैद की ओर का रास्ता खोल दिया है।
सामाजिक स्वीकृति की परवाह किये बिना जो महिला लिव इन रिलेशन में रहने का फैसला करती है वह अपनी मर्जी की मालिक होती है तथा उस पर इस रिश्ते को स्वीकार करने या बनाये रखने के लिए कोई दबाव नहीं होता। वह जब तक चाहे इस रिश्ते को परस्पर सहमति से बनाये रख सकती है और जब चाहे तब इसे तोड़ सकती है। यह रिश्ता समाज में निरंतर चल रहे उन अवैध संबंधों से भिन्न होता है जो पुरूष की सम्पन्नता या सबलता के आधार पर कोई महिला किसी लालच वासना या सुरक्षा की चाह में बनाती आयी है। लिव इन रिश्ते कमजोर महिलाओं द्वारा बनाये रिश्ते नहीं होते अपितु वे स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर महिलाओं द्वारा नारी को पुरूष की तुलना में दोयम न मानने की भावना को प्रतिध्वनित करने वाले रिश्ते हैं। ये रिश्ते अपढ अशिक्षित और कमजोर बुद्धि महिलाओं के रिश्ते नहीं हैं अपितु पढी लिखी बौद्धिक तथा अपना रोजगार स्वयं करने वाली महिलाओं के रिश्ते होते हैं। मेरी दृष्टि में सुप्रीमकोर्ट का उक्त फैसला लिव इन रिश्ते की मूल भावना पर आधात करता है क्योंकि लिव इन रिश्तों को यदि किसी समाज या कानून के आधार पर संचालित किया जाने लगेगा तो फिर वह अंतत: विवाह(बंधन) में ही बदल जायेगा जहाँ असहमति के कई खतरे होते हैं इसलिए सहमति को ऊपर से ओढ कर रहा जाता है। लिव इन रिश्ते को अपनानेवाली महिला को उस निर्बल महिला की तरह नहीं देखा जाता था जैसा कि अवैध संबधों में जीने वाली अपराधबोध से ग्रस्त महिला को देखा जाता रहा है क्योंकि लिव इन वाली महिला किसी संबंध को छुपा नहीं रही होती है, अपितु रूढियों से ग्रस्त समाज के प्रति विद्रोह का झंडा लेकर उनसे टकराने को तैयार खड़ी दिखती है।
कानून के अनुसार धनसम्पत्ति पर अधिकार केवल विवाहित महिलाओं को ही मिलना चाहिये क्योंकि वे मूलतय: कमजोर महिलायें हैं जबकि लिव इन रिलेशन वाली महिला कमजोर महिला नहीं होती। यदि हम अपने पुराणों की ओर देखें तो लिव इन रिश्ते की कुछ झलक दुष्यंत शकुंतला की कहानी में मिलती है जहाँ शकुन्तला न केवल दुष्यंत से अपने दौर का लिव इन (गंदर्भ विवाह) ही करती है अपितु अपने पुत्र को भी पैदा करती है व पालती है। वह दुष्यंत के पास भी पत्नी का अधिकार मांगने नहीं जाती है अपितु एक परिचित के पास मानवीय सहायता की दृष्टि से जाती है। दूसरी ओर दुष्यंत भी इस रिश्ते को दूर तक नहीं ले जाते इसलिए शकुतंला को लगभग भूल ही गये हैं। माना जाता है कि इसी रिश्ते से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।
यदि हम दुनियां में लिव इन रिशतों के जन्म के समय को जाँचने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि ये रिश्ते उस समय विकसित हुये जब परिवार नियोजन की जरूरत ने नारी को माँ बनने या न बनने का अधिकार दे दिया। पशुओं के विपरीत मनुष्यों के बच्चों को अपना भोजन स्वयं अर्जित करने की दशा तक आने के लिए लम्बे समय तक पालना पड़ता है व इस दौर में नारी को अति व्यस्त व कमजोर भी रहना पड़ता है जो उसकी परनिर्भरता को बढाता रहा है, पर जैसे ही वह मातृत्व से स्वतंत्र हुयी वैसे ही उसने नारी स्वातंत्र का झंडा थाम लिया। नारी स्वतंत्रता और नारी अधिकार के सारे आंदोलन इसी दौर में विकसित हुये हैं। पुरूषों ने भी इन रिश्तों में विरासत के अधिकार से मुक्त दैहिक संबंधों के कारण स्वयं को स्वतंत्र महसूस किया इसलिए इसे अपनाने में किसी तरह की हिचक नहीं दिखायी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूसरी ओर उस कमजोर विवाहित महिला के हितों पर भी आघात करता है जो केवल पति की धन सम्पत्ति के कारण कई बार अनचाहे भी वैवाहिक बंधन में बंधी रहती है। जब लिव इन रिश्तों वाली स्वतंत्र महिला उस परतंत्र महिला के सम्पत्ति के अधिकारों पर भी हक बनाने लगी तो वह महिला तो दो़नों ओर से लुटी महसूस करेगी। इसलिए इस अधिकार से उन महिलाओं को तो वंचित रखा ही जाना चाहिये जो शादीशुदा पुरूषों से लिव इन रिश्ता बनाती हैं। यदि लिव इन रिश्तों में भी उसी परंपरागत विवाह के मापदण्ड लागू रहे तो फिर लिव इन रिश्तों में भिन्नता कहाँ रही? यदि इस दशा में सुधार नहीं हुआ तो आपसी विश्वास को ही नहीं अपितु समानता की ओर बढ रहे नारी आदोलन का भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।
वीरेन्द्र जैन
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