गुरुवार, जनवरी 28, 2010

मुलायम की चिंता में ज्योति बसु का प्रधान मंत्री न बनने का फैसला

मुलायम की चिंता में ज्योतिबसु का प्रधानमंत्री न बनने का फैसला
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों देश के वरिष्ठतम नेताओं में से एक ज्योति बसु का 96 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लम्बे समय तक पोलित ब्यूरो सदस्य रहे और पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनके अस्सी वर्ष के बेदाग और समर्पित सक्रिय राजनीतिक जीवन में उनके किसी घनघोर विरोधी तक को उन पर उंगली उठाने का मौका नहीं मिला, जबकि वे दुनिया के इतिहास में सबसे लम्बे समय तक किसी चुनी हुयी सरकार के प्रमुख रहे। उनके निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित करनेकेलिये सभी को एक मंच पर आना स्वाभाविक था, और ऐसा हुआ भी।
वे अपनी पार्टी के अनुशासित सिपाही थे और अपनी सारी उपलब्धियों का श्रेय अपनी पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों को देते रहे थे। स्वाभाविक था कि ज्योति बसु को याद करते समय उनकी पार्टी की नीतियाँ और कार्यक्रम भी चर्चा में आयें इसलिये कुछ डिनर पार्टी नुमा पार्टी चलाने वाले नेताओं ने इस अवसर पर कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया जिनका स्पष्टीकरण अनेक बार दिया जा चुका था और एक सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी के अन्दर बहुमत से प्रस्ताव पास हो जाने के बाद उक्त विषय पर कभी कोई मतभेद सामने नहीं आया था।
अपने वित्तप्रबन्धक और राजनीतिक ताकत का सौदा करने वाले महासचिव द्वारा पद छोड़ दिये जाने से परेशान पहलवान मुलायम सिंह ने कहा कि यदि ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनने दिया गया होता तो देश का नक्शा कुछ और होता। उनका यह बयान असल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में उनकी समझ की कमी को दर्शाता है। सीपीएम कोई भाजपा नहीं है कि वोट लेने के लिये सिद्धांत बघारती फिरे और सता पाने के लिये सारे अनैतिक समझौते करने लगे। स्वयं मुलायम सिंह ने अमर सिंह की उंगलियों पर नाचते हुये अमेरिका से परमाणु समझौते पर एकदम से यू टर्न ले लिया था जबकि कुछ ही दिन पहले उन्होंने इसी समझौते के खिलाफ एक विशाल रैली में भाग लिया था। पिछले राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने अपने राजनीतिक गठबन्धन की उम्मीदवार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आज़ाद हिन्द फौज़ की केप्टन भारत रत्न डा. लक्ष्मी सहगल को समर्थन देने की जगह नरेन्द्र मोदी की पार्टी के उम्मीदवार मिसायल मेन को कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर समर्थन देना ठीक समझा था। ऐसा लगता है कि उनके पूर्व महासचिव द्वारा सार्वजनिक रूप से यह बताने के कारण कि उनके सीने में मुलायम सिंह के कई राज दफन हैं, मुलायम विचलित से हो गये हैं और असंगत बयानबाज़ी करने लगे हैं।
दरअसल पहलवान फिल्मी नायिकाओं, नायकों और उद्द्योगपतियों की चकाचौंध् से चमत्कृत और सौदेबाज़ी से एकत्रित पार्टी फंड के नशे में यह भूल गये हैं कि एक कैडर वाली पार्टी कैसे काम करती है। मुलायम सिंह स्वयं भी केन्द्रीय मंत्रि मण्डल के सदस्य रहे हैं और उन्हें पता ही होगा कि सरकार का कोई भी फैसला प्रधान मंत्री नहीं अपितु कैबिनेट की बैठक अपने बहुमत के आधार पर लेती है और सीपीएम जैसी वर्गीय सिद्धांत में विश्वास रखने वाली पार्टी अपने शत्रु वर्ग के फैसलों को अपने नाम से क्यों लागू करती क्योंकि उसके तो दो-तीन सद्स्य ही केबिनेट में आते। अम्बानियों को ढोने वाले मुलायम ही नहीं बाकी की सारी गैर बामपंथी पार्टियाँ अपने अपने आकाओं के हितों में फैसले लेने के लिये दबाव बनाते और सरकार का हाल वैसा ही होता जैसा कि तेरह दिन की अटल बिहारी की सरकार का हुआ था। सीपीएम ने गठबन्धन केवल भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को सत्ता से आने में रोकने के लिये बनाया था न कि सरकार बनाने के लिये। वे अगर चाहते तो पिछली यूपीए की सरकार में भी अपने चार केबिनेट मंत्री बनवा सकते थे पर लगातार समर्थन देते हुये भी उन्होंने स्वयं को सत्ता के चरित्र से दूर रखा जबकि परमाणु करार पर कांग्रेस से सौदा करने के बाद मुलायम सिंह पहली फुरसत में गृह मंत्री पद मांगने अमर सिंह के साथ पहुँच गये थे। सीपीएम ने चन्द्र शेखर के इस आरोप का कि वह ज़िम्मेवारी से भागती है तुरंत ज़बाब देते हुये कहा था कि अगर ज़िम्मेवारी से भागते होते तो बंगाल में लगातार तीस साल शासन नहीं चलाते।
एक प्रदेश में जातीय अस्तित्व रखने वाले मुलायम सिंह की खिसकती ज़मीन ने उन्हें विचलित कर दिया है और शायद रामायण की यह चौपाई उन्हें कुछ रास्ता दिखाये-
धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपत काल परखिये चारी

वीरेन्द्र जैन
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