मंगलवार, अप्रैल 12, 2011

अन्ना के अनशन से क्या हासिल हुआ?


अन्ना के अनशन से क्या हासिल हुआ!
वीरेन्द्र जैन
किसी बड़े और चमत्कारी परिवर्तन की उम्मीद पाल बैठे कुछ निराश लोगों का विचार है कि चार दिन की अखबारी सुर्खियों और मीडिया की सनसनी के बाद अन्ना हजारे के अनशन से जन्मा ज्वार उतर गया है। आइ पी एल, आदर्श सोसाइटी, कामनवैल्थ घोटाला, टू जी घोटाला, इसरो घोटाला, आदि आदि सैकड़ों घोटालों की ओर केन्द्रित हो गया ध्यान अब फिर से वैसे ही आइ पी एल जनित सतही उत्तेजना की ओर केन्द्रित हो जायेगा जैसे कि क्रिकेट के वर्ल्ड कप की उत्पादित उत्तेजना के नशे में कई करोड़ मध्यमवर्गीय लोग भ्रष्टाचार को भूल गये थे। अनन्त कालों तक चलने वाली जाँचों की तरह जन लोकपाल विधेयक बनने की तारीखें थोड़ा थोड़ा करके आगे खिसकती रहेंगीं और फिर किसी छेददार गुब्बारे की तरह का एक रंग बिरंगा कानून आ जायेगा जिसमें कभी भी हवा नहीं भरी जा सकेगी। वैसे भी भले ही लोगों ने मीडिया के आक्रामक प्रचार के वशीभूत टीवी कैमरों के सामने आकर भीड़ जुटा ली हो और मोमबत्तियां जला ली हों, किंतु इस दौरान एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिला कि भ्रष्टाचारी डर गये हों और जहाँ भी रिश्वतखोरी और कमीशन चलता है वहाँ किसी ने इसे लेने में संकोच किया हो। कानून उन्हें पास करना है जिन के ऊपर सारे आरोप हैं। सवाल यह है कि आखिर कोई अपना सलीब खुद क्यों बनायेगा। सलीब तो वह उन लोगों का बनायेगा जो उसको सलीब पर चढाने का भोला सा सपना पाले हुये हैं। कभी नेहरूजी ने भी कहा था कि सारे भ्रष्टाचारियों को बिजली के खम्भे पर लटका कर फ़ाँसी दे देना चाहिए। पर हुआ यह कि-
उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ
हमें यकीन हमारा कसूर निकलेगा
निराशावादी मित्रों की ये आशंकाएं किसी हद तक सही हो सकती है किंतु ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि अन्ना हजारे के अनशन से बिल्कुल भी कुछ हासिल नहीं हुआ। वैसे तो उन्होंने स्वयं भी माना है कि यह शुरुआत है, अभियान आगे चलेगा। आइए देखें कि अन्ना के आन्दोलन के अदृष्य हासिल क्या हैं-
• इस अभियान के द्वारा हमें पता चला है कि देश की जनता का भरोसा राजनीतिक दलों की तुलना में स्वच्छ छवि वाले सादगी पसन्द समाज सेवियों में अधिक है, और उनकी आशाएं वहीं टिकी हैं। यह इस बात का भी प्रमाण है कि हमारे चुनावी राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता समाप्तप्रायः है तथा उनसे किसी बदलाव की कोई उम्मीद वे नहीं रखते।
• यदि आवाहन किसी सच्चे सुपात्र का हो तो देश की एक बड़ी आबादी को अभी भी गान्धीवादी तरीके में भरोसा है, पर ऐसे भरोसेमन्द सुपात्र लोग कितने बचे हैं!
• कई बड़े राजनीतिक दल इतने खोखले हैं कि वे इस आन्दोलन की ताकत को पहचान कर अपना राजनीतिक हित साधने के लिए उसके इर्दगिर्द जुटने लगे थे और आन्दोलन के समर्थकों व नेताओं द्वारा उनसे दूर रहने को कहने के बाद भी अपने किसी एजेंट के माध्यम से जुड़े रहना चाहते थे। जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर पार्टी छोड़ देने, तोड़ देने के लिए जानी जाने वाली उमा भारती ने धरना स्थल से खदेड़े जाने के बाद भी अन्ना को पत्र लिख कर कहा कि वे फिर भी उनके साथ हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी से लेकर राज्य सरकारों के भ्रष्टतम मंत्री और नेता भी अन्ना को समर्थन देने के लिए विवश थे भले ही यदि यह विधेयक अमल में आ पाता है तो उनकी मुश्किलें बढ जाने वाली हैं और वे दिल से बिल्कुल भी नहीं चाहते कि यह विधेयक पास हो।
• इस आन्दोलन से देश में विपक्ष की भूमिका बदली हुयी नजर आती है। इस अनशन के दौरान भाजपा के गडकरी और संघ के मोहन भागवत को कई घंटों तक बाबा रामदेव से गोपनीय बात करने की जरूरत महसूस हुयी, जिससे आन्दोलन में रामदेव की हैसियत में कमी आयी। यही रामदेव पहले दो दिन तक धरना स्थल पर नजर नहीं आये। इससे आन्दोलन में उनकी भूमिका का पता चलता है। इसके बाद बाबा रामदेव ने कानूनी प्रारूप के लिए बनी समिति में उन्हें न लिये जाने पर किरन बेदी के नाम के बहाने आपत्ति उठाना शुरू कर दी।
• अन्ना एक धर्मनिरपेक्ष गान्धीवादी हैं। सामाजिक समस्याओं के बहाने साम्प्रदायिक राजनीति के लिए ज़मीन तैयार करने वाले लोगों को वे राजनीतिक लाभ नहीं उठाने देंगे और जब वे धर्म निरपेक्षता के ज्वलंत सवाल पर अपने विचार रखेंगे तब साम्प्रदायिक राजनीति अपने आप हाशिये पर चली जायेगी। ऐसे में तय है कि साम्प्रदायिक संगठन विधेयक में खामियां निकाल कर इसे पास होने में अड़चनें डालेंगे जैसे कि महिला आरक्षण विधेयक सबके मौखिक समर्थन के बाद भी अभी तक पास नहीं हो सका। इससे साम्प्रदायिक दलों के मुखौटे उतरेंगे।
• इस अनशन से मालूम चला है कि देश में कितने गैर सरकारी संगठन सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं और कितने कागजों पर काम कर रहे हैं। अगर वे सभी किसी मुद्दे पर एकजुट हो जायें तो कुछ हलचल पैदा कर सकते हैं, और सरकारों को जनहित में झुका सकते हैं।
• भले ही यह बिल उन्हीं जनप्रतिनिधियों के समर्थन से पास हो सकता है जिन पर सबसे अधिक आरोप हैं किंतु किसी भी दल का कोई भी व्यक्ति अब तक इसके खुले आम विरोध का साहस नहीं जुटा सका है। इससे उनके अपराध बोध का पता चलता है। रोचक यह भी है कि विधेयक को समर्थन की घोषणाओं के बाद भी किसी ने अपने दल के आरोपियों को दल से बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू नहीं की है। सारी जाँचें सरकारी स्तर पर चल रही हैं किंतु दलों के स्तर पर किसी ने भी जाँचें नहीं बैठायी हैं।
• इस अभियान में जहाँ संघ से सहानिभूति रखने वाले बाबा रामदेव भी सम्मलित हैं वहीं नक्सलवादियों से सहानिभूति रखने वाले स्वामी अग्निवेष भी सम्मलित हैं। यदि राजनीतिक दल बाद में विधेयक में किंतु परंतु लगा कर कन्नी काटते हैं तो परोक्ष में नक्सलवादियों को ही बल मिलने का खतरा सामने रहेगा।
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि इस अभियान ने अचेत पड़े देश और निर्द्वन्द होकर चर रहे राजनेताओं, नौकरशाहों के बीच एक हलचल पैदा की है, और यह हलचल कुछ न कुछ तो शुरुआत करेगी। ये मोमबत्तियां ही मशालों को जलाने का साधन भी बन सकती हैं। दुष्यंत कुमार ने कभी कहा था- एक चिनगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुयी बाती तो है

वीरेन्द्र जैन
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