शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2009

युवाओं के वैवाहिक अधिकार का सवाल

प्रो मटुकनाथ बर्खास्तगी प्रसंग
युवाओं के वैवाहिक अधिकार की सुरक्षा का सवाल
वीरेन्द्र जैन
हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक कानून और सामाजिक नैतिक नियम हमेशा एक ही दिशा में नहीं चलते इसलिए इनमें टकराव भी होता रहता है। अभी हाल ही में गौ हत्या, धर्म परिवर्तन, सगोत्र विवाह व प्रेम विवाहों पर कानून और जाति समाजों के बीच तीखे टकराव देखने को मिले हैं।ऐसे अवसरों पर गैर कानूनी रीति रिवाजों के पक्ष में खड़े जाति समाजों को कानून व्यवस्था तथा वोटों के लिए तरह तरह से समझौता करने वाले दल व उसके नेता न तो कानून के पक्ष में खुल के खड़े हो पाते हैं और ना ही पारंपरिक रीति रिवाजों को ही सही ठहरा पाते हैं।
कानूनन विवाह नितांत व्यक्तिगत मामला है किंतु इसमें जाति समाज का अनावश्‍यक हस्तक्षेप व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता रहता है। स्मरणीय है कि जो दल एक गठबंधन बना कर पूर्व राजे महाराजों के प्रिवीपर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त करने तथा आम आदमी के हित में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के खिलाफ खुल कर सामने आये थे व इन कदमों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों का हनन बता रहे थे वे ही सगोत्र विवाह के नाम खुले आम हत्याएं कर देने के सवाल पर मुँह में दही जमा कर बैठे रहे। इस अवसर पर उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्मरण नहीं आया अपितु केवल हरियाणा में आगामी विधान सभा चुनाव भर दिखाई दिया। जिन राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि बलात्कार और बेबेफाई को छोड़ कर औरत मर्द के सारे सम्बंध जायज हैं , उनके चेले न तो सगोत्र विवाह पर हत्याएं कर देने वालों के खिलाफ कुछ बोले और ना ही प्रो मटुकनाथ को बिहार में बर्खास्त कर देने के सवाल पर ही मुँह खोल सके जबकि बिहार में तो इन दिनों पक्ष और विपक्ष दोनों ही जगह समाजवादी पृष्ठभूमि से निकले लोग ही सक्रिय हैं।
उल्लेखनीय है कि गत 20 जुलाई 2009 को पटना विश्‍वविद्यालय के बी एन कालेज में हिन्दी विभाग के प्रो मटुकनाथ चौधरी को बर्खास्त कर दिया गया। वे गत तीन साल से निलंबित चल रहे थे जबकि विश्‍वविद्यालय के नियमों के अनुसार किसी भी परिस्तिथि में विश्‍वविद्यालय कर्मचारी को एक साल से अधिक समय तक निलंबित नहीं रखा जा सकता। यह निलंबन इसलिए लंबा खिंचा क्योंकि विश्‍वविद्यालय यह फैसला नहीं कर पा रहा था कि जिन कारणों से वे उन्हें हटाना चाहते हैं वे नियमों और कानून की दृष्टि से उचित नहीं हें। किंतु प्रेम को छूत का रोग मानने वाला विश्‍वविद्यालयीन प्रशाासन अपने परिवार की लड़कियों के प्रति चिंतित था और उन्हें छूत की बीमारी मान कर हटाना चाहता था। रोचक यह है कि ज्ञान के शिखर संस्थानों में बैठे इन लोगों ने उन पर ऐसे विरल आरोप लगाये कि उन पर कोई भी हँस सकता है व कोई भी न्याय करने वाला उन्हें खारिज कर सकता है।
स्मरणीय है कि हिन्दी साहित्य के प्रो ड़ा मटुकनाथ चौधरी द्वारा साहित्य पढाने के दौर में, जिसे मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान कहते थे, अपनी एक छात्रा का प्रेम पा बैठे जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। प्रो मटुकनाथ एक ईमानदार प्राध्यापक थे और जो लोग भी बिहार की विश्‍वविद्यालयीन राजनीति से परिचित हैं वे जानते हें कि वहाँ अधिकतर विभागों में पक्षपात जातिवाद सिफारिश, आदि के द्वारा हित साधन का काम खुले आम चलता है। एक बाहुबली प्रोफेसर ने कई अन्य लोगों के साथ मिलकर उन पर 'ए' ग्रेड देने का दबाव बनाया, पिस्तौल भी दिखायी, नारे लगवाये, तथा समारोह में पालतू छात्रों से उपद्रव कराया पर वे अपने निर्णय से नहीं हिले। ईमानदारी का अपना स्वाभिमान होता है। प्रोफेसर मटुकनाथ नियमित रूप से अपनी कक्षाएं ही नहीं लेते थे अपितु कमजोर छात्रों की अतिरिक्त कक्षाएं भी लेते थे। उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में कई गोष्ठियां व सेमिनार आयोजित हुये। उन्होंने कालेज की पत्रिका खोज निकलवायी और ऐसे कामों में अपना हाथ बनाने वालों को उससे दूर रखा। वे इसलिए उक्त शिक्षकों की आंख की किरकिरी बन बैठे किंतु जब उन्हें और कोई बहाना नहीं मिला तो उन्होंने बाहुबली छात्रों को उकसा कर व मीडिया को बुलाकर उनके मुंह पर कालिख मलवायी क्योंकि वे प्रेम पाने और उसका प्रतिदान देने के 'अपराधी' थे। रोचक समाचारों की भूखी मीडिया ने उनके मुख पर कालिख मले जाने के दृश्य ही प्रसारित नहीं किये अपितु इस विषय को लंबा खींचने के लिए विश्‍वविद्यालय में उनसे कई साक्षात्कार लिये। कई चैनलों ने तो इस विषय पर बहस भी आयोजित करवायी।
विश्‍वविद्यालय ने उन पर आरोप लगाया था कि बगैर प्राचार्य की अनुमति के बी एन कालेज परिसर में 11 जुलाई 2006 को बाहरी छात्रों को सम्बोधित किया जिनमें जूली नाम की एक महिला भी थी। मीडिया ने इस घटना को प्रसारित किया।
उत्तर देने के लिए उन्हें केवल एक दिन का समय दिया गया। उन्होंने उत्तर दिया कि मीडियाकर्मियों और बाहरी लोगों को कालेज परिसर में आने से रोकने का काम विश्‍वविद्यालय प्रशासन का है। जब वे वहाँ पहुंंचे तब भीड़ पहले से मौजूद थी इसलिए उसे न रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन की बनती है। उन्होंने कहा कि क्या शिक्षक के पास उनके मित्र नहीं आ सकते? रही छात्रों की बात तो उनकी कक्षा में डिस्टेंस एजूकेशन डायरेक्टरेट के कितने छात्र हमेशा से आते रहे हैं पर इससे पूर्व कभी कोई कार्यवाही नहीं हुयी।
अपने जबाब को प्रो मटुकनाथ ने विधिवत रिसीव कराया था किंतु कालेज प्रशासन ने विश्‍वविद्यालय को लिख कर दिया कि प्रो मटुकनाथ ने उत्तर ही नहीं दिया। परिणाम स्वरूप जाँच बैठायी गयी जिसने कुल मिलाकर दो आरोप गढे। पहला तो यह कि उन्होंने कालेज प्रशासन की अनुमति के बगैर छात्रों को और बाहरी लोगों को सम्बोधित किया और दूसरा अपना घर रहते हुये विश्‍वविद्यालय का फ्लैट आवंटित करवाया। उन्होंने तीसरा काम यह किया कि उन्हें 15 जुलाई 2009 से निलंबित कर दिया।
प्रो मटुकनाथ ने अपने अधिकारों के अर्न्तगत आरोपों के साक्ष्य और सम्बंधित कागजों की जानकारी चाही तो विवविद्यालय को जबाब देते नहीं बना। उन्होंने कोई कागज उपलब्ध नहीं करवाया।
सवाल यह है कि प्रेम और विवाह के संवैधानिक अधिकार के खिलाफ जाने वाले समाज के एक वर्ग को समझाइश देने के लिए क्या किया जा रहा है! जिन राधा कृष्ण, हीर रांझा लैला मंजनू, सोनी महिवाल, आदि की प्रेम कथाएं हमारे लोक साहित्य लोक नाटय, और फिल्मों की हजारों कथाओं की आधार भूमि हें और लाखों युवा लगातार उनसे प्रेरणा लेते रहते हैं तब उन व्यस्क युवाओं द्वारा लिए गये फैसलों के खिलाफ हत्यारों की कार्यवाहियों का उस तरह से विरोध क्यों नहीं किया जाता जिस तरह से किया जाना वांछित है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर से सती प्रथा, देवदासी प्रथा, बालविवाह, समेत अनेक कुप्रथाओं की वापिसी हो सकती है।
पता नहीं क्यों किसी भी आधुनिकतावादी प्रगतिशील राजनीतिक दल को यह जरूरी नहीं लग रहा कि युवाओं के वैवाहिक अधिकार को जाति समाजों की गिरफ्त से बाहर निकाला जाये व उनके लिए एक जाति और पंथ मुक्त पृथक समाज को गठित किया जाये जो उनके अधिकारों की रक्षा के लिए न केवल संगठित हो अपितु पुराने समाजों का मुकाबला भी करे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)
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