राजनीतिक दलों के सदस्यों की आचार संहिता होनी चाहिए
वीरेन्द्र जैन
गत दो दशकों के दौरान चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों और उनके परिवारीजनों के लिए कुछ उद्घोषणाओं को अनिवार्य करके बहुत अच्छा काम किया है जो हमारे लोकतंत्र की मूल भावनाओं को कार्यांवित करने की दिशा में मददगार हो रहा है। चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों को निर्वाचन फार्म भरते समय अपनी व अपने परिवार की कुल सम्पत्ति और देयताओं का विवरण देना तथा उन पर लम्बित आपराधिक प्रकरणों की जानकारी देना अनिवार्य किया है। इससे उम्मीदवार का चरित्र तो स्पष्ट हो ही जाता है, उसे टिकिट देने वाले दल का चरित्र भी उससे पता चल जाता है।
किसी राजनीतिक दल के टिकिट पर चुनाव लड़ने वाला कोई भी उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में अपने दल का प्रतिनिधित्व करता है तथा उसे जिताने में उसके दल के सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक मान्यता प्राप्त दल के चुनाव में सक्रिय सदस्यों की भी वैसी ही पारदर्शिता हो जैसी कि उम्मीदवार के लिए जरूरी होती है। देखा गया है कि बामपंथी दलों को छोड़कर अधिकांश राजनीतिक दलों में सदस्यों के लिए कोई भी आचार संहिता घोषित नहीं है, व जहाँ घोषित है वहाँ वह व्यवहार में नहीं लायी जाती। भूखे को रोटी की तरह जो भी आकर सदस्यता माँगता उसे ये राजनीतिक दल लपक लेते हैं और सेवक बनाने की कोशिश करते हैं पर इन्हीं में से कोई कोई गुरू निकल आता है और चूना लगा देता है। जो उम्मीदवार किसी मामले में बंगारू लक्षमण जैसा बहुत बदनाम हो जाता है तो उसकी पत्नी या बेटे-बेटी को टिकिट दे दिया जाता है। ऐसे में बदनाम व्यक्ति के ऊपर चल रहे प्रकरणों की घोषणा जरूरी नहीं होती। अब जब महिला आरक्षण विधेयक और गम्भीर अपराधों के आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने का कानून पास होने वाला है तो ऐसे मामले और अधिक संख्या में सामने आयेंगे। मध्य प्रदेश में तो कई पार्टियों में रहे एक बदनाम सामंत की जगह भाजपा ने उसकी पत्नी को टिकिट दे दिया, बाद में जाँच में वह भी हत्या के आरोप में सहयोगी पायी गयी जो कुछ दिन फरार रही और कुछ दिन जेल में, पर विधायकपति अभी भी जेल में है, और विधायक अभी भी पार्टी में है।
यह बात बार बार सामने आ रही है कि चुनावों में असामाजिक तत्व अपनी भूमिका से जन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति को भटका देते हैं और अवैध ढंग से धन कमाने वाले चुनाव में धन के प्रवाह से चुनाव परिणामों की दिशा को बदल देते हैं। ये ही लोग चुनाव के बाद अपनी भूमिका के पारश्रमिक के रूप में सरकार से अनुचित लाभ लेने का दबाव बनाते हैं और नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए सत्ता पक्ष के नेताओं को भ्रष्ट बनाते हैं। इसलिए भी यह जरूरी है कि जो भी चुनाव प्रक्रिया से जुड़े हों उनका चरित्र और उन्हें अपने साथ रखने वालों का चरित्र नेट पर उपलब्ध हो। परोक्ष में कह सकते हैं कि लोकतंत्र में जो राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं और देश चलाने की जिम्मेवारी निभाते हैं उनके सदस्यों के चरित्र और आचरण की जिम्मेवारी लेने वाला भी कोई होना चाहिए, अर्थात सारे राजनीतिक दल केडर आधारित होना चाहिए।
यह खेद का विषय है कि केन्द्र में कई सरकारें बदल जाने के बाद भी 5 दिसम्बर 1993 को पूर्व गृह सचिव एन एन व्होरा की अध्यक्षता में गठित व्होरा कमेटी की रिपोर्ट लोकपाल बिल की तरह ही कई दशकों से धूल खा रही है। “इस रिपोर्ट में कहा गया था कि-
“देश में अपराधी गिरोहों, हथियार बन्द सेनाओं, नशीली दबावों का व्यापार करने वालों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक अपराधों में सक्रिय लाबियों का बड़ी तेजी से प्रसार हुआ है। इन लोगों ने विगत वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों, राजनेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक सम्पर्क विकसित किये हैं। इनमें से कुछ सिंडीकेटों की विदेशी सूचना एजेंसियों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रिय संबन्ध भी हैं। बिहार हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है।“
गत दिनों भोपाल में सीबीआई ने छापा मारकर एक बिल्डर के यहाँ से कुछ कागजात जब्त किये हैं, इन से पता चलता है कि उक्त बिल्डर ने एक बैंक के मैनेजर से मिलकर छद्म ऋणी और काल्पनिक प्लाट के झूठे कागज तैयार करके करोड़ों रुपयों के लोन ले लिये। आरोपी दो सत्तारूढ विधायकों के बहुत निकट था और मौके बेमौके उन्हीं के साथ देखा जाता था। विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं के साथ इस आरोपी का सत्तारूढ पार्टी के अध्यक्ष और एक विधायक ने पिछले दिनों ही एक समारोह में सम्मान किया था। यह एक अकेला मामला नहीं है सत्तारूढ दल के अधिकांश नेता अपने साथ जो समर्थकों की फौज रखते हैं, जिन्हें आम बोलचाल में उनके चमचे कहा जाता है, वे भी नेता के यहाँ चौबीस घंटे के बँधुआ होते हैं और उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। इसके बदले में उन्हें जहाँ से भी बन पड़े मुँह मारने की छूट दे दी जाती है। किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा उनके काम में बाधा उपस्थित करने पर नेताजी अपने प्रभाव का स्तेमाल करके उस पर दबाव बना देते हैं। सत्तारूढ नेताजी के जन्मदिन पर अखबारों में उनके फोटो के साथ जो विज्ञापन छपते हैं और उसमें विज्ञापन दाता की फर्म के नाम सहित उसका फोन नम्बर भी दिया रहता है वह परोक्ष में उसके दलाल होने की सूचना होती है और सम्पर्क के लिए नम्बर छपवाया जाता है। जो नेता सत्ता से बाहर हो जाता है उसके जन्मदिन की शुभकामनाओं के विज्ञापन भी अखबारों में नहीं छपते। यह किया जा सकता है कि नेताओं, मंत्रियों के साथ रहने वाले यदि किसी अपराध में सम्मलित पाये जाते हैं तो उनका दल अपनी मान्यता बचाने के लिए उन पर नैतिक जिम्मेवारी डाले और एक सुनिश्चित समय तक उनको कोई पद न देने की कार्यवाही करे।
पिछले दिनों भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना हजारे के अनशन, और मीडिया द्वारा उसके व्यापक कवरेज से जो माहौल बना है वह जिन्दा बना रहना चाहिए और ऐसी सभी संस्थाओं में पल रही विकृतियों को निशाने पर लिया जाना चाहिए जिनसे भ्रष्टाचार जन्म लेता है। चुनाव सुधारों से भी पहले सर्वसम्मति से राजनीतिक दलों के सदस्यों की आचार संहिता बनाना जरूरी होना चाहिए। यह कितना बिडम्बना पूर्ण है कि सारे ही दलों ने भ्रष्टाचार के विरोध का समर्थन किया किंतु इस दौरान किसी ने भी अपने दल के अन्दर पल रहे भ्रष्टों को तलाशने की कोशिश नहीं की और निकल बाहर करने की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं की। ऐसे दल संसद में चाहे जितना शोर करें और संसद की कार्यवाही को कितनी भी वाधित करें, पर उनसे किसी सकारात्मक कार्यवाही की उम्मीद बेकार होगी।
वीरेन्द्र जैन
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