मुल्जिम और मुंसिफ
का भेद मिटाती बयानबाजी
वीरेन्द्र जैन
जब से मोदी सरकार द्वारा अपनी लोकप्रियता की कमी को दूसरे संवेदनशील मुद्दों
से दबाये जाने की कोशिशें हुयीं हैं तब से राम जन्मभूमि वाले मामले को दुबारा से उभार
दिया गया है। शायद यह संयोग ही हो कि सीबीआई द्वारा बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के
आरोपियों के खिलाफ अपील पर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनः सुनवाई का आदेश दिया
है। इसी दौरान उत्तर प्रदेश में राम जन्मभूमि अभियान से जुड़े योगी आदित्यनाथ के
मुख्यमंत्री बन जाने से इसका विवाद नया रूप ले चुका है। सुब्रम्यम स्वामी की जल्दी
सुनवाई की अपील पर तो सुप्रीम कोर्ट ने पूछ ही लिया है कि- आप कौन? यह बात अलग है
कि अदालत के बाहर मामले को सुलटा लेने की सलाह पर इस बड़ी अदालत की मीडिया में बहुत
आलोचना हुयी है।
बाबरी मस्जिद ध्वंस के मामले की पुनर्सुनवाई पर जहाँ प्रमुख अभियुक्तों में से
लालकृष्ण अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पार्टी के मार्गदर्शक लोग चुप हैं वहीं
उमा भारती बेचैन हैं और उस बेचैनी में बेतरतीब बयानबाजी कर रही हैं। उन्होंने कहा
है कि राम मन्दिर के लिए मैं फाँसी पर चढने के लिए तैयार हूं। यह बयान भले ही भक्त
किस्म के भावुक लोगों में कुछ साम्प्रदायिक उत्तेजना पैदा करे किंतु तथ्यात्मक रूप
से बहुत असंगत है। किसी भी आरोप पर सजा तय करने का अधिकार आरोपी को नहीं होता है
अपितु आरोप साबित हो जाने पर कानून के अनुसार उसकी सजा अदालत ही तय करती है, और
उसे स्वीकार करने, न करने जैसा कोई विकल्प नहीं होता। राम मन्दिर का निर्माण कोई
अपराध नहीं है और उसके लिए फाँसी तो क्या किसी भी तरह की सजा का कोई कानून नहीं
है। देश और अयोध्या में हजारों राम या जानकी मन्दिर हैं। राम मन्दिर निर्माण का
कोई मुकदमा भी किसी अदालत में नहीं चल रहा है। जो मुकदमा चल रहा है वह भूमि के
स्वामित्व का मुकदमा है। उल्लेखनीय है कि जिस स्थान पर 6 दिसम्बर 92 को तोड़ी गयी मस्जिद
स्थित थी उस पर ही एक वर्ग का कभी राम जन्मभूमि मन्दिर होने का विश्वास रहा है।
उनका मानना है कि उक्त मन्दिर को तोड़ कर ही बाबर ने मस्जिद बनायी थी। कई सौ साल के
इस विवाद में आजादी के बाद 1949 में एक रामभक्त कलैक्टर नायर ने रात्रि में मूर्ति
रखवा दी। उल्लेखनीय है कि यह कलैक्टर बाद में भारतीय जनसंघ से चुनाव लड़ कर सांसद
बने थे तथा उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सांसद बनीं। तब से ही उस सम्पत्ति पर
अधिपत्य का मुकदमा चलता रहा है। उस स्थल का ताला खोलने का आदेश भी उस न्यायाधीश ने
दिया था जिसकी रामभक्ति की चर्चा यह थी कि अयोध्या भूमि में प्रवेश करते ही वे कार
ही में अपने जूते उतार लेते थे और अयोध्या नगर में नंगे पैर चलते थे, क्योंकि वे राम
की नगरी में जूते पहिन कर चलने को पाप समझते थे। इस सब के बीच में भाजपा ने
रथयात्राएं निकाल कर उस इमारत को ध्वंस के लिए धर्मभीरुओं को भावुक किया और भीड़
एकत्रित कर उसे तोड़ दिया। इस उकसावे में भाजपा के सभी नेताओं की भूमिका रही जिसमें
प्रमुख भूमिका अडवाणी, उमाभारती, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, [दिवंगत] विजया
राजे सिन्धिया आदि की मानी गयी। उत्तेजक नारों वाली इस यात्रा के परिणाम स्वरूप
देश भर में दंगे हुये, जिससे उपजे ध्रुवीकरण का लाभ भाजपा को मिला और वे संसद में
दो से दो सौ तक पहुँच गये। इस ध्रुवीकरण का सीधा लाभ काँग्रेस और समाजवादी पार्टी
ने भी उठाया और बिना किसी राजनीतिक कार्य के उन्हें आतंकित और क्रुद्ध मुसलमानों
के वोट थोक में मिलने लगे व जनता की समस्याएं चुनावी एजेंडों से बाहर होती गयीं। मस्जिद
ध्वंस की जाँच के नाम पर लिब्राहन आयोग बैठाया गया जिसने उठने की जरूरत ही नहीं
समझी और जिसे लगभग तीस बार समय विस्तार दिया गया।
लिब्राहन आयोग ने जब जाँच के दौरान सम्मन भेजे तो लम्बे समय तक उन्हें टाला
गया, और जब उपस्थिति दी तो उमा भारती के उत्तरों का नमूना ही पूरी कहानी अपने आप
कह देता है। जब आयोग ने पूछा कि 6 दिसम्बर के दिन क्या हुआ था तो बचपन में ही राम
चरित मानस कंठस्थ कर लेने की प्रतिभा वाली उमा भारती का उत्तर था कि उन्हें कुछ
याद नहीं है कि क्या हुआ था। दूसरी बार जब आयोग ने उनसे पूछा कि मस्जिद किसने तोड़ी
तो उनका उत्तर था कि भगवान ने तोड़ी। जब आयोग की समझ में आ गया कि कोई नहीं चाहता
कि वह अपनी रिपोर्ट दे तो उसने भी इस संवेदनशील मुद्दे को कोर्ट की तरह समय देकर
समाधान वाला रास्ता अपनाना जरूरी समझा।
अब उमा भारती बाबरी मस्जिद के नाम से खड़े विवादास्पद ढाँचे को तोड़े जाने की
सुनवाई को राम मन्दिर निर्माण से बदल कर बता रही हैं व कृत्य के लिए संभावित सजा
को फाँसी की सजा बता कर भावुक भक्तों पर भावनात्मक दबाव बना रही हैं। वे भाजपा की
राजनीति में सबसे अलग और दुस्साहसी महिला हैं, जो भाजपा की संरक्षक विजया राजे
सिन्धिया द्वारा आग्रह कर पार्टी में लायी गयीं थीं। उन्हें औपचारिक शिक्षा ग्रहण
करने का अवसर नहीं मिला किंतु उन्होंने अपने प्रयास से कई भाषाएं और राजनीति सीखी।
कभी भाजपा के थिंकटैंक माने जाने वाले गोबिन्दाचार्य को गुरु बना कर उन्होंने
राजनीतिक ज्ञान प्राप्त किया। स्वभाव से मुखर और ज़िद्दी होने के कारण उन्हें
चापलूसी करना सख्त नापसन्द है। यही कारण है कि भाजपा में न तो कोई कद्दावर उनका
मित्र है और न ही वे किसी कद्दावर की मित्र है। सुषमा स्वराज से उनकी
प्रतिद्वन्दिता को सब जानते हैं। अरुण जैटली के कारण ही उन्होंने अटल- अडवाणी को
प्रैस के सामने ही खरी खोटी सुनायी थीं, और बाद में नई पार्टी बनायी थी। वैंक्य्या
नायडू को उन्हीं के कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा था।
सुन्दरलाल पटवा से उनकी दुश्मनी जग जाहिर रही है, यही कारण रहा कि पटवा जी के
पट-शिष्य शिवराज सिंह से उनकी कभी नहीं पटी। बाबूलाल गौर को उन्होंने ही यह सोच कर
मुख्यमंत्री बनवाया था कि समय आने पर कुर्सी छोड़ देंगे पर जब उन्होंने उनके कहने
पर त्यागपत्र नहीं दिया तो वे उनके विरुद्ध हो गयीं व बार बार वादा तोड़ने वाली पार्टी
से निराश हो गयीं। कैलाश जोशी का टिकिट
कटवा कर उन्होंने भोपाल से लोकसभा सीट का टिकिट प्राप्त किया था। कभी नरेन्द्र
मोदी को विकास पुरुष की जगह विनाश पुरुष बतलाया था। संघ के सुरेश सोनी जैसे कुछ
वरिष्ठ पदाधिकारी भी उनसे खुश नहीं रहते क्योंकि दूसरे नेताओं की तरह उन्होंने खुश
रखने की राजनीति नहीं की। दिग्विजय सिंह के मानहानि वाले प्रकरण में उन्हें छोड़ कर
शेष नेता समझौता कर गये हैं, किंतु उन्होंने अपने स्वाभिमान को बचा कर रखा।
शायद उन्हें फिर खतरा लग रहा होगा कि भाजपा नेतृत्व उन्हें अकेला छोड़ कर कहीं
अपनी अपनी मुक्ति का रास्ता न तलाश ले। हो सकता है कि ऐसी दशा में वे फिर वैसा ही
बयान देकर सबको कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करें जैसा कि उन्होंने दिग्विजय सिंह
मानहानि वाले मामले में दूसरे नेताओं के समझौते के बाद दिये बयान में किया था। भले
ही लक्ष्मीकांत शर्मा वरिष्ठों को बचाने के अपने बयान से आगे नहीं गये हों, किंतु
साध्वी वेष में रहने वाली उमा भारती शायद चुप न रहें। आखिर शिवराज सिंह चौहान के
तेज विरोध के बाद भी भाजपा को उन्हें वापिस लेना पड़ा था, और मोदी को कैबिनेट मंत्री भी बनाना पड़ा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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