सोमवार, नवंबर 06, 2017

भारतीय राजनीति में विलीन होते ध्रुव

भारतीय राजनीति में विलीन होते ध्रुव
वीरेन्द्र जैन
भारतीय राजनीति एक विचित्र दशा को प्राप्त हो गयी है। यह एक ऐसा गोलाकार पिंड हो गई है जिसमें कहीं ध्रुव नजर नहीं आता। यद्यपि हमारे बहुदलीय लोकतंत्र में यह दोध्रुवीय तो पहले से ही नहीं थी किंतु दुनिया में आदर्श लोकतांत्रिक बताये जाने वाले देशों में विकसित हुयी व्यवस्था की तरह हम लोग भी अपने लोकतंत्र को वैसा ही देखने के आदी हो गये थे। हमारा देश विभिन्न भौगोलिक अवस्थाओं, मौसमों, फसलों, भाषाओं, वेशभूषाओं, आस्थाओं, रीतिरिवाजों, जातियों, रंगों, शाषकों, आदि में विभाजित रहा है। इस क्षेत्र में हुए आक्रमणों और आक्रामकों की विस्तारवादी नीतियों ने इसे आज के इस भौगोलिक व राजनीतिक स्वरूप में ढाला है। हमारी एकरूपता गुलामी से पीड़ितों की एकता थी।
हमारी एकता का पहला पड़ाव हमारी एक साथ होने वाली मुक्ति थी जिसमें हमारे सम्मलित प्रयास के साथ साथ हमें गुलाम बनाने वाली शक्तियों का कमजोर पड़ना भी एक बड़ा कारण बना। एक साथ मुक्ति के बाद ही हमने एक होने और एक बने रहने के तर्कों की तलाश की जिस हेतु भौगोलिक सीमाओं, इतिहास, और पौराणिक कथाओं समेत धार्मिक विश्वासों तक का सहारा लिया। राष्ट्रीय पूंजीवाद ने भी इसमें अपनी भूमिका निभायी। जब पश्चिम के राजनीतिक विश्लेषक हमारी आज़ादी को ट्रांसफर आफ डिश अर्थात खायी गयी थाली के शेष हिस्से को हमारी ओर सरकाना बताते हैं तो वे बहुत गलत नहीं होते हैं।
जिन्होंने उस समय इस एकता पर गम्भीर असहमतियां प्रकट कीं थीं उनमें से एक ने अपना अलग देश बना लिया और दूसरे अर्थात अम्बेडकरवादी असहमत होते हुए भी साथ रहे, जिसके बदले में उन्हें अपनी तरह से देश का संविधान गठित करने में प्राथमिकता मिली। कश्मीर के राजा और जनता ने स्पष्ट रूप से पाकिस्तान और हिन्दुस्तान से बराबर की दूरी बनाना चाही किंतु जब पाकिस्तान ने बलपूर्वक उसे हथियाना चाहा तो उसे हिन्दुस्तान के साथ आना पड़ा व दोनों ओर से कुछ शर्तों के साथ समझौता हुआ। ऐसी विविधताओं के बीच विभाजन के दौरान हुयी हिंसा से पीड़ित एक वर्ग ऐसा था जो कठोर सच्चाइयों को समझने की जगह विवेकहीन भावोद्रेक से देश चलाने की बात कर रहा था। तत्कालीन राजे रजवाड़े भी अपना राज्य देने में सहज नहीं थे और उनमें से अनेक अब तक अपने प्रभाव क्षेत्र से विधायिका में सम्मिलित होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास में बाधा बनते रहते हैं। ऐसे नये राज्य को एक इकाई की तरह संचालित करना बहुत कठिन काम था जिसके लिए गाँधीजी ने पटेल की जगह नेहरूजी को जिम्मेवारी देने का बहुत सोचा समझा सही फैसला किया था।
जैसे जैसे परतंत्रता की साझी पहचान मिटती गयी वैसे वैसे व्यक्तियों, जातियों, वर्गों, क्षेत्रों, की सोयी पहचान उभरती गयी। परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता के लिए काम करने वाली काँग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व क्रमशः कमजोर होता गया जिसका स्थान कम्युनिष्टों, और समाजवादियों जैसे राजनीतिक दलों को लेना चाहिए था किंतु 1962 में चीन के साथ हुआ सीमा विवाद और 1965 में कश्मीर की नियंत्रण रेखा के उल्लंघन का असर देश के आंतरिक सम्बन्धों पर भी पड़ा। कम्युनिष्टों के यथार्थवाद पर लुजलुजी भावुकता भारी पड़ गई और पाकिस्तान के साथ होने वाले युद्ध ने विभाजन के समय पैदा हुयी साम्प्रदायिकता को उभार दिया। इसमें अमेरिका ने भी परोक्ष भूमिका निभायी ताकि शीतयुद्ध के दौर में नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति को पलीता लगाया जा सके। सत्ता के उतावलेपन ने समाजवादियों को कहीं गैरकाँग्रेसवाद के नाम पर सामंती, साम्प्रदायिक शक्तियों को आगे लाने की भूल कर दी तो कहीं उन्होंने हिन्दी का आन्दोलन भी चलवा दिया जिससे गैरहिन्दी भाषी क्षेत्र उनसे सशंकित हो गये। पिछड़ी जातियों के पक्ष में उठाये गये उनके आन्दोलनों के पीछे काँग्रेस के पक्ष में दलितों के एकजुट होने का मुकाबला करना अधिक था। पिछड़ों के पिछड़ेपन में जो वैविध्य था उसका ठीक से अध्ययन करने की जरूरत नहीं समझी गयी इसलिए वह जातिवादी वोट बैंक में बदलता गया और इस नाम पर उभरे विभिन्न पिछड़ी जतियों के विभिन्न समूह बने व समय समय पर गैर राजनीतिक आधार पर विभिन्न दलों से जुड़ते रहे। एक पिछड़ी जाति दूसरे से मुकाबला करने लगी। जनसंघ के नाम से उभरे दल ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद को मिलाकर साम्प्रदायिकता और स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास से पैदा देशप्रेम का घालमेल किया। इसके पीछे एक संगठित दल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था जिसे विभाजन के कारण शरणार्थी बने लोगों और मुसलमानों की हिंसा से भयाक्रांत समूहों का समर्थन प्राप्त था। काँग्रेस भी उन्हें इतनी परोक्ष सहायता करती रहती थी ताकि उनसे आशंकित मुसलमान उसके अपने ही वोट बैंक बने रहें। कालांतर में कांसीराम द्वारा उत्तर भारत में काँग्रेस के दलित वोट बैंक को अलग कर दिया और उसके सहारे उथल पुथल करने से लेकर मायावती कल में वोटों की सौदेबाजी तक राजनीतिक प्रभाव डाला। मण्डल कमीशन ने यादव, जाट, और कुर्मियों के नेता पैदा किये व राजनीतिक चेतना के सम्भावित विकास को नुकसान पहुँचाया। धन के सहारे भाजपा ने दलबदल को प्रोत्साहित किया, व सत्ता में जगह बनाते गये, व हर तरह की संविद सरकारों में घुसपैठ करके सत्ता के प्रमुख स्थानों व भूमि भवनों को हथियाते गये। राम जन्मभूमि विवाद को भुनाकर बड़ा साम्प्रदायिक विभाजन कराया व स्वयं को देश के सबसे बड़े हिन्दूवादी दल के रूप में स्थापित कर लिया। काँग्रेस के कमजोर होते ही क्षेत्रीय दलों का उद्भव होता गया व जो बीज रूप में थे उनका विकास होता गया। डीएमके, एआईडीएमके, बीजू जनता दल, तृणमूल काँग्रेस, तेलगुदेशम, टीआरएस, शिवसेना, उत्तरपूर्व के राज्यों के छोटे मोटे दल, अकाली दल, नैशनल काँफ्रेंस, पीडीपी व समाजवादियों के टुकड़ों से बने दर्जनों दल, उभरते गये जिनमें समाजवादी पार्टी, इंडियन नैशनल लोक दल, आरजेडी, जेडीयू, जनता पार्टी, वीजू जनता दल आदि हैं। इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद काँग्रेस और बिखरती गयी तथा नैशनलिस्ट काँग्रेस पार्टी, तृणमूल काँग्रेस, वायएसआर काँग्रेस, आदि बनती चली गयीं। काँग्रेस सत्तासुख का नाम बनता गया और जिसको जहाँ सुविधाजनक लगा उसने वहाँ अपनी पार्टी बना ली या तत्कालीन सत्तारूढ दल में सम्मलित होता गया। इस शताब्दी के दूसरे दशक में भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने ध्यान आकर्षित किया और तेजी से उम्मीदें जगायीं किंतु दिल्ली में जीत के साथ ही उनके मतभेद ऐसे उभरे कि उनकी चमक धुल गयी और विकल्प के रूप में सामने आने का सपना चूर चूर हो गया। वामपंथी देश के दो कोने पकड़े रहे किंतु शेष देश में केवल बुद्धिजीवी की तरह ही पहचाने गये। यांत्रिक रूप से किताबी वर्ग विभाजन को ही शिखर पर रखते हुए वे दूसरे वर्ग भेदों की उपेक्षा करते रहे इसलिए जमीनी पकड़ नहीं बना सके।  
संघ के अनुशासन से जन्मी भाजपा द्वारा सत्ता के सहारे देश के सैन्य बलों पर अधिकार करना प्रमुख लक्ष्य था जिसके लिए काँग्रेस का कमजोर होना प्रमुख अवसर बना। उसने न केवल साम्प्रदायिक विभाजन, का सहारा लिया अपितु कार्पोरेट घरानों को उसके सत्ता प्रोजेक्ट में धन लगा कर अधिक लाभ के सपने भी दिखाये। उन्होंने इसके लिए बाज़ार में उतर चुके मीडिया को पूरी तरह खरीद कर अलग परिदृश्य ही प्रस्तुत कर दिया। प्रत्येक दल के महत्वपूर्ण नेता को उसकी हैसियत के अनुसार प्रस्ताव दिया और सम्मलित कर लिया। सेना, पुलिस, नौकरशाह, कलाकार, पूर्व राज परिवारों के सदस्य, जातियों के नेता, साधु संतों की वेषभूषा में रहने वाले लोकप्रिय लोग, खिलाड़ी, या अन्य किसी भी क्षेत्र के लोकप्रिय लोगों की लोकप्रियता को चुनावी लाभ के लिए स्तेमाल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बहुदलीय लोकतंत्र में विरोधी वोटों के बँटवारे से जो लाभ मिलता है उसके लिए विरोधी दलों में भी परोक्ष हस्तक्षेप करवाया। इन सबके सहारे उनका सत्ता पर नियंत्रण है किंतु झाग उठाकर जो बाल्टी भरी दिखायी गयी थी उसका झाग बैठना भी तय रहता है। यह झाग बैठना शुरू हो चुका है और इसे झुठलाने का इकलौता रास्ता सैन्य बलों के सहारे इमरजैंसी जैसी स्थिति लाना ही होगा, क्योंकि सक्षम विकल्प उभरता दिखायी नहीं देता।
नरेन्द्र मोदी अपनी पार्टी में भी सर्वसम्मत नेता नहीं थे क्योंकि उनका प्रशासनिक इतिहास बहुत लोकतांत्रिक नहीं था। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए कार्पोरेट घरानों को दी गयी सुविधाओं और भविष्य की उम्मीदों ने उन्हें राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करवाया था, और चुनावी प्रबन्धन के सहारे शिखर तक पहुँचने में कामयाब हो गये, किंतु किये गये वादों का कार्यान्वयन नहीं कर सके। अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने तत्कालीन सरकार और नेताओं पर जो गम्भीर आरोप लगाये थे उन्हें भी वे साबित नहीं कर सके व किये गये अतिरंजित चुनावी वादे पूरे करने की जगह उसकी पिछली सरकारों के कार्यकाल से ही तुलना करते रहे। नोटबन्दी और जीएसटी जैसी योजनाएं इस तरह से कार्यांवित की गयीं कि परेशानियां तो सामने आयीं किंतु जनता को लाभ कहीं दिखायी नहीं दिया।    
सच यह है कि भारतीय राजनीति में कोई ध्रुव नजर नहीं आता।
वीरेन्द्र जैन
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