यादों के झरोखे से – बालकवि वैरागी
वे आम आदमी के लिए, आम आदमी के कवि, और आम आदमी
रहे
वीरेन्द्र जैन
बाल कवि वैरागी हिन्दी के उन शिखर कवियों
में से एक थे जिन्होंने मंच के माध्यम से हिन्दी कविता को जन जन के बीच बचाये रखा।
वैसे तो हिन्दी कवि सम्मेलन पहले भी हुआ करते थे जिनमें हिन्दी भाषा को कठिन बनाने
वाले कवि कविता के बहाने अपनी प्रतिभा का आतंक जमाने की कोशिश करते थे। यों तो
काँग्रेस और कम्युनिष्ट पार्टियों के सम्मेलनों में राजनीतिक विचार को छन्द में
बदलने और काव्य में ढालने के प्रयास पहले भी होते रहे हैं किंतु वे अपने अपने
क्षेत्रों तक ही सीमित थे। आदरणीय हरिवंशराय बच्चन और नीरज जी जैसे कवि हिन्दी में
उर्दू की काव्य परम्परा को लेकर आये थे और लोकप्रिय हुये थे। एक सीमित क्षेत्र में
बलवीर सिंह ‘रंग’, गोपाल सिंह नेपाली, मुकुट बिहारी सरोज भी लिख रहे थे किंतु मंच
और उन पर जगह कम होने के कारण उनकी लोकप्रियता उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं हो सकी
थी।
यह 1962 का भारत चीन सीमा विवाद था जिसे
हम लोग चीन के हमले के रूप में जानते हैं, जब जनता में राष्ट्रीय चेतना जगाने के
लिए देश भर में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कवि सम्मेलन आयोजित हुये और इन कवि
सम्मेलनों में कवि के रूप में ख्यात साहित्यकार बुलाये जाने लगे। इनमें से जो लोग
कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा कर रहे थे उनमें बालकवि बैरागी का नाम प्रमुख था। उनका
कहना था कि वे उस जाति से सम्बन्ध रखते हैं जो मालवा क्षेत्र में गा गा कर घर घर
मांग कर अपना जीवन यापन करती रही है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम
रखा “ मंगते से मिनिस्टर तक”। यह परम्परा पुराने समय के चन्दबरदाई से जुड़ती है जो
अपनी बुलन्द आवाज और वीर रस की कविताओं से सैनिकों में जोश भरने का दायित्व निभाते
थे। वैरागी जी को बुलन्द आवाज और नि:संकोच अभिव्यक्ति विरासत में मिली थी व शिक्षा
ने उन्हें आधुनिक कविता की समझ और विषय दिये थे जिसे मंचीय सफलताओं ने परवान
चढाया। जब वे टेर लगा कर गाते थे –
जब कि नगाड़ा बज ही चुका है सीमा पर शैतान का
नक्शे पर से नाम
मिटा दो पापी पाकिस्तान का
या
आओ रे अंगारो, आओ रे अंगारो, माना आग लगाओ रे अंगारो मावस के अँधियारों में
या
आओ रे अंगारो, आओ रे अंगारो, माना आग लगाओ रे अंगारो मावस के अँधियारों में
लेकिन आग लगा मत देना, पूनम के उजियारों में
......... आओ रे अंगारो .... आओ रे अंगारो
तो ऐसा लगता था कि दिशाएं गूंजने लगी हैं, और हर
तरफ से प्रतिध्वनि सुनायी दे रही है। जब भी मंच से बुलन्द कविता पढी जाती है तो श्रोताओं
के बीच कोई सुगबुगाहट नहीं पैदा हो पाती, इसलिए सुनी जाती है। वैरागीजी भी जब
कविता पढते थे तो उस समय समारोह में केवल वे ही होते थे। यही कारण रहा कि वे देश
के कविता मंचों की सबसे जोरदार आवाज बन गये व इन मंचों के माध्यम से अपनी बात कहने
वालों के लिए मानक बनाते चले गये। उन दिनों कविता पढने से पहले सबसे बड़ी भूमिका
प्रस्तुत करने वालों में भी वैरागी जी जाने जाते थे। इस अभ्यास ने उन्हें राजनीति
के मंच पर बेहिचक लोकप्रिय वक्ता बनाया और इस लोकप्रियता ने उन्हें लीडर बना दिया।
वे काँग्रेस के सदस्य रहे किंतु सभी विचारधाराओं के कविता मंचों पर आमंत्रित किये
जाते रहे क्योंकि उन्होंने राजनीतिक कटुताओं को विचार भिन्नता के रूप में बदलने का
काम किया।
यह वही समय था जब प्रकाशित होने वाली
कविता और मंचों पर पढी जाने वाली कविताओं में विभाजन रेखा बन गयी थी, किंतु कुछ
लोग ऐसे बचे रह गये थे जिन्होंने दोनों पक्षों के बीच सामंजस्य बिठा रखा था।
मैंने पहली पहली बार बालकवि बैरागी, काका
हाथरसी और सोम ठाकुर को एक साथ सुना था। तीनों का अलग अलग महत्व था पर लोकप्रियता
में तीनों समान थे। बैरागीजी ने कविता और राजनीति में सक्रियता बनाये रखने के
अलावा पत्र पत्रिकाओं में भी अपने लेखों, संस्मरणों, को लिखने का सिलसिला बनाये
रखा था। उनकी एक बात उन्हें दूसरों से अलग करती थी और वह थी पत्र व्यवहार की आदत।
बनारसी दास चतुर्वेदी, हरिवंश राय बच्चन के अलावा काका हाथरसी और बैरागी जी उन
लेखकों में रहे हैं जिन्होंने पत्र लेखन के जमाने में हर पत्र का उत्तर देने का
काम किया है। यही कारण रहा कि उन्हें देश भर के वे लोग भी अपना मित्र समझते रहे
जिन्हें वे ठीक तरह से जानते भी नहीं थे। वे जहाँ भी जाते थे उनसे मिलने आने वालों
की संख्या बहुत होती थी।
मुझे भी पत्र लिखने का शौक था और एक समय
तक विशिष्ट लोगों के पत्र पाकर खुद को विशिष्ट समझने की बीमारी का शिकार भी रहा।
इसी क्रम में उनसे पत्रों का आदान प्रदान प्रारम्भ हुआ और जब मैं धर्मयुग आदि जैसी
कुछ प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा तो वे अपने पत्र उत्तरों में कभी
कभी उनका भी उल्लेख करने लगे तो और भी अच्छा लगने लगा। मंत्री और सांसद रहते हुए
भी उन्होंने पत्रोत्तरों में कभी कोताही नहीं की।
पहली लम्बी मुलाकात 1982 में नागपुर में
हुयी जब वे, शरद जोशी, अशोक चक्रधर, सुरेश उपाध्याय, आदि कई परिचितों सहित
आमंत्रित थे। उस समय मेरे बैंक के सम्पन्न कलाप्रेमी व्यापारी ग्राहक ने न केवल
अपनी गाड़ी ही उपलब्ध करायी थी अपितु इन चर्चित लोगों का आतिथ्य करके भी उन्हें
अच्छा लगा था। इसमें मेरा महत्व भी बढ गया था। वह अंतुले काण्ड का समय था और उसी
दौरान वैरागी जी बेदाग मंत्री पद त्याग कर चुके थे, व इसका महत्व बता रहे थे कि
उन्होंने कितने लाख बोरियां सीमेंट बिना कमीशन लिये वितरित कराया है।
इस
सम्मेलन में मुझ से एक दुस्साहस हो गय था। उन दिनों मैं परसाईजी से बेहद प्रभावित
था और जब वैरागी जी ने कहा कि परसाईजी को छोड़ कर शरद जोशी ऐसे व्यंग्य लेखक हैं
जिनका सारे हिन्दी व्यंग्य लेखक अनुशरण करते हैं तो मैंने खड़े होकर प्रतिवाद कर
दिया था। जबकि इससे पहले लगभग एक घण्टे तक मैं शरद जोशी से आत्मीय बात करता रहा
था। बाद में मुझे लगा कि अब शायद वैरागी जी मुझे पत्रोत्तर न दें किंतु ऐसा नहीं
हुआ। मेरे नववर्ष अभिनन्दन कार्ड के उत्तर में जो वे प्रिंटिड उत्तर बेजते थे
उसमें अपने हाथ से कुछ न कुछ जरूर लिख कर उसमें मानवीय स्पर्श दे देते थे। मैं नव
वर्ष और ट्रांसफर होने पर सभी परिचितों व मित्रों को पत्र भेजता था, [मेरा
ट्रांसफर भी एक दो साल में हो ही जाया करता था] इससे सभी लोगों को दतिया की पूंछ वाले
इस व्यक्ति की याद ताज़ा हो जाती थी।
1986 मेरे लिए कठिन वर्ष साबित हुआ था।
मुझे मैनेजर के पद से बदल कर आडीटर [इंस्पेक्टर] बना दिया गया था जिस कारण परिवार
को मूल निवास पर छोड़ कर नगरी नगरी द्वारे द्वारे फिरना पड़ रहा था, कोई स्थायी पता
नहीं था, और लिखना पड़ना स्थगित हो गया था। इसी वर्ष मेरे बैंक में मोराटोरियम लग
गया था और बाद में इसका विलय पंजाब नैशनल बैंक में हो गया था। इसका परिणाम यह हुआ
कि मेरी पोस्टिंग अमरोहा में हो गयी। परिवार कहीं, पोस्टिंग कहीं, बच्चों की पढाई
का ठिकाना नहीं, मैंने ट्रांसफर के लिए आवेदन किया किंतु दो साल से पहले वह हो
नहीं सकता था। मैंने प्रमोशन के सारे अवसर ठुकरा दिये थे। कुछ अन्य संकटों के कारण
मेरा दतिया ट्रांसफर जरूरी हो गया था। सारी छुट्टियां ले डाली थीं। जोश में अपने
समस्त परिचितों को खंगालना शुरू किया, हरीश नवल, प्रेमजन्मेजय के माध्यम से
कन्हैया लाल नन्दन, कमलेश्वर, काका हाथरसी, जयपुर के एक पत्रकार मित्र के माध्यम
से अनेक सांसदों को आवेदन भिजवाया, अशोक चक्रधर, से कहा तो बोले कि हम लोगों के
लिए तो सरकारी प्रवेश द्वार बैरागी जी ही हैं। लगे हाथ उन्हें भी आवेदन भिजवा दिया
किंतु अनुत्तरित रहा, अशोक तब तक वीआईपी तो हो गये थे किंतु वीवीआईपी नहीं हुये थे
बोले वैरागी जी के यहाँ सीधे चले जाओ। ऐसा ही किया तो बोले अरे यार तुम्हारा आवेदन
था तुम नये नये पते बदलते रहते हो और मेरे पास पत्र बहुत आते हैं इसलिए धोखा हो
गया। फिर तो उन्होंने वित्त मंत्री नारायनदत्त तिवारी, जनार्दन पुजारी, और न जाने
कहाँ कहाँ पत्र भिजवा दिये और उनसे प्राप्त उत्तर मुझे भिजवाते रहे। परिणाम यह हुआ
कि दो साल पूरे होते ही मेरा ट्रांसफर न केवल दतिया हो गया अपितु मेरी मन चाही जगह
लीड बैंक आफिस में पोस्टिंग मिल गयी। यह मेरे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण फैसला
साबित हुआ। परिवार का बड़ा नुकसान होते होते बच गया।
जब वे दिल्ली में रकाबगंज गुरुद्वारे के
पास रहते थे तब गर्मी की एक दोपहर उनके यहाँ पहुँच गया। वे खालिस्तानी आतंकवाद के
दिन थे। मैं यह सोच कर कि दोपहर की नींद ले रहे होंगे इसलिए बाहर दालान में ही
कुर्सी पर बैठ गया ताकि हलचल दिखने पर घंटी बजाऊंगा। पर उन्होंने कहीं से देख लिया
और दरवाजा खोल कर अन्दर ले गये। खुद लाकर पानी पिलाया और कहा कि बाहर क्यों बैठ
गये थे, तुम्हारा ही घर है।
एक दिन बोले यार तुम तो मीना कुमारी की
ससुराल में फँस गये हो। मुझे बाद में समझ में आया कि अमरोहा में होने के कारण यह
कमाल अमरोही से सम्बन्धित टिप्पणी है।
स्वस्थ और स्वच्छ मनोरंजन व हाजिर जबाबी
उनकी विशेषता थी। एक सज्जन जिनका सरनेम रावत था, की पत्नी कुछ अधिक स्वस्थ थीं,
उनके लिए कहते थे कि रावत के घर में ऎरावत है।
काका हाथरसी व मुकुट बिहारी सरोज के साथ
तो उनके अनेक दिलचस्प संस्मरण हैं। जब वे मंत्री थे और मैंने सरोज जी के ट्रांसफर
के सम्बन्ध में पत्र लिखा तो उन्होंने
उत्तर दिया कि खबर रखा करो तुम्हें पता ही नहीं है कि सरोज जी तो कब के ग्वालियर
पहुँच गये हैं।
करोगे याद तो हर बात याद आयेगी। अभी इतना ही।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें