सोमवार, मई 21, 2018

लोकतंत्र की औपचारिकता में चुनाव के तमाशे


लोकतंत्र की औपचारिकता में चुनाव के तमाशे
कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 के लिए इमेज परिणाम
वीरेन्द्र जैन 
युद्ध में नेतृत्व के जीवित होने और लड़ते जाने का भ्रम बनाये रखा जाता था। राजनीति में भी किसी भी दल के प्रमुख का साहसी और लगातार सक्रिय होना जरूरी होता है। चुनाव भी एक तरह से युद्ध ही होते हैं जिनमें भी नेतृत्व का सक्रिय दिखना जरूरी होता है। जब सत्ता और संगठन एक ही व्यक्ति तक केन्द्रित होता है तो पदासीन व्यक्ति को ही चुनाव के समय अपने पद की जिम्मेवारियां भूल कर चुनाव में उतरना पड़ता है।
कर्नाटक चुनाव के सम्बन्ध में मीडिया में सामने नजर आने वाला बहुत कुछ कहा जा चुका है, किंतु इस घटनाक्रम की वैचारिकी पर कम ही बातें हुयी हैं। इस पूरे चुनाव में जो तीन प्रमुख पक्ष थे वे तीनों ही पक्ष आगे बढने की जगह प्रतिगामी नजर आये हैं। काँग्रेस अध्यक्षों की जिम्मेवारी थी कि वे अपने सदस्यों, समर्थकों को धर्म स्थलों से दूर रखते किंतु उसके जगह गुजरात विधानसभा चुनावों से लेकर कर्नाटक तक राहुल गाँधी मन्दिर मन्दिर जाकर धोती ओढते व माथा पोतते और उसे प्रचारित करते नजर आये। तय है कि यह राहुल की आस्था का मामला बिल्कुल नहीं था अपितु भाजपा का राहुल परिवार और काँग्रेस को हिन्दू विरोधी प्रचारित करने की काट के लिए था। अर्थात वे भाजपा की कार्यप्रणाली से प्रभावित होकर प्रचार कर रहे थे। वे यह भूल जाते हैं कि जब हिन्दू धार्मिकता के आधार पर मतदाता फैसला करेगा तो उसमें राम जन्मभूमि मन्दिर को आधार बनाने वाली व ढेर सारे साधु साध्वियों को टिकिट तक देने वाली भाजपा हमेशा लाभ में रहेगी। यही हाल पाँच साल के शासन के अंत में लिंगायत को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने के मामले में भी हुयी। जनता को मूर्ख समझने और बनाने की कोशिशें अपमानजनक होती हैं। भले ही वे उसके कितने ही हित के काम हों किंतु जब वे ठीक चुनाव के मौके पर किये जाते हैं तो उसे ठगने जैसे लगते हैं। किसी बहाने से वोट झटक लेने के उपक्रम का जमाना बीत चुका है, अब घर घर टीवी के 300 चैनल आ रहे हैं और इंटरनैट पर लाइव घटनाक्रम प्रसारित होता है जिसे कोई भी साधारण व्यक्ति भी कर सकता है। जगह जगह लगे सीसीटीवी कैमरे प्रत्येक गतिविधि की रिकार्डिंग रखते हैं। क्या ऐसी दशा में सत्तर अस्सी के दशक की सूटकेस प्रणाली अपनायी जा सकती थी जबकि डिजिटल ट्रांसफर के जमाने में किसी के खाते में किसी के खाते से रकमों का आदान प्रदान हो सकता है।
चुनाव के बाद येदुरप्पा द्वारा सरकार बनाने का प्रयास एक बड़ी बचकानी हरकत थी। चूंकि भाजपा परिवार में सरकार बनाने का कोई भी प्रयास बिना मोदी-शाह से पूछे और बिना आरएसएस की सलाह के नहीं हो सकता, इसलिए यह विश्वास स्वाभाविक है कि इस मामले में उनकी सहमति थी। संघ परिवार का जो एजेंडा है, उसे पहले हिडिन एजेंडा कहा जाता था किंतु अब वह छुपाया भी नहीं जाता। इस एजेंडे हेतु सत्ता पर अधिकार करने के लिए कुछ भी करने की छूट है। भाजपा ने दलबदल कानून आने से पहले और उसके बाद भी सबसे अधिक बार दलबदल करवा कर सरकार बनायी किंतु आरएसएस ने कभी इस प्रवृत्ति की निन्दा नहीं की। ऐसे दल बदल धन या / और पद के लेन देन पर ही होते हैं और इनमें अवैध धन का ही स्तेमाल होता रहा है। स्पष्ट है कि इसके लिए अवैध ढंग से पैसा कमाने वालों को छूट देना भी सम्मलित होता होगा, तो फिर शुचिता की बात करना दोहरापन ही है। एक दल से चुनाव लड़ने व जीतने के ठीक बाद किसी विधायक से दूसरे दल को समर्थन देने का ख्याल ही भ्रष्टाचार की छवि बनाता है। जिसने भी इस दलबदल की सम्भावना के बारे में सोचा भी होगा उनमें से ऐसा कौन होगा जिसने इसे स्वाभाविक ह्रदय परिवर्तन की तरह से लिया होगा। इसके उलट जब येदुरप्पा ने समर्थन न जुटा पाने की घोषणा करते हुए त्यागपत्र दिया तब उनकी और उनके वरिष्ठ नेताओं की छवि कुछ सुधरी होगी कि कोई लेन देन नहीं हुआ या कहें कि नहीं हो पाया।
उचित संख्या का प्रमाण न देने पर भी येदुरप्पा को शपथ दिलाना, काँग्रेस द्वारा जेडी[एस] के कुमारस्वामी को समर्थन देने का पत्र देने के बाद भी उन्हें अवसर न देना, बहुमत साबित करने के लिए अनावश्यक रूप से 15 दिन का लम्बा समय देना, प्रोटेम स्पीकर के चयन में परम्परा को तोड़ना, राज्यपाल की खुली पक्षधरता के प्रमाण थे जिससे प्रकट होता था कि संघ परिवार किसी भी तरह से सत्ता हथियाना चाहता है। किसी भी संघ के पदाधिकारी ने संघ से निकले अपने राज्यपाल के आचरण पर अपने विचार नहीं रखे।
एक चुनाव क्षेत्र की वीवीपीएटी मशीन खराब होने के अलावा चुनाव प्रणाली पर कोई सवाल नहीं उठे, हिंसा नहीं हुयी किंतु भाजपा ने जिन उम्मीदवारों का चयन किया वह इस बात का प्रमाण था कि वह अपने विकास के एजेंडे या सातारूढ सिद्धारमैया की कार्यप्रणाली की आलोचना के आधार पर चुनाव नहीं लड़ पा रही थी। यह पराजित मानसिकता के संकेत थे। देश के प्रधानमंत्री को किसी मुख्यमंत्री के ज्ञात भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही करना चाहिए न कि चुनाव सभाओं में बताना चाहिए। अगर मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार की जानकारी होते हुए भी प्रधानमंत्री कार्यवाही नहीं कर रहा तो यह उसकी भी अक्षमता का प्रमाण है। वैसे भी उन्होंने चुनाव के दौरान ही उनके मंत्रियों के यहाँ आयकर के छापे डलवाये व चिदम्बरम के खिलाफ बयान दिया। उल्लेखनीय यह भी है कि लोकसभा चुनावों के दौरान भ्रष्टाचार के जिन आरोपों को मुख्य मुद्दा बनाया था उन आरोपियों में से किसी के खिलाफ अब तक कार्यवाही नहीं हुयी।
सवाल यह भी है कि जनमत को मतों की संख्या से, उसके प्रतिशत से, मापा जाना चाहिए या जीती गयी सीटों के हिसाब से! काँग्रेस की सीटें घटी हैं किंतु वोट बढे हैं, जेडीएस की सीटें भी घटी हैं, वोट भी घटे हैं, वहीं भाजपा की सीटें भी बढी हैं और वोट भी बढे हैं किंतु कुल वोट काँग्रेस से कम हैं। भाजपा की 44 सीटों पर जमानत भी जब्त हुयी है। वोकालिंगा और लिंगायत के वोट जातिगत आधार पर लिये और दिये गये व सबने जार्तिवाद का लाभ लेने की कोशिश की। तीनों ही दलों के विजयी विधायकों में कुल 97% करोड़पति हैं जो बताता है कि विधायक चुने जाने के लिए धन का क्या महत्व है। कुल 143 करोड़ से अधिक रुपया तो अवैध ढंग से ले जाते हुए पकड़ा गया जिससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि शायद ही कोई विधायक ऐसा रहा होगा जिसने खर्च की तय सीमा के अन्दर चुनाव लड़ कर जीता हो, किंतु सभी प्रत्याशी और दल अपने व्यय की घोषणा में झूठ बोलेंगे।
चुनाव प्रचार के दौरान अपेक्षाकृत शालीनता बनाये रखने वाले राहुल गाँधी ने येदुरप्पा के विश्वासमत हारने के बाद  प्रैस कांफ्रेंस में अमित शाह को मर्डर एक्यूज्ड [ हत्या का आरोपी] और मोदी को भ्रष्टाचारी बता दिया, जबकि राज्यपाल के खिलाफ कुछ भी नहीं कहते हुए एक सवाल के उत्तर में कहा कि इनके जाने के बाद दूसरा भी ऐसा ही आयेगा।
समाज की दशा में विकास तो बाद की बात है पहले जिस आधार पर सरकारें बनती हैं उस चुनाव प्रणाली में सुधार के बारे में सोचें नहीं तो जिनके द्वारा जो चुने जाते हैं उन्हीं के लिए काम करते हैं। इस दिशा में विकास बहुत धीमा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629



   


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें