फिल्म समीक्षा के बहाने ; फिल्म संजू
गाँधी
दर्शन और पारिवारिक प्रेम पर एक फिल्म
फिल्म एक बड़ी लागत का व्यवसाय है और
व्यवसाय मुनाफे के लिए किया जाता है, इसलिए फिल्म की सफलता को उसके टिकिट खिड़की की
सफलता से मापा जाता है। अब वे दिन नहीं रहे जब किसी एक टाकीज में लगातार 25 सप्ताह
तक चलने वाली फिल्म को सिल्वर जुबली फिल्म कहा जाता था। अब उसका मापदण्ड पहले और
दूसरे हफ्ते में सौ दो सौ करोड़ की टिकिट बिक्री से होने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों
की विषय वस्तु को उस तरह से प्रचारित किया जाता है जो जनरुचि को छू सके, भले ही
कथानक कुछ और बोलता हो।
देश के प्रतिष्ठित लेखक सम्पादक स्व.
राजेन्द्र यादव ने एक सम्पादकीय में लिखा था कि अब कहानी से ज्यादा संस्मरण और
आत्मकथाएं लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि वे जीवंत कहानियां होती हैं, इसलिए
विश्वसनीय होती हैं। अब हम सब कुछ लाइव देखना चाहते हैं, चाहे क्रिकेट का मैच हो
या किसी नेता की चुनावी रैली हो। संजू फिल्म को भी संजय दत्त की आत्मकथा या कहें
कि अब तक की जीवन गाथा कह कर प्रचारित किया गया है। इस फिल्म में संजय दत्त के
जीवन की चर्चित घटनाओं को आधार बनाया गया है जिसमें उसके ड्रग एडिक्ट होने से लेकर
ए के 47 रखने तक की रोमांचक घटनाएं पिरोयी गयी हैं। फिल्मों के नायक नायिकाओं से
सम्बन्धित समाचार लगभग सारे समाचार पत्रों के फिल्म से सम्बन्धित स्तम्भ में
प्रकाशित होते रहते हैं जिनमें सच और झूठ का अनुपात तय करना मुश्किल होता है
क्योंकि वे बराबरी की होड़ करते रहते हैं।
संजू फिल्म संजय दत्त की जीवनी से ली गयी
जीवन कथा के रूप में बनायी गयी बतायी गयी है, किंतु इसमें उनके जीवन की केवल एक दो
घटनाओं का विस्तार भर है। इस फिल्म के लोकप्रिय होने के पीछे वह सच्चा प्यार,
त्याग और समर्पण है जो इस परिवार के
सदस्यों के बीच दिखता है। दत्त परिवार का पूरा जीवन ही घटनाओं से भरा हुआ है।
फिल्म मदर इंडिया की शूटिंग करते समय सैट पर आग लग गयी थी और सुनील दत्त ने अपनी
जान पर खेल कर नरगिस को बचाया था व उनका यही साहस नरगिस के समर्पण का आधार बना
जबकि उस दौर की इस सुन्दरतम नायिका से बहुत सारे प्रसिद्ध कलाकार शादी करना चाहते
थे जिनमें कहा जाता है कि राजकपूर जैसे चोटी के अभिनेता भी थे। इस विवाह में उस
दौर के नामी गिरामी माफिया सरदार हाजी मस्तान बाधा बन कर उभरे थे किंतु प्रगतिशील
शायर साहिर लुधियानवी की मध्यस्थता और सुनील दत्त की गाँधीवादी निर्भीकता व सच्चाई
से प्रभावित हुये थे और सहयोगी बन गये थे। हिन्दू मुस्लिम विवाह से उन्होंने देश
के उस आदर्श को प्रमाणित किया जो हमारे संविधान निर्मताओं के मन में था। सच तो यह
है कि संजय दत्त को “लगे रहो मुन्ना भाई” के लिए प्रेरित करने वाले सुनील दत्त का
जीवन स्वयं में गाँधीवाद का जीवंत उदाहरण था। उन्होंने अहिंसा के सहारे बिना किसी भय के सत्य के मार्ग
पर चलना शुरू किया और उससे कभी नहीं डिगे। नरगिस से प्रेम करने के बाद वे किसी से
नफरत नहीं कर सके। देश से प्रेम किया और काँग्रेस में रहते हुए बेहद सादगी से
लोकसभा का चुनाव लड़ा व जनता के प्रेम से विजयी हुये। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद
देश में साम्प्रदायिक हिंसा की जो लहर उठी उसमें साम्प्रदायिकता से लाभ उठाने वाले
कुटिल लोगों के खिलाफ भी उनका कोई कटु बयान देखने में नहीं आया। संजू फिल्म की
पृष्ठभूमि में ही उनका पीड़ित परिवारों को राशन पहुँचाना था जो एक वर्ग के
साम्प्रदायिकों को पसन्द नहीं आ रहा था। वे जान से मारने की धमकी से लेकर फोन पर
उनकी लड़कियों के बलात्कार तक की धमकियों दे रहे थे और उसी भय की अवस्था में संजय
दत्त ने घर में हथियार रखने की सलाह को मान लिया था। यह सुनील दत्त ही थे
जिन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए मुम्बई से अमृतसर तक की पद यात्रा की थी और
अपनी फिल्मी कलाकार की लोकप्रियता को साबुन तेल के विज्ञापनों में बर्बाद करने की
जगह सद्भाव के स्तेमाल किया था। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है कि उन्होंने
हिन्दुओं के बाहुबली साम्प्रदायिक नेता द्वारा संजय दत्त को विसर्जन समारोह में
आमंत्रित किये जाने से विनम्रता पूर्वक मना करवाया था और निर्भय होकर हिंसा पर
अहिंसा की विजय का उदाहरण प्रस्तुत किया था।
यह फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई के बाद इस
परिवार की दूसरी गाँधीवादी फिल्म है। इसमें सत्य, अहिंसा, निर्भीकता, सादगी, कमजोर
की सहायता, ही नहीं सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा भी है। इस तरह यह गाँधीवादी दर्शन को
आगे बढाती हुयी राजनीतिक फिल्म भी है।
सुनील दत्त नरगिस से प्रेम करते हैं और
नरगिस सुनील दत्त से। दोनों मिल कर अपने बच्चों से प्यार करते हैं। वे देश से
प्यार करते हैं। धर्मनिरपेक्षता को जीते हैं और उसकी रक्षा के लिए निर्भय होकर जान
की बाजी लगा दे रहे हैं। ज्यादा प्रेम, और आज़ादी में कुसंगति से बेटा बिगड़ कर
एडिक्ट हो जाता है किंतु बेटे को प्रेम करने वाला पिता अपने प्रेम के बल पर ही उसे
इस बुरी आदत से बाहर निकालने में सफल होता है। सब कुछ जानते हुए भी संजू की पत्नी
उसकी सफाई देश के सामने लाने के लिए उसकी जीवन कथा लिखवाती है और पूरे समर्पित भाव
से उसकी जेल यात्रा के दौरान घर सम्हालती है। रिश्तों के अलावा एक दोस्त का प्रेम
है जो उसको दुष्चक्र से बाहर निकालने के लिए निरंतर लगा हुआ है। इसी प्रेम और
समर्पण के देख कर बार बार दर्शकों की आँखें और दिल भर आता है, और इस तरह वह
दर्शकों को सम्वेदनशील बनाने में सफल है। संजय दत्त की जीवन गाथा में से फिल्म के
लिए चुनिन्दा हिस्से ही लिये गये हैं किंतु वे प्रभावी हैं। फिल्म को बायोपिक कहना
सही नहीं होगा।
फिल्म में एक गम्भीर आलोचनात्मक टिप्पणी
मीडिया के व्यवहार पर भी है जो अपना अखबार बेचने के लिए हर खबर को सनसनीखेज बनाना
चाहता है और अपने बचाव के लिए एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देते हैं। किंतु पाठक उस
प्रश्नवाचक चिन्ह को न समझ कर उसे सच मान लेते हैं। यह अभी भी हो रहा है, समाचार
के रूप में अखबार के मालिकों के हितैषी विचार प्रचारित हो रहे हैं।
रूसो ने अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना में लिखा है
कि मेरी आत्मकथा पढ कर आप कहेंगे कि रूसो संसार का सबसे बुरा आदमी था, पर विश्वास
कीजिए कि मुझ से भी बुरे आदमी दुनिया में हैं किंतु उनमें सच कहने का साहस नहीं
है। संजय की पुस्तक रूप में कहानी मैंने नहीं पढी है इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं
कह सकता, पर फिल्म यही सन्देश दे रही है।
रणवीर कपूर की पूरे दिल से एक्टिंग की
तारीफ के बिना फिल्म के बारे बात अधूरी रहती है, वहीं मनीषा कोइराला और परेश रावल
ने अपनी अपनी भूमिकाओं से जान डाल दी है। कहानी के अनुसार फिल्म सफल है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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