फिल्म समीक्षा के बहाने
फिल्म – मुल्क
वीरेन्द्र जैन
अनुभव सिन्हा की यह फिल्म पिछले दिनों आयी
फिल्म ‘पिंक’ की श्रेणी में रखी जा सकती है जिसमें अदालती बहस के माध्यम से किसी
विषय पर रोशनी डालने का तरीका अपनाया जाता है। बहरहाल यह फिल्म किसी सच्ची घटना के
आस पास से गुजरते हुए बनायी गयी है। फिल्म की शूटिंग बनारस और लखनऊ में की गयी।
विभाजन के समय मुसलमानों के सामने दो
विकल्प थे कि या तो वे पाकिस्तान चले जायें जो इस्लाम के नाम पर बनाया गया देश था
या वे धर्मनिरपेक्ष देश भारत में रहें जिसमें सभी धर्मों के मानने वालों के लिए
समान नागरिक अधिकार देने का पूरी संविधान सभा ने एकमत से समर्थन किया था व इसे
संविधान की भूमिका में व्यक्त भी किया गया है। संविधान में तो यह अधिकार दे दिया
गया और इसके भरोसे पाकिस्तान की आबादी से अधिक मुसलमानों ने भारत में ही बने रहने
की घोषणा करके भाईचारे में अपना विश्वास व्यक्त किया। मुसलमानों ने तो यह विश्वास
व्यक्त कर दिया किंतु जिन गैरमुस्लिमों को पाकिस्तान के हिस्से में आयी जगहों में साम्प्रदायिक
दंगों के बीच अपने मकान, जमीन, दुकान और व्यापार छोड़ कर आना पड़ा उनके मन में
मुसलमानों के प्रति एक नफरत पैदा हो गयी थी जिसे वे न केवल पाले रहे अपितु
उन्होंने देश के अन्य गैर मुस्लिमों के बीच भी फैलाने का काम किया। विभाजन के समय
जहाँ जहाँ दंगे हुये वहाँ वहाँ बहुत सारे लोगों को अपने मूल धर्म की रक्षा का खयाल
आ गया था। पाकिस्तान में चले गये हिस्से से लुट पिट कर आये लोगों ने दंगों के कारण
साम्प्रदायिक हो गये लोगों के साथ मिल कर उस राजनीति को समर्थन देना प्रारम्भ कर
दिया जो गाँधी, नेहरू, पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, की धर्म निरपेक्ष नीति का
विरोध करके अपना राजनीतिक आधार बनाने में लगे थे। चूंकि गाँधी नेहरू आदि द्वारा
अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े गये स्वतंत्रता संग्राम की यादें ताजा थीं इसलिए उनको सत्ता
पाने में सफलता मिलती गयी, पर समानांतर रूप से एक दक्षिणपंथी संगठन मजबूत होता
रहा। 1962 में चीन के साथ हुए सीमा विवाद के कारण उन्हें देश के वामपंथी आन्दोलन
को बदनाम करने का अवसर मिला और उनके द्वारा खाली हुयी जगह को साम्प्रदायिकता से
जीवन पा रहे दक्षिणपंथी दल भरते गये। दूसरी ओर उनके इस फैलाव से आतंकित मुसलमानों
ने गैरराजनीतिक आधार पर आँख मूंद सत्तारूढ दल को समर्थन करना शुरू दिया जिससे
उन्हें बैठे ठाले समर्थन मिलने लगा। यही कारण रहा कि उन्होंने भी साम्प्रदायिक
दलों को एक सीमा तक फैलने दिया। बाद में तो राजनीतिक लाभ के लिए अनेक कोणों से
साम्प्रदायिकता और जातिवाद को बढावा दिया जाने लगा। विभिन्न राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय कारणों से एक मिले जुले समाज में अविश्वास पनपता रहा। विदेश से
समर्थित या विदेश के नाम पर बम विस्फोटों जैसी आतंकी घटनाएं भी घटने लगीं। सत्ता
के इशारे पर कमजोर पुलिस व्यवस्था जन असंतोष को दूर करने के लिए किन्हीं भी मुसलमानों
को आरोपी बनाती रही व साम्प्रदायिकता से प्रभावित सामान्य लोग भरोसा करते रहे। आरोपी
बाद में भले ही अदालत से छूट जाते हों किंतु तात्कालिक रूप से मामला ठंडा हो जाता व
एक वर्ग विशेष के प्रति नफरत पनप जाती। उत्तर प्रदेश में कार्यरत एक संस्था रिहाई
मंच के पास ऐसी ढेरों कहानियां हैं जिनमें बेकसूर लोग सुस्त न्याय व्यवस्था के
कारण इसी तरह वर्षों से जेल भुगत रहे हैं।
फिल्म ‘मुल्क’ भी ‘गरम हवा’ और ‘साजिद’ आदि
फिल्मों की तरह घुट और पिस रहे मुसलमानों की आवाज उठाने की कोशिश है। सबसे पहले
इसके नाम को लें। भारत में जन्मी भाषा उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया है
क्योंकि यह पर्सियन लिपि में लिखी जाती है व इसमें अनेक अरबी शब्द लिये गये हैं। हिन्दी
में यह जो ‘देश’ है वह हिन्दुओं के लिए है और मुसलमानों के लिए ‘मुल्क’ हो गया है।
वातावरण में वह विष घुल गया है कि एक समुदाय में देश कहने पर जो भाव पैदा होते हैं
वे मुल्क कहने पर नहीं होते। यह फिल्म अनुभव सिन्हा ने बनायी है और इसमें ऋषि
कपूर, तापसी पुन्नू, आषुतोष राणा, नीना गुप्ता, मनोज पाहवा, रजत कपूर, प्राची शाह,
वर्तिका सिंह, कुमुद मिश्रा आदि ने अधिकांश मुस्लिम पात्रों का सफल व भावप्रवण अभिनय
किया है, पर इनमें कोई भी मुस्लिम नहीं है।
कहानी यह है कि बनारस जैसी जगह में मिली
जुली आबादी में एक मुस्लिम संयुक्त परिवार रहता है जिनमें बड़ा भाई वकील है और छोटा
भाई मोबाइल के उपकरण सिम आदि की दुकान चलाता है। एक और भाई इंगलेंड में रहता है
जिसने एक हिन्दू लड़की से शादी की है जो वकील है। मुहल्ले में आपसी भाई चारा है।
छोटे भाई विलाल का एक नौजवान लड़का कश्मीर की बाढ के समय चन्दा एकत्रित करने और उसे
एक संस्था को सौंपने के दौरान एक आतंकी सरगना के प्रभाव में आ जाता है, व इलाहाबाद
की एक बस में विस्फोट कर देता है जिसमें दर्जनों लोग मारे जाते हैं। वह लड़का
एनकाउंटर में मार दिया जाता है और परिवार के सभी निर्दोष सदस्यों को आतंकवादी गतिविधियों
में लिप्त मान कर घेरा जाता है और पहले छोटे भाई [मनोज पाहवा] और फिर बड़े भाई [ऋषि कपूर] पर मुकदमा चलाया जाता है। इस अपमानजनक स्थिति से
दिल का मरीज छोटा भाई चल बसता है और नर्वस हो चुका बड़ा भाई अपनी बहू [तापसी
पुन्नू] से उस के मुकदमे को लड़ने के लिए कहते हैं। फिल्म का उद्देश्य सरकारी वकील
द्वारा आरोप सिद्ध करने के लिए बनाई गई साम्प्रदायिक कहानी और उसकी काट के लिए
दिये तर्कों द्वारा प्रस्तुत सन्देश से पूरा होता है।
कहानी बताती है कि बेरोजगारी के कारण किस
तरह से नौजवान साम्प्रदायिक गिरोहों के शिकार होकर किस्म किस्म के आतंकवादी बन रहे
हैं। अविश्वास के कारण किसी भटकाये गये मुसलमान युवा के द्वारा किये गये काम की
जिम्मेवारी पूरे समुदाय पर लाद दी जाती है, और उनकी राष्ट्रभक्ति पर सवाल उठाये
जाते हैं। साम्प्रदायिक संगठन किस तरह से अवसर का लाभ उठाते हैं और क्षणों में
मुहल्ले के सद्भाव का वातावरण अविश्वास में बदल दिया जाता है।
यह फिल्म एक ऐसे जरूरी पाठ की तरह है जिसे
इन दिनों हर नौजवान को पढाया ही जाना चाहिए। एक उद्देश्यपरक फिल्म बनाते समय यह भी
ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह दर्शक उस तक पहुँचें जिनको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
इसी प्रचार के लिए अनेक निर्माता तो विवाद तक प्रायोजित करने लगे हैं। बहरहाल खबर
यह है पाकिस्तान में इस फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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