बुधवार, सितंबर 19, 2018

क्रमशः विकृत होती जाती लोकतांत्रिक व्यवस्था


क्रमशः विकृत होती जाती लोकतांत्रिक व्यवस्था
वीरेन्द्र जैन

हिन्दी के सुप्रसिद्ध राजनीतिक कवि मुकुट बिहारी सरोज की एक कविता है-
क्यों जी ये क्या बात हुयी
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी, त्यों त्यों रात हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी!
उम्मीद थी कि दिनों दिन हमारी राजनीतिक चेतना बढेगी और हम सामंती युग से मुक्त होते जायेंगे। सूचना माध्यमों के विकास और प्रसार के साथ हमारी जानकारियां बढेंगी व प्रगतिशीलता का वातावरण बनेगा। प्रशासनिक व्यवस्था के डिजिटलाइजेशन से पारदर्शिता बढेगी और कार्यपालिका में स्वच्छता व काम करने की गति का विकास होगा। खेद की बात है कि वैसा नहीं हुआ अपितु हम तेजी से प्राचीन मूल्यों, अवैज्ञानिकता, भ्रष्टाचार और जंगली राज की ओर बढते जा रहे हैं। दिन प्रति दिन धर्म की ओट में धूर्तता करने वाले धर्म गुरु पकड़े जा रहे हैं, फिर भी उनके प्रति अन्धभक्ति व उनके जैसे ही दूसरे धर्मगुरुओं के आश्रम नाम के फार्म हाउस और उन्हें प्राप्त होने वाले धन की मात्रा बढती जा रही है। कथित धार्मिक क्षेत्रों में तय तिथियों पर पूजा अर्चना के लिए जाने वाली भीड़, जिसमें बेरोजगार युवा भी शामिल हैं, बढती जा रही है जो केवल सांस्कृतिक उत्सव का हिस्सा भर नहीं है अपितु यह भीड़ इस विश्वास से संचालित है कि इससे न केवल उनकी सामाजिक समस्याएं हल हो जायेंगीं अपितु अब तक की उपलब्धियों की सुरक्षा भी हो जायेगी। रोचक यह है कि सैकड़ों तरह की पूजा पद्धतियां, विभिन्न विभिन्न स्थलों पर स्थित धार्मिक स्थान, आश्रम, धर्म गुरु आदि अपने अपने ढंग से सबकी लगभग एक जैसी समस्याएं हल कर देने का विश्वास पैदा कर पा रहे हैं। सृष्टि के जन्म और उसके संचालित होने के सम्बन्ध में सबके अलग अलग विश्वास हैं किंतु चुनाव जिता देने, परीक्षा में पास करा देने, नौकरी दिलवा देने, प्रमोशन व ट्रांसफर करा देने का भरोसा सबने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिलाया हुआ है। भक्तों के मन में यह विश्वास इतना गहरा है कि उनकी अपेक्षाएं पूरी हो जाने का श्रेय तो इन्हीं को देते हैं और न पूरा होने की दशा में वे अपनी भक्ति या पूजा में ही कुछ कमी मानते हैं।
उम्मीद की गयी थी कि लोकतंत्र दस वर्ष में ही परिपक्व हो जायेगा व जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि से मुक्त नागरिकों का ऐसा समाज स्थापित हो जायेगा जो किसी भेद को नहीं मानते होंगे। यह स्थिति लाने के लिए सदियों से पिछड़ी जातियों को सूची बद्ध किया गया था व विशेष प्रोत्साहन के द्वारा उन्हें कुछ प्रतिशत स्थानों पर अपने वर्ग में प्रतियोगिता करने के लिए स्थान आरिक्षित किये गये। आशा यह की गई थी कि इस तरह से अतीत में पिछड़ गये वर्ग के व्यक्तियों को मिले अवसरों से उनकी पूरी जाति सम्मानित और विकसित हो जायेगी। किंतु यह आशा पूरी नहीं हुयी। जिन्हें अवसर मिला उन्होंने अपनी जाति के लोगों के उत्त्थान के लिए भी वह सहानिभूति नहीं दिखायी जैसी उम्मीद वे दूसरे वर्ग के लोगों से करते थे। कई स्थानों पर तो उन्होंने अपनी जाति ही छुपा कर सवर्ण वर्चस्व वाले स्थानों पर अपनी अस्मिता की रक्षा की। जब कार्यालयों कालेजों आदि में वे संगठित हो गये व नौकरशाही में उनके अधिकारों की रक्षा करने वाले व्यक्ति व संगठन प्रकट होने लगे तब वे अपने को व्यक्त करने लगे, नफरतों का मुकाबला करने लगे और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनवाने लगे। इस सब में महत्वपूर्ण तीस साल लग गये, और यही वह समय था जब आरक्षण का विरोध पनपने लगा। इसी दौर में विभिन्न पिछड़ी एवं अन्य जातियों ने अपनी जाति का नाम अनुसूचित जति में सम्मलित करने का आग्रह किया या कुछ अपात्र लोग गलत प्रमाण पत्रों से लाभ लेने लगे। जिस जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए आरक्षण लाया गया था उसे बनाये रखना अनुसूचित जातियों, राजनेताओं, और सशक्तिकरण के बजट से अपना हिस्सा हासिल कर लेने वाले नौकरशाहों को ज्यादा ठीक लगने लगा। आरक्षण से कुछ जातियों के कुछ परिवारों का उत्थान तो हुआ किंतु सामाजिक समरसता का लक्ष्य दूर ही रहा। पहले से सशक्त सवर्ण वर्ग यथावत सत्ता केन्द्रों पर जमा रहा व उसकी शक्ति और सम्पत्ति में बढोत्तरी ही होती रही। सत्तारूढों ने रोजगार के कम होते अवसरों से जनित वंचना को आरक्षण की ओर मोड़ दिया व गम्भीरता से सोचे बिना सवर्ण अनुसूचित जातियों को शत्रु मानने लगे। साम्प्रदायिकता प्रभावित क्षेत्रों  के साथ एक और रणक्षेत्र तैयार हो गया।   
म.प्र. समेत देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें से म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ में तो सीधी लड़ाई दो राष्ट्रीय दल भाजपा और काँग्रेस के बीच बतायी जा रही है, जो अभी तक कुल मतों का अस्सी- पिचासी प्रतिशत हस्तगत करते रहे हैं। । दोनों ही दलों के पास चुनाव के लिए नकारात्मक बातें ही हैं। दोनों ही एक दूसरे को भ्रष्ट, व नाकारा बता रहे हैं जिनमें से एक तो खुली साम्प्रदायिकता कर के मुद्दे को भटकाने की कोशिशें करता नजर आ रहा है, और दूसरा उनके इस कदम की निन्दा कर रहा है। दोनों ही पक्ष आशंकित हैं और समान रूप से आशान्वित भी हैं। उल्ल्र्खनीय है कि दोनों ही दलों ने इस बार खुले रूप से जाति की शक्तियों को पहचाना है और जो अब तक नहीं हुआ था वह हो रहा है। इस बार प्रत्येक जाति के संगठकों ने भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अपनी अपनी जातियों के सम्मेलन आयोजित किये हैं। इन सम्मेलनों को दलों की पहचान से मुक्त रखा गया है और कहा जा रहा है कि हमारी ही जाति सत्ता से दूर है इसलिए हमारी जाति एकजुट होकर प्रत्येक दल से अपील करती है कि वह हमारी जति के लोगों को अधिक से अधिक टिकिट दे। ऐसा करने पर ही उनकी जाति एकजुट होकर उस दल के पक्ष में मतदान करेगी। अब तक अग्रवालों से लेकर दलितों तक की सैकड़ों जातियों के सम्मेलन हो चुके हैं और लगभग सभी में एक जैसी मांग रखी गयी है।
ऐसी मांगों और उनको मान लेने के संकेतों ने लोकतंत्र की आत्मा को कलंकित कर दिया है। पहले ही पन्द्रह प्रतिशत मुसलमान गैरराजनीतिक आधार पर उस दल को वोट करते रहे हैं जो भाजपा या उनके सहयोगी शिव सेना, आदि को हरा सके। अब यह दूसरा शगूफा सामने आया है जिसमें किसी दल की कार्यप्रणाली, उसके कार्यक्रम व चुनाव घोषणा पत्र की ओर ध्यान न देकर केवल इस बात पर मतदान करने के लिए तैयार किया जा रहा है कि उक्त दल उनकी जाति को कितने टिकिट देता है। मध्य प्रदेश में ऐसे अनेक सम्मेलन हो चुके हैं और उनके ही मंचों से राजनेता उनकी जाति को समुचित टिकिट देने की घोषणाएं कर चुके हैं।  
 क्या हम वापिस कबीला युग की ओर बढ रहे हैं!       
वीरेन्द्र जैन
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