शुक्रवार, सितंबर 28, 2018

अब वह एक आदमी की वेश्या नहीं रहेगी


अब वह एक आदमी की वेश्या नहीं रहेगी
वीरेन्द्र जैन

एडल्ट्री से जुड़ी धारा 497 को पाँच जजों की बेंच ने असंवैधानिक घोषित करके हजारों लोगों को उद्वेलित कर दिया है। मजा यह है कि उनकी भौहें जरूर चढी हुयी हैं किंतु उनके पास परम्परा की दुहाई देने के अलावा कहने के लिए कुछ नहीं है। जो लोग तीन तलाक को मुस्लिम महिलाओं के भले से ज्यादा अपने दुश्मन की तिलमिलाहट देख कर परपीड़ा आनन्द ले रहे थे उनके चेहरे भी देखने लायक हैं।
अमृता प्रीतम लम्बी कहानी की तरह लघु उपन्यास लिखती थीं। उनमें से एक है जिसका नाम डाक्टर देव या नागमणि में से कोई एक है। इस की कहानी इस तरह है कि एक कलाकार ने किसी पहाड़ी पर अपना स्टूडियो बनाया हुआ है। वह अपनी कला को इतना समर्पित है कि बहुत बहुत दिनों तक पहाड़ी से नीचे नहीं उतरता। वहीं एक बार में खाने पीने का सामान ले आता है। उसकी कला की प्रशंसा सुन कर नीचे मैदान में रहने वाली एक लड़की उसके पास प्रति दिन सीखने के लिए जाने लगती है। कलाकार के प्रति मुग्ध वह लड़की उससे शादी के बारे में पूछती है तो वह कहता है कि वह शादी की जिम्मेवारियां नहीं ओढना चाहता और तय किया है कि कभी शादी नहीं करेगा। जब लड़की उससे शरीर की जरूरतों के कारण शादी के सम्बन्ध में सवाल करती है तो वह कहता है कि कभी कभी वह मैदान में एक जगह चला जाता है जहाँ बीस रुपये में औरत मिल जाती है, उससे शरीर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। एक दिन वह लड़की उससे कहती है कि क्या मैं आपके हेतु एक दिन के लिए वह बीस रुपये वाली लड़की बन सकती हूं। कुछ सोच कर और भावनात्मक न होने की चेतावनी के साथ वह अनुमति दे देता है। सुबह जब वह अपने घर जाने लगती है तो वह उसे बीस रुपये निकाल कर देता है। शर्त के अनुसार वह उसे रख लेती है। लौटने पर वह सोचती है कि जिस तर्क के आधार पर मैं अपने को वेश्या कह सकती हूं, उसी तर्क के आधार के आधार पर एक दिन की पत्नी भी कह सकती हूं।
अगर बीच में प्रेम का बन्धन न हो तो पत्नी भी क्या एक आदमी की वेश्या नहीं होती।  
क्या वे समस्त पत्नियां जो प्रेम के धागे से बँधी नहीं हैं और जिनका जीवन अपनी सोच के विपरीत अपने पति की दया पर चल रहा है क्या एक आदमी की वेश्या नहीं हैं?
सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की बेंच का यह फैसला नारियों को स्वतंत्रता देता है। उनकी देह के व्यवहार पर दूसरे के अधिकार से मुक्त करता है। जो लोग इस अधिकार के प्रयोग को वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख कदम बता रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि किसी मजबूरी में अपनी देह का स्तेमाल करने देने की स्वीकृति देना ही वेश्यावृत्ति है, चाहे वह एक आदमी की वेश्या हो या एक से अधिक की। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी नैतिकिता को परिभाषित करने वाली पुराण कथाओं में पाँच पतियों की द्रोपदी को श्रेष्ठ पंच कन्याओं में स्थान मिला है। संतति के लिए नियोग की चर्चा आती है और दुष्यंत शकुंतला के गन्दर्भ विवाह को भी मान्यता मिली हुयी है। इसलिए यह फैसला सांस्कृतिक परम्परा के विपरीत नहीं है। आवश्यकता होगी नारी के श्रम के मूल्य की सुनिश्चितता की ताकि उसे अपनी स्वतंत्रता को गिरवी न रखना पड़े।   
हमने बहुत सारे ऐसे कानून बना लिये हैं जिन्हें संवैधानिक स्वीकृति तो मिली है किंतु सामाजिक स्वीकृति मिलना बाकी है। महात्मा गाँधी के बाद ऐसे राजनीतिज्ञ नहीं मिलते हैं जो सामाजिक सुधारों को राजनीति का हिस्सा बना सकें। काँग्रेस के पार्टी संविधान में मदिरापान वर्जित है किंतु इसका पालन करने वाले कितने प्रतिशत हैं। खादी का प्रयोग भी राजनीति की यूनीफार्म की तरह हो रहा है और निजी जीवन में खादी पहिनने वाले मुश्किल से मिलते हैं।
सम्पादक कथाकार राजेन्द्र यादव ने नारी की स्वतंत्रता के लिए हंस के अनेक अंक नारी विमर्श के नाम से निकाले, व अनेक महिलाओं की संघर्ष कथाओं को स्थान दिया। यह स्थान देने के लिए उन्हें भी अनेक पुरातनपंथी लोगों से टकराना पड़ा था, किंतु उनका जीवट अद्भुत था। वे निर्भय होकर अपने विचार रखते थे। आज जरूरत है कि हंस के उन अंकों का पुस्तकाकार प्रकाशन हो। जरूरत है कि तस्लीमा नसरीन की किताब ‘ औरत के हक में ‘ की फिर से चर्चा हो। यह फैसला इतनी आसानी से जड़ समाज को हजम नहीं होगा भले ही ‘पीकू’ ‘पिंक’ ‘क्वीन’ ‘बोल’ और ‘खुदा के लिए’  जैसी फिल्में सफल हो चुकी हों। इन फिल्मों को मनोरंजन के माध्यम से अलग कर के फिर से देखा दिखाया जाना चाहिए, उन्हें समझना समझाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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