रविवार, दिसंबर 16, 2018

म.प्र. में शिवराज के एकाधिकार का टूटना


म.प्र. में शिवराज के एकाधिकार का टूटना
वीरेन्द्र जैन

गत विधानसभा चुनावों में भाजपा सरकारों का पतन न केवल मोदी-शाह के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोका जाना है अपितु इस पराजय के कई आयाम हैं और दूरगामी परिणाम होंगे। इन चुनाव परिणामों से न केवल मोदी-शाह की अलोकतांत्रिकता आहत हुयी है अपितु उनके अहंकार पर गहरी चोट हुयी है। इनमें से म.प्र. में सबसे ज्यादा नुकसान शिवराज सिंह के एकाधिकार का हुआ है।
उल्लेखनीय है कि शिवराज सिंह को नेतृत्व मध्य प्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा के परम प्रिय शिष्य होने के कारण विरासत में मिला था। जब श्री पटवा अस्वस्थ होकर लकवाग्रस्त हो गये तो प्रदेश के नेतृत्व में उनकी दावेदारी पर प्रश्नचिन्ह लग गया, भले ही वे कहते रहे कि मैं स्वस्थ हो रहा हूं। इसी दौरान उन्होंने अपना राजनीतिक वारिस शिवराज को घोषित किया और केन्द्रीय नेतृत्व को उनके स्थान पर नेतृत्व सौंपने का सुझाव दिया। भले ही भाजपा संगठन को संघ के समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित किये जाने के कारण पहले कैडर वाली पार्टी माना जाता रहा हो किंतु सत्ता का स्वाद लगते ही वह काँग्रेस कल्चर की पार्टी बन चुकी थी। तमाम तरह की राजनीतिक अनियमितताओं के लिए सर्वाधिक बदनाम इस पार्टी को इसके नियंत्रक संघ ने कभी नहीं टोका, क्योंकि किसी भी तरह से मिली सत्ता उनके लक्ष्यों को पूरा करने में मददगार थी। यही कारण रहा कि सबसे पहले, सर्वाधिक दल बदल कराने वाली तथा सैलीब्रिटीज को चुनाव में स्तेमाल करने वाली पार्टी भाजपा ही रही। इसी पार्टी ने चुनावों में धन के स्तेमाल से सत्ता हथियाने की शुरुआत की। इसी तरह पद व सत्ता के लिए आपसी मतभेद और चुनावों में भितरघात भी शुरू हो गया था। जब पटवा जी के गुट ने शिवराज को प्रदेश अध्यक्ष के पद पर बैठाना चाहा तो विक्रम वर्मा की दावेदारी ने चुनौती दी थी व शिवराज सिंह के साथ विधिवत चुनाव हुये थे। इस चुनाव में शिवराज हार गये थे।  
2003 के विधानसभा चुनाव का सीधा सामना करने में काँग्रेस के धुरन्धर नेता दिग्विजय सिंह के सामने भाजपा खुद को कमजोर पा रही थी क्योंकि उसके पास उस कद का कोई प्रादेशिक नेता नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने साध्वी के भेष में रहने वाली तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री पर दाँव लगाया, जो खुद भी अपना पद छोड़ कर नहीं आना चाहती थीं। उन्होंने नानुकर करने के बाद केन्द्रीय नेतृत्व के सामने अनेक शर्तें रखीं जिनमें से एक थी कि अधिकतम टिकिट वितरण में उनकी मर्जी ही चलेगी। विवश और नाउम्मीद नेतृत्व ने उनकी यह शर्त मान ली। उल्लेखनीय है कि सुश्री उमा भारती का सुन्दरलाल पटवा और उनके समर्थकों से सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा था इसलिए उन्होंने सुनिश्चित पराजय वाली सीट पर दिग्विजय सिंह के खिलाफ शिवराज सिंह को चुनाव लड़वाना तय किया जिससे एक तीर से दो शिकार किये जा सकें। शिवराज सिंह चुनाव हार गये।
बाद के घटनाक्रम में जब उमा भारती को हुबली कर्नाटक के ईदगाह मैदान पर जबरन झंडा फहराने और परिणामस्वरूप हुये गोलीकांड में सजा सुनायी गयी तो भाजपा नेतृत्व ने इसे एक अवसर के रूप में लिया और उनसे स्तीफा लेने में किंचित भी विलम्ब नहीं किया। यद्यपि उमाभारती ने नेतृत्व के आदेश के खिलाफ पर्याप्त देर की और जमानत के प्रयास करती रहीं, जब जमानत नहीं मिली तो केन्द्र ने अरुण जैटली के साथ शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री चुनने के प्रस्ताव के साथ भेजा था, पर उमा भारती ने साफ इंकार कर दिया व वरिष्ठ और सरल श्री बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री चुनवा दिया जिन्होंने उनसे वादा किया था कि अवसर आने पर, उमा भारती के पक्ष में वे अपना पद छोड़ने में किंचित भी देर नहीं करेंगे। शिवराज सिंह को एक बार फिर मायूस होकर वापिस लौटना पड़ा था। बाद में कर्नाटक की काँग्रेस सरकार ने कूटनीति से सम्बन्धित मुकदमा वापिस ले लिया व उमा भारती अपनी छोड़ी हुयी सीट वापिस पाने के लिए उतावली हो गयीं, पर अब मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर काम कर रहे थे, जिसने उन्हें पद छोड़ने से साफ रोक दिया था। उमाजी ने तरह तरह से दबाव बनाना शुरू किया,  तिरंगा यात्रा निकाली पर दबाव नहीं बना। फिर उन्होंने सरकार की आलोचना शुरू कर दी तो नेतृत्व ने सरकार बदलना तय कर दिया। अबकी बार उन्होंने शिवराज सिंह को जबरदस्ती थोप दिया जबकि उमा भारती लोकतंत्र की दुहाई देते देते विधायकों के मत लेने की बात करती रहीं। वे बैठक से बाहर भागीं पर उनके साथ कुल ग्यारह विधायक बाहर आये और अंततः कुल चार रह गये। उन्होंने रामरोटी यात्रा निकाली और अलग पार्टी के गठन की घोषणा कर दी। विधायक सत्ता के साथ ही रहे क्योंकि उमा भारती पर से केन्द्रीय नेतृत्व का वरद हस्त हट चुका था। नियमानुसार छह महीने के अन्दर शिवराज सिंह को विधायक का चुनाव लड़ना पड़ा और कई तरह की चुनौतियों को देखते हुए उन्होंने जिलाधिकारी से इतने पक्षपात कराये कि चुनाव आयोग को चुनाव स्थगित करना पड़ा व जिलाधिकारी को स्थानांतरित करना पड़ा। इस सब घटनाक्रम में शिवराज को केन्द्रीय नेतृत्व का समर्थन मिलता गया व अलग पार्टी बना चुकी उमा भारती खलनायक बनती गयीं। 2008 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने समुचित संख्या में उम्मीदवार उतारे और बारह लाख वोट लेकर भाजपा को यथा सम्भव नुकसान पहुँचाया, भले ही उनके कुल पाँच विधायक जीत सके। उमा भारती को हराने के लिए शिवराज ने पार्टी और सरकार की पूरी ताकत झौंक दी थी और चुनाव जीतने के लिए अपनाये जाने वाले सारे हथकण्डे अपनाये जिसके परिणाम स्वरूप वे खुद भी चुनाव हार गयी थीं। चुनाव प्रचार के दौरान उन पर असामाजिक तत्वों ने हमला भी किया था व उन्हें एक मन्दिर में छुपना पड़ा था। वहाँ से उन्होंने फोन कर के प्रैस को बताया था कि शिवराज के इशारे पर उनकी जान लेने की कोशिश की गयी थी। इसके बाद वे हिम्मत हार गयी थीं और उन्होंने भाजपा में वापिस आने के तेज प्रयास शुरू कर दिये थे। किंतु उतनी ही तेजी से शिवराज ने उनकी वापिसी का विरोध भी शुरू कर दिया था। उन्होंने कहा था कि उनकी वापिसी के साथ ही वे अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे। यह मामला दो साल तक लटका रहा। उमा भारती बाबरी मस्जिद टूटने के प्रकरण में संयुक्त अभियुक्त हैं और उनका अलग होना संघ अपने परिवार के हित में नहीं देखता इसलिए उसने दबाव डाल कर वापिसी का यह फार्मूला तैयार किया कि उमा भारती मध्य प्रदेश में प्रवेश नहीं करेंगीं। उन्हें उत्तर प्रदेश से विधायक का चुनाव लड़वाया गया और जीत की व्यवस्थाएं की गयीं। वे मुख्यमंत्री रह चुकी थीं इसलिए उन्हें उ.प्र. में मुख्यमंत्री प्रत्याशी भी घोषित किया गया।
शिवराज ने एकाधिकार का महत्व समझ लिया था इसलिए अपनी राह के सारे कांटे दूर करना शुरू कर दिये थे। कैलाश विजयवर्गीय सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी थे। एक समय तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी जान को खतरा बताया था और राजनीतिक पंडितों के अनुसार उनका इशारा कैलाश विजयवर्गीय की ओर ही था। केन्द्रीय नेतृत्व ने धीरे से उन्हें मध्य प्रदेश से हटा लिया और पार्टी महासचिव बना कर प्रदेश की राजनीति से दूर कर दिया। इसी तरह दिन में सपने देखने लगे तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को भी अचानक पद मुक्त करवा कर  अपने निकटस्थ नन्द किशोर चौहान को बैठा दिया। प्रभात झा की तरह ही अरविन्द मेनन को भी झटके के साथ संगठन के पद भार से मुक्त कर दिया गया। अब सब शिवराज की कठपुतलियों के हाथ में था। मीडिया को विज्ञापनों से इस तरह से पाट दिया गया था कि प्रदेश में व्यापम जैसा कांड हो या पेटलाबाद जैसा विस्फोट, बड़वानी का आँख फोड़ने वाला कांड हो या मन्दसौर का गोलीकांड सब दब कर रह गये। विज्ञापनों में भी शिवराज का इकलौता चेहरा ही उभरता हुआ नजर आता था। किसानपुत्र, मामा, बेटी बचाओ, कन्यादान, कुम्भ, नर्मदा, तीर्थयात्रा, आशीर्वाद यात्रा, आदि आदि सब व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा था। यहाँ तक कि चुनाव प्रचार सामग्री में भी अटल अडवाणी तो क्या मोदी और शाह को भी दूर रख कर ‘ हमारा नेता शिवराज’ का नारा उछाला गया था।
तय है कि चुनाव में पराजय के बाद उनका यह कहना कि मैं कहीं नहीं जाऊंगा, यहीं रहूंगा, यहीं जिऊंगा, यहीं मरूंगा, स्वाभाविक ही है किंतु पद के साथ मिलने वाला समर्थन और सहयोग अब नहीं मिलेगा। सारे विरोध सामने आने लगेंगे। सबके सत्ता सुख छिन जाने का दोष भी अब अकेले झेलना होगा। आभार यात्रा के दो चार कार्यक्रमों की असफलता ही आइना दिखा देगी। यह बात अलग है कि अडवाणी, सुषमा गुट का यह नेता सैकड़ों अन्य मोदी शाह जैसे भाजपा नेताओं की तुलना में अच्छा था।
वीरेन्द्र जैन
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