पुनरावलोकन फिल्म मेकिंग आफ महात्मा
मोहनदास करमचन्द गांधी के महान बनने की कहानी
वीरेन्द्र जैन
2 अक्टूबर 1869 को जन्मे गांधीजी का यह
150वां जन्मवर्ष है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में पद
ग्रहण करते ही अपने पहले पहले उद्बोधनों में ही इस अवसर का उल्लेख किया था। यद्यपि
2019 के आम चुनावों के दौरान कुछ उम्मीदवारों ने गाँधीजी का उल्लेख उनकी महानता के
अनुरूप न करके उनके हत्यारे का महिमा मंडन करने की कोशिश की जिसे उनके दल समेत
पूरे देश ने एक स्वर से विरोध किया।
मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति संचालनालय
ने इस अवसर पर गांधी जी के जीवन पर बनी कुछ फिल्मों के प्रदर्शन का आयोजन किया
जिनमें उनके 125वें जन्मवर्ष के दौरान बनायी गयी श्याम बेनेगल की फिल्म मेकिंग आफ
महात्मा भी थी। विषय की दृष्टि से यह एक बहुत महत्वपूर्ण फिल्म थी क्योंकि गांधीजी
के अफ्रीका से भारत लौटने के बाद उनके स्वतंत्रता आन्दोलन के बारे में तो बहुत
लिखा पढा गया है किंतु उनकी इस भूमिका में आने के लिए कौन सी परिस्तिथियां
जिम्मेवार थीं और वे किस किस तरह से संघर्ष करते हुए इस स्थिति तक पहुँचे उसकी कथा
कम ही लोगों को ज्ञात है। यह फिल्म उस कमी को पूरी करती है। आम तौर पर हमें जब
महान लोगों के बारे में बताया जाता है तो अवतारवाद पर भरोसा करने वाला हमारा समाज
उन महापुरुषों को जन्मना महान [बोर्न ग्रेट] मान कर चलता है। सच यह है कि किसी भी
व्यक्ति के निर्माण में उसका परिवेश, परिस्तिथियां और उनके साथ उसकी मुठभेड़
जिम्मेवार होती है। इसे वह समय भी निर्धारित करता है जिस समय में वे घटनाएं सामने
आती हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने मेकिंग आफ
महात्मा बना कर बोर्न ग्रेट की धारणा को तोड़ने की कोशिश की है। गांधी जी के
निर्माण की कथा महात्मा बुद्ध की उस कथा से मिलती जुलती है जिसमें सुख सुविधाओं
में पले राजपुत्र सिद्धार्थ ने किसी वृद्ध, बीमार, और मृतक को देख कर इनके हल खोजने
की कोशिश की थी, और उस कोशिश में महात्मा बुद्ध बन गये थे।
गांधीजी के ऐसे बहुत अच्छे वकील होने के
प्रमाण नहीं मिलते हैं जो अपनी तर्क क्षमता से अपने मुवक्किल के पक्ष में काले को
सफेद सिद्ध कर देता है अपितु लन्दन से बैरिस्टिर की डिग्री लेकर लौटने के बाद भी भारत
में उनकी प्रैक्टिस अच्छी नहीं चल रही थी। किसी की सिफारिश पर उन्हें दक्षिण
अफ्रीका में परिवार के अन्दर ही लेनदेन के एक मुकदमे को लड़ने के लिए बुलवाया गया
था। उस मामले में भी उन्होंने एक अच्छे वकील होने की जगह एक सद्भावी पंच की भूमिका
निभाते हुए दोनों के बीच समझौता कराने का प्रयास किया। यह आम वकीलों के व्यवहार से
अलग था क्योंकि अधिक फीस हस्तगत करने के लिए वकील मुकदमे को चलाते रहना चाहते हैं।
समझौते का उनका प्रयास सफल रहा था व इसी सद्भाव से प्रभावित होकर उनके मुस्लिम मुवक्किल
के प्रतिद्वन्दी ने भारत आदि देशों से श्रमिक के रूप में आये लोगों के साथ अंग्रेज
शासकों के व्यवहार के बारे में बताया। खुद भी भेदभाव का शिकार हो चुके गांधी जी को
इससे स्थितियों को और समझने में मदद मिली, जिसके लिए उन्होंने एशिया के लोगों को
संगठित किया और अपने ज्ञान व सद्भावी व्यक्ति की छवि के विश्वास पर विरोध का
नेतृत्व किया। इस काम में उनके सम्पन्न मुवक्किलों ने भी मदद की।
उनकी समझ थी कि व्यक्ति दोषी नहीं होता है
अपितु परिस्तिथियां दोषी होती है व मनुष्य परिस्तिथियों का दास होता है। यह समझ
उन्हें कुरान बाइबिल गीता और टालस्टाय की पुस्तक पढ कर प्राप्त हुयी थी। कहा जा
सकता है कि उनके निर्माण में पुस्तकों के साथ साथ उस धर्म निरपेक्ष भावना की
भूमिका थी जिसके अनुसार वे किसी भी धर्म और उसके ग्रंथों से नफरत नहीं करते थे।
यही कारण रहा कि उन्होंने मानवता का पाठ उन्हीं धर्मग्रंथों से सीखा जिन्हें बिना
पढे या गलत ढंग से पढ कर लोग दंगे करते हैं और हजारों लोगों की हत्याएं कर देते
हैं। जब भी कोई कुछ नया देखता है तो उससे सम्बन्धित अपने परम्परागत प्रतीकों से
तुलना करके अपने विचार बनाता है। गांधीजी की सोच और विचारों को अफ्रीका के संघर्ष
ने काफी बदला। वहीं पर उन्होंने कमजोरों के संघर्ष के दौरान अहिंसा की भूमिका को
समझा और उसका प्रयोग किया। अफ्रीका में ही उन्होंने आन्दोलनों के दौरान सत्याग्रह
का प्रयोग किया।
गांधीजी ने शासकों का विरोध करते हुए भी
युद्ध के समय उनका साथ दिया व रैडक्रास में काम करके घायलों की सेवा की। उन्हें इस
बात से ठेस पहुंची कि ईसाइयत का पाठ पढी नर्सें भी काले लोगों की मरहमपट्टी नहीं
करतीं। उन्होंने खुद यह काम किया और लोगों को प्रभावित किया। उनसे प्रभावित होकर
किसी ने उन्हें अपनी ज़मीन दान कर दी तो उसमें उन्होंने फार्म बनाकर खेती प्रारम्भ
कर दी और उसका नाम टालस्टाय फार्म रखा। जब उन्होंने मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व
किया तो मजदूरों को फार्म पर काम दिया ताकि वे भूखे न मरें और उनका संघर्ष जिन्दा
रहे। यही समय था जब गांधीजी को सादगी और स्वावलम्बन का महत्व समझ में आया। उनका
सूट बूट और टाई छूट गयी। भारत लौटने पर उन्होंने इसी तर्ज पर आश्रम बनाये थे। वे
जो कहते थे उसे खुद करके दिखाते थे इसी क्रम में उन्होंने अपनी पत्नी को भी
आन्दोलन में भाग लेने व जेल जाने के लिए सहमत कर लिया तब उन महिलाओं को उतारा जिन
के पति आन्दोलन के कारण जेल में थे। समय पर दाई के न आने पर उन्होंने अपनी पत्नी
की डिलेवरी भी खुद करायी।
गांधीजी ओजस्वी वक्ता नहीं थे किंतु बहुत सरलता
से अपनी बात रखते थे जिससे उनकी बातों में सच्चाई झलकती थी। विचार सम्प्रेषित करने
की कला में माहिर थे और अपने आचरण से वे सन्देश देते थे, इसके साथ साथ उन्होंने
वहां इंडियन ओपीनियन नामक अखबार निकाला जिससे उनके विचारों का प्रसार हुआ। उनके
विचारों से प्रभावित लोगों ने उन्हें सहयोग दिया। यही काम उन्होंने भारत लौट कर भी
किया और भारत में यंग इंडियन व हरिजन नामक अखबार निकाले। उनके विचारों से प्रभावित
होकर बड़े अखबार के सम्पादकों ने उनके आन्दोलन पर लेख लिखे और उनकी आवाज ब्रिटिश
हुकूमत तक पहुँची, जिससे उन्हें संवाद सम्प्रेषण में प्रैस का महत्व समझ में आया।
उनके आश्रमों में लगातार विदेशी अखबारों के सम्वाददाता मेहमान बनते रहे।
गांधीजी कुल इक्कीस साल साउथ अफ्रीका में
रहे और जो मोहनदास करमचन्द बैरिस्टर होकर गये थे वे महात्मा गांधी बन कर भारत
लौटे। इक्कीस साल की इस कहानी को सवा दो घंटे की फिल्म में बांध कर श्याम बेनेगल
जैसे फिल्मकार ही दिखा सकते थे, जो 25 वर्ष पूर्व उन्होंने सफलता पूर्वक कर के
दिखाया था। किसी बायोपिक में सम्बन्धित व्यक्ति के रंग रूप लम्बाई देहयष्टि के
अनुरूप कलाकार चाहिए होते हैं जिसे फिल्मी दुनिया के ही रजत कपूर और पल्लवी जोशी
जैसे सुपरिचित कलाकारों ने सफलतापूर्वक निर्वहन करके दिखा दिया था। यही कारण रहा
कि इस फिल्म के लिए 1996 में बैस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड मिला और रजत कपूर को
बैस्ट एक्टर का अवार्ड मिला था।
व्यक्तित्व निर्माण की ऐसी सजीव कथाओं को
बार बार देखा दिखाया जाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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