धारा 144 लगाकर धारा 370 का समापन
वीरेन्द्र जैन
चक्रवर्ती सम्राटों की पुराण गाथाओं और
अश्वमेध यज्ञ करने की कथाओं में श्रद्धा रखने वाला सामंती समाज स्वभावतः भूमि और
भवनों को हस्तगत कर प्रसन्न होता है। जब मामला देश के स्तर का होता है तो दूसरे
राज्यों को अपने राज्य में मिला कर उसे खुशी मिलती है। पुराने समय में राज्य,
युद्ध या युद्ध का भय दिखा कर जीते जाते थे, अब तरीका बदल गया है। सिक्कम और गोवा
के भारत में विलय पर देश में सर्वत्र प्रसन्नता देखी गयी थी। गोवा का विलय नेहरूजी
के समय हुआ था और सिक्कम का विलय श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते हुए
हुआ था और जब जनता पार्टी के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उक्त
विलय पर प्रतिकूल टिप्पणी की थी तो उन्हें अपने ही मंत्रिमण्डल के सदस्यों की
आलोचना का शिकार होना पड़ा था। बाद में जैसा कि होता है, उन्होंने अपनी निजी बात के
गलत अर्थ लगाने का बयान देकर स्थिति साफ की थी। दुनिया का आकार तो उतना का उतना ही
रहता है किंतु उसमें राजनीतिक भूगोल बदलता रहता है जिससे इतिहास बनता है। पता नहीं
कि हम पुरने समय में किन सीमाओं से बने देश को भारत, हिन्दुस्तान, इंडिया या
भरतखण्डे जम्बूदीपे आदि मानते आ रहे हैं और अपने देश को प्राचीन देश कह कह कर उसकी
एक एक इंच भूमि पर सौ सौ शीश चढा देने की गाथाएं बनाते, सुनाते रहते हैं, पर इतिहास
बताता है कि देश की सीमाएं बदलती रही हैं। शायद यही कारण रहा है कि पुराने समय में
सैनिकों द्वारा देश नहीं अपितु राजा की बफादारी का संकल्प लिया जाता था।
हमारे आज के नक्शे में दर्शाये गये भूभाग
पर हजारों सालों से हूण, शक, मंगोल, मुगल, अंग्रेजों आदि के हमले होते रहे हैं और समय
समय पर राज्यों के भूगोल बदलते रहे हैं। राजनीतिक नक्शे जड़ नहीं होते क्योंकि
उन्हें चेतन लोगों द्वारा बनाया जाता है और उन्हीं के द्वारा बदला भी जाता है।
1947 में ब्रिटिश इंडिया को यह भूभाग छोड़ कर जाना पड़ा। अंग्रेजों को इस क्षेत्र से
खदेड़ने में इसके हिन्दू, मुस्लिम, सिख ईसाई, पारसी, जैन बौद्ध आदि विभिन्न धर्मों
की मानने वाले अनेक निवासियों ने एक साथ अंग्रेजों से टक्कर ली और महात्मा गांधी
के नेतृत्व के कारण कम से कम हिंसा, प्रतिहिंसा से उन्हें जाने को विवश कर दिया। अहिंसक
सत्ता परिवर्तन की यह अनूठी घटना थी। किंतु एक साथ अहिंसक संघर्ष करने वाले लोग
सत्ता के सवाल पर धार्मिक आधार पर विभाजित हो गये, हिंसा पर उतर आये और 14-15
अगस्त 1947 को हिन्दुस्तान व पाकिस्तान दो बड़े हिस्सों में हम बंट गये। दोनों देशों
के निर्माण में अंग्रेजों द्वारा शासित राज्यों को चयन की स्वतंत्रता थी कि वे
चाहें तो भारत या पाकिस्तान में मिल स्कते हैं, और चाहें तो स्वतंत्र भी रह सकते
हैं। केरल के दो राज्य अंग्रेजों के अधीन नहीं थे पर उन्होंने भारत में विलय मंजूर
किया। हैदराबाद और जूनागढ राज्य प्रमुखों के न चाहने पर भी हिन्दुस्तान में मिलाये
गये क्योंकि वहाँ के शासक मुस्लिम थे व जनता का बड़ा हिस्सा हिन्दू था। इसी तरह
जम्मू कश्मीर राज्य भी उस दौरान अंग्रेजों के अधीन नहीं था पर उसने स्वतंत्र रहना
चाहा। 1845 में नियंत्रण में दुरूहता को देखते हुए अंग्रेजों ने कश्मीर घाटी को जम्मू
के डोगरा राजा गुलाब सिंह को 75 लाख नानकशाही रुपयों में बेच दिया था। यह क्षेत्र
मुस्लिम बहुल था और जम्मू से आवागमन के रास्ते आज जितने सरल नहीं थे। कश्मीर घाटी
और लेह लद्दाख में इसीलिए समानांतर नेतृत्व उभरता रहा। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ
में शेख अब्दुल्ला जनता के नेता के रूप में उभरे और मुस्लिम कांफ्रेंस के नाम से
उन्होंने अपना संगठन बनाया तो वह सबसे बड़ा और प्रभावकारी संगठन था, जिसमें हथियार
बन्द लड़ाके भी शामिल थे। बाद में उन्होंने अपने संगठन का नाम नैशनल कांफ्रेंस कर
लिया और भारत की आज़ादी के लिए चल रहे राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं से सम्पर्क
साधा।
उन दिनों कांग्रेस की नीति थी कि वह
राजाओं के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों को सीधे सहयोग नहीं करती थी पर अपने नेताओं को
निजी तौर पर मदद करने के लिए कहती थी। शेख अब्दुल्लाह, जनता की मांगों के लिए राजा
से टकराते रहते थे। नेहरू और शेख अब्दुलाह की मित्रता इसी सन्दर्भ में परवान चढी।
जब शेख अब्दुलाह, जो कश्मीर के हिन्दू और मुसलमानों दोनों का नेता था ने 11 जून
1939 को एक अधिवेशन में मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम नैशनल कांफ्रेंस रखा तो उनका एक
धड़ा चौधरी गुलाम अब्बास के नेतृत्व में टूट गया जो इस नाम परिवर्तन के खिलाफ था। इससे
थोड़ा कमजोर होकर शेख अब्दुल्लाह नेहरू और कांग्रेस के और करीब आ गये। परोक्ष में कांग्रेस का समर्थन पाकर शेख
अब्दुल्लाह की नैशनल कांफ्रेंस ही वहाँ का प्रमुख संगठन रहा जिसने अपने संघर्षों
से जनता को अनेक अधिकार दिलवाये जिनमें ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति भी था।
1947 में तत्कालीन राजा हरी सिंह के ढुलमुल
रवैये को देखते हुए, कभी मुस्लिम कांफ्रेंस का हिस्सा रहे गुलाम अब्बास के धड़े ने
पाकिस्तान से मिल कर कबाइलियों की फौज से हमला करा दिया जिसका सामना शेख
अब्दुल्लाह ने अपने लड़ाकों की मदद से करते हुये भारत सरकार से अविलम्ब हस्तक्षेप
करने का आग्रह किया। भारत सरकार बिना विलय के दूसरे के राज्य में अपनी फौज नहीं
भेज सकती थी इसलिए उसने राजा हरी सिंह पर विलय के लिए दबाव डाला जो परिस्तिथियों
को देखते हुए उन्हें स्वीकार करना पड़ा। इस पर हस्ताक्षर होते ही भारत सरकार ने
अपनी फौज घाटी में भेजी, जो नैशनल कांफ्रेंस के लड़ाकों के साथ मिल कर लड़ी। नैशनल
कांफ्रेंस के अनेक लड़ाके शहीद हुये, किंतु तब तक आधा कश्मीर नियंत्रण से बाहर जा
चुका था जो आज आज़ाद कश्मीर या पाकिस्तान आक्यूपाइड कश्मीर के नाम से जाना जाता है।
पाकिस्तान इसी को आधार बना कर अपने यहां प्रशिक्षित घुसपैठिये भेजता है, जो आतंकी
गतिविधि करते हैं, अलगाववाद भड़काते हैं।
शेख अब्दुल्लाह कश्मीर घाटी में अपनी
हैसियत को देखते हुये स्वयं भी स्वतंत्र कश्मीर का शासक बनना चाहता था इसलिए उसने
युद्ध विराम के बाद विलय की शर्तें रखीं जिनको माने बिना घाटी की जनता का विश्वास
नहीं जीता जा सकता था, इसलिए सबको वे शर्तें माननी पड़ीं। धारा 370 के प्रावधान
उन्हीं शर्तों के कारण लाये गये थे, जो क्रमशः कमजोर किये जाते रहे। श्रीमती
इन्दिरा गाँधी के समय इमरजैंसी में बहुत से प्रावधान हटा दिये गये थे।
मुस्लिम कांफ्रेंस के टूटे हुए धड़े का
नेता ही पीओके में गया था और उसका दखल अब भी कश्मीर में था। घाटी की भौगोलिक
स्थिति एवं उसमें अंतर्राष्ट्रीय रुचि को देखते हुए वहाँ सेना को बनाये रखना पड़ा व
चुनाव इस तरह से कराना पड़े ताकि भारत सरकार के समर्थन वाली राज्य सरकार ही गठित
हो। उल्लेखनीय है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय चुनाव हुये थे तब
उन्होंने कहा था कि हमारी पार्टी चुनाव हार गयी तो क्या हुआ किंतु इस बार कश्मीर
में लोकतंत्र जीता है। कहा जाता है कि उस समय पहली बार वहाँ साफ सुथरे चुनाव हुये
थे।
सच है कि जम्मू कश्मीर में लम्बे समय तक शासन
शेख अब्दुल्लाह परिवार या उनके रिश्तेदारों आदि को जागीर की तरह सौंपा जाता रहा और
सेना की सुरक्षा में वे उसी तरह शासन भी करते रहे। इन परिवारों पर सरकारी धन के
दुरुपयोग कर निजी सम्पत्ति बनाने के आरोप गलत नहीं हैं। जिस धन से विकास द्वारा
वहाँ के लोगों का विश्वास जीत कर उन्हें विलय का महत्व समझाये जाने में लगाना था,
उसे कश्मीर के शासकों ने निजी हित में लगा कर दोहरा नुकसान किया। कश्मीर के साथ
प्रयोग दर प्रयोग किये जाते रहे। जगमोहन जैसे राज्यपालों ने दमन के सहारे कश्मीर
को बदलने की कोशिश में वहाँ अलगाववाद आतंकवाद के साथ साम्प्रदायिकता के बीज भी बो
दिये जो वहाँ कभी नहीं रही। इसी का परिणाम था कि एक लाख हिन्दू पंडितों को कश्मीर
छोड़ कर जम्मू में बसना पड़ा। यह अलगाव अभी भी समस्या बना हुआ है। भयग्रस्त पंडित
लाख आश्वासनों के बाद भी लौटने का जोखिम नहीं उठाना चाहते पर मिलने वाली राहत को
बनाये रखने व बढाने के लिए अपने असंतोष को राजनीतिक हवा देने का काम निरंतर करते
रहते हैं। अलगाववादी भी समय समय पर साम्प्रदायिक आधार पर आतंक के लिए नमूने की
हिंसा करके भयभीत करते रहते हैं। साम्प्रदायिकता पर आधारित राजनीति भी इसमें अपने
हाथ तापती रहती है।
दुर्घटना में गम्भीर रूप से घायल व्यक्ति
का इलाज वही डाक्टर कर सकता है जो या तो अनुभवी हो या जो मरीज के जीने मरने से निरपेक्ष
हो कर अपने प्रयोग करना चाहता हो। ऐसे ही कश्मीर को बहुत से डाक्टर छूने से ही
डरते रहे और इस दशा से लाभांवित लोग यथास्थिति बनाये रखने के लिए उपचार न कर के
केवल जिन्दा रखे रहे। इस दिशा में श्रीमती गाँधी ने इमरजैंसी के दौरान कुछ सुधार
किये थे या उसके बाद अब नरेन्द्र मोदी सरकार ने जोखिम लेने का साहस दिखाया है। वहाँ
संचार के साधन बन्द हैं और कर्फ्यू जैसे हालत हैं।
पक्ष विपक्ष दोनों ही चाहते रहे कि धारा
370 की समाप्ति हो किंतु खतरे को दूसरे पर टालने की कोशिश करते रहे। भाजपा ने जब
यह नारा दिया था, तब उसे सत्ता और फिर परिपूर्ण सत्ता में आने का भरोसा ही नहीं
था। अपने ऐसे ही वादों के कारण उन्हें सत्ता में आने पर बहुत असमंजस का सामना करना
पड़ा है। वे इस या उस बहाने से उससे बचते रहे, किंतु जब सारे बहाने सामाप्त हो गये
तो ओखली में सिर देना ही पड़ा।
धारा 370 हटना चाहिए थी किंतु धारा 144
लगा कर नहीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
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