समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था
संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक
वीरेन्द्र जैन
मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक
ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी
विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में
ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।
खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही
है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम
हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या
वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर की ‘जिन्हें
जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ इसीकी अगली कड़ी है।
अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता
रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती
रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी
पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका
कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘नरक यात्रा’ की
तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से
जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने
में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों
के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों
व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है।
देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका
को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक
छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक
रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये
जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें
हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय
के खतरे की पहचान की जा सकती है।
“जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुन-चुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगे, जो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगें, जो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगे, विशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटी-छोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगें, तब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा। “
इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के
तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया
है जैसा एक प्रयोग फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में किया गया था। इस वार्तालाप से
उक्त इतिहास पुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे
सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलता
पूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।
नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा.
राधाकृष्णन ने कहा था कि “ टाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर
ओफ इट”। महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय
हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम
किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक
होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय
है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को
ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है।
पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना
माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से
कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ
लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में
ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने
वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास
करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण
चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह
दी है।
इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत
होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान
उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे
साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे
रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते
हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय
संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब
ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या
इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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