शुक्रवार, अप्रैल 24, 2020

फिल्म निःशब्द की भूमिका की तरह थी एक दिन अचानक


फिल्म निःशब्द की भूमिका की तरह थी एक दिन अचानक

वीरेन्द्र जैन
Mrinal Sen's Ek Din Achanak (1989),... - Imprints and Images of ...
गत शताब्दी के नब्बे के दशक में जो श्रेष्ठ फिल्में बनीं, उनमें से एक सुप्रसिद्ध निर्देशल मृणाल सेन के निर्देशन में बनी फिल्म ‘एक दिन अचानक’ भी है। जिस फिल्म में जब श्रीराम लागू, अपर्णा सेन, शबाना आज़मी, मनोहर सिंह आदि समानांतर सिनेमा के लिए प्रसिद्ध उन कलाकारों ने अभिनय किया हो जो अपनी भूमिका में जान डाल देते हैं, तो फिल्म का अच्छा होना स्वाभाविक ही है। ऐसी फिल्मों को ‘बिटवीन द लाइंस’ देखना और समझना होता है, इसलिए जितनी बार भी देखी जाती हैं उतनी बार ही छूट गये अर्थ समझ में आ जाते हैं। हाल ही में लाक डाउन के दौरान दूरदर्शन के विशेष कार्यक्रम मे दोपहर में अनेक अच्छी फिल्में दिखायी गयीं और उक्त फिल्म को पुनः देखने का मौका मिला।
फिल्म की कुल कथा तो इतनी ही है कि इतिहास के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर [श्रीराम लागू] हैं, जिनके तीन बड़े बड़े बच्चे हैं। वे न केवल अध्यापक ही रहे अपितु अपने विषय के विशेषज्ञ हैं, विषय पर पेपर्स लिख कर नई नई स्थापनाएं देते रहते हैं, देश भर में जिनकी चर्चा होती है। उनकी गिनती विषय के विद्वानों और बुद्धिजीवियों में होती है। बड़ी लड़की [शबाना आज़मी] किसी कार्यालय में नौकरी करती है, बेटे का पढाई में मन नहीं लगा इसलिए वह उनके मन के मुताबिक नहीं बन सका और छोटा मोटा व्यापार करता रहता है। वह अपने पिता के स्वप्नों को पूरा नहीं कर सका इसलिए दोनों में सम्वाद टूटा हुआ है। वह स्वाभिमानी है और पिता से उनकी शर्तों पर अपने काम धन्धे हेतु पैसा नहीं लेना चाहता। कालेज में पढ रही छोटी बेटी की अपनी जिन्दगी है। प्रोफेसर की पत्नी एक संतुष्ट घरेलू महिला हैं तथा उन दायित्वों के निर्वहन में अपना जीवन लगा रही हैं जो परिवार और समाज ने उन्हें दिये हैं।
यह उस बुद्धिजीवी वर्ग की कहानी है जिसे परम्परागत परिवार मिला है, किंतु जो अपने बौद्धिक स्तर के जीवन साथी और परिवेश के न मिलने से कुण्ठित रहता है। जब उससे ऐसी एक युवा महिला प्रोफेसर सलाह लेने के लिए मिलती है जो उससे बौद्धिक स्तर पर बात कर सकती है, बहस कर सकती है, व उम्र और जेंडर भेद उसे बांधता नहीं है तो वह खुश रहता है। पुस्तकों के बीच शुष्क हो गया प्रोफेसर, उसके आने पर खिल जाता है भले ही उनके बीच केवल विषय से सम्बन्धित वार्तालाप ही होता है। प्रोफेसर का यह लगाव रिश्ते की किसी परिभाषा में परिभाषित नहीं हो पाता। उम्र भेद के कारण भी युवती की सोच में भी किसी अलग से सम्बन्ध की कल्पना नहीं आती और वह प्रोफेसर के मानस से अनजान बनी रहती है। दूसरी ओर प्रोफेसर कुण्ठा पालता रहता है। उसे कोई भौतिक दुख नहीं है, उसकी पेंशन है, बेटी नौकरी कर रही है, मकान का किराया आ रहा है, बेटा भले ही सफल न हो किंतु स्वाभिमानी है और अपने काम के बारे में ज्यादा चर्चा करना पसन्द नहीं करता, पर कुछ करता रहता है।
प्रोफेसर मानता है कि व्यक्ति को एक ही जीवन मिलता है और उसका जीवन असफल होकर बीत चुका है। शायद इसी सोच में वह एक दिन अचानक घर छोड़ कर चला जाता है। वह किसी को बता कर नहीं जाता और ना ही कोई सूचना पत्र छोड़ कर जाता है। उसका बैंक बैलेंस भी अछूता ही है। उसके न आने से सबके अपने अपने दुख, चिंताएं हैं और उसी अनुसार आशंकाएं प्रकट होती हैं। जिस लड़की से बौद्धिक चर्चा करके प्रोफेसर खुश होते थे और जिसे भी इनके मौन आकर्षण का भान नहीं था, उसका  किसी को पता भी नहीं चलता गर पुस्तकों के बीच एक कार्ड नहीं मिलता जिस पर प्रोफेसर ने खूबसूरत अक्षरों में कई पर्तें देकर उसका नाम लिख कर नहीं रखा होता, जैसा कि किशोर अवस्था के प्रेमी बच्चे अपने प्रिय का लिखते हैं।
उसके जाने के एक वर्ष बाद सब उसे याद करते हैं। बड़ी बेटी समझती है कि वह उन्हें बेकार ही में महान व्यक्ति समझती रही, जबकि वे एक साधारण मनुष्य थे, छोटी बेटी समझती रही कि वे एक अहंकारी व्यक्ति थे और बेटा समझता रहा कि उन्हें घर में किसी की परवाह नहीं थी। बेटे का दुख यह भी है कि उनके नाम पर जो पैसा जमा है वह किसी के काम नहीं आयेगा क्योंकि गायब हुआ व्यक्ति जब सात साल तक नहीं लौटता तभी उसके वारिस उसकी सम्पत्ति पर दावा कर सकते हैं। उनका व्यापारी साला जिसे वे पसन्द नहीं करते थे, और जो इस घटना के बाद परिवार के सबसे बड़े हितचिंतक के रूप में उभरता है, की चिंता है कि उनकी किताबों से मुक्ति पायी जाये जिसे उन्होंने अपने पिता द्वारा जोड़ी पुस्तकों में वृद्धि करके संग्रहीत की थीं। उस व्यापार बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए वे पुस्तकें ही सबसे बड़ी पारिवारिक बोझ हैं। अंततः वह उन्हें कालेज की एक लाइब्रेरी को देने के लिए सबको मना लेता है।
अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म निःशब्द भी इसी विषय के आस पास है जिसमें फोटोग्राफी के शौकीन सेवानिवृत्त अमिताभ किसी खूबसूरत पहाड़ी जगह पर अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहते हैं, कि उनकी युवा बेटी की एक सहेली उनके पास रहने के लिए आ जाती है, जिसका अपने प्रेमी से ब्रेक अप हो चुका है। वह उम्र से लापरवाह हो कर अपनी सहेली के पिता अमिताभ को पुरुष मित्र की तरह देखने लगती है। इस रिश्ते से चकित हो कर भी उनके अन्दर की सोयी भावनाएं जाग जाती हैं और वे उसके प्रति भावुक होकर सोचने लगते हैं। कहते हैं कि – खैर खून खाँसी खुशी, बैर प्रीति, मदपान / रहिमन दाबे ना दबे जानत सकल जहान। उनका प्रेम और खुशी भी उनकी बेटी, पत्नी और मित्र जैसे साले के आगे सारा रहस्य प्रकट कर देते हैं। इस रिश्ते को जिसे समाज स्वीकार नहीं करता, उन्हें एक अपराध बोध में डाल देता है। उनकी पत्नी और बेटी छोड़ कर चली जाती है व उस लड़की का प्रेमी भी उसे मना कर ले जाता है। इस फिल्म में भी वरिष्ठ नायक आत्महत्या के लिए जाता है और फिर यह सोच कर वापिस आ जाता है कि उसे इस दौरान जो स्मृतियां मिली हैं उन्हें वह जी सके।
दोनों ही फिल्मों में एक जैसी ही सामाजिक विसंगति सामने आयी है किंतु तीस साल पहले का नायक अपने को बिना अभिव्यक्त किये अज्ञातवास पर चला जाता है किंतु तीस साल बाद की फिल्म का नायक अपने मित्र के सामने स्वीकार करके यादों में जीना चाहता है।       
इन फिल्म के कथानक छोटे होते हुए भी पात्रों की अपनी भूमिका से समाज व जिन्दगी के अनेक रंग और रिश्तों की विसंगतियां प्रकट होती हैं। शायद कवि केशवदास का भी यही दर्द रहा होगा। अमिताभ की दो और फिल्में ‘ब्लैक’ व ‘चीनी कम’ भी इसी तरह की फिल्में हैं।
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 किसी कवि सम्मेलन में कवि भारत भूषण जी आये हुये थे और कवि सम्मेलन से पूर्व हुयी मुलाकात में मैंने उनसे उनके प्रसिद्ध गीत- यह असंगति जिन्दगी के द्वार सौ सौ बार रोई, बाँह में है और कोई चाह में है और कोई – सुनाने का आग्रह किया। वे बोले कि यह गीत तो मुझे कवि सम्मेलन में सुनाना ही पड़ेगा। इसे लिखते समय मुझे अनुमान नहीं था कि यह असंगति इतनी व्यापक है कि इसे सैकड़ों जगह हजारों बार सुना चुका हूं, किंतु फिर भी इसकी मांग बनी रहती है।  
वीरेन्द्र जैन
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