गुरुवार, अक्टूबर 08, 2020

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य

 

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य


वीरेन्द्र जैन

कुछ टीवी चैनलों, और लगभग भोंकने काटने के अन्दाज में चिल्लाने वाले टीवी एंकरों ने सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु को जानबूझ कर सनसनीखेज बनाया था। यह कहना सही नहीं होगा कि रिया चक्रवर्ती को मिली जमानत ने उसका पटाक्षेप कर दिया है। सच तो यह है कि कहानी यहाँ से शुरू होना चाहिए। इस कहानी ने पूरे देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, कानून व्य्वस्था, संचार व्यवस्था, धर्म, संस्कृति आदि में छुपी सड़ांध को उघाड़ कर रख दिया है।

सबसे पहले तो बता दूं कि किसी भी स्वनिर्मित, सम्भावनाशील, लोकप्रिय, युवा कलाकार के असामायिक निधन पर किसी भी परिचित, अपरिचित मनुष्य को दुख होना स्वाभाविक है। यह दुख मुझे भी हुआ था, किंतु साथ ही साथ बाबा भारती की कहानी की तरह दुख और करुणा के नाम पर ठगने वालों के षड़यंत्र पर गुस्सा आना भी स्वाभाविक है, ऐसे लोगों को सबक सिखाने का तरीका भी अपनी क्षमताओं और परिवेश के अनुसार ही खोजना होगा। रिया और उसके वकील ने बिना उत्तेजित हुये इतने बड़े षड़यंत्र का सामना करने में जिस धैर्य और विवेक का प्रदर्शन करते हुये नियमों का पालन किया व न्याय का सम्मान किया उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

सबसे पहले टीवी चैनलों को लें। नई तकनीक आने के बाद इस बात का पता लगना आसान हो गया है कि कौन सा चैनल किस समय में कितना देखा जा रहा है। इसी टीआरपी के आधार पर विज्ञापन कम्पनियां अपने विज्ञापन देती हैं जो उनकी आय का मुख्य स्रोत है। दूसरे सत्ता पर अधिकार करने के लिए राजनीतिक दल और अपने पसन्द के नेता और दल को सत्तारूढ कराने को उत्सुक कार्पोरेट घराने, उनके नेताओं और दल के साथ साथ उनकी सरकार की छवि को बनाने के लिए निरंतर प्रचार कार्य कराते हैं, जिसके लिए टीवी जैसा दृश्य [विजुअल] मीडिया सर्वोत्तम साधन है। यही कारण है कि बहुत सारे समाचार चैनल समाचारों के नाम पर राजनीतिक नेताओं या दलों का विज्ञापन करने लगे हैं। बहसों के नाम पर तयशुदा निष्कर्ष निकालने को ड्रामा रचते हैं। इसी क्रम में वे साम्प्रदायिकता के प्रसार और विरोधियों की चरित्र हत्या की सुपारी भी लेते हैं। अपनी टीआरपी के लिए वे सामान्य घटनाओं को सनसनीखेज बनाने में भी नहीं हिचकते। जिस सामान्यजन में राजनीतिक चेतना के संचार का काम करना चाहिए था, उसे और अधिक कूपमंडूक, अन्धविश्वासी, और पोंगापंथी बनाने का काम वे लोग करा रहे हैं, जो यथास्थिति से लाभान्वित हैं। रिया के मामले में कुछ टीवी चैनलों ने यही काम किया और टीआरपी को देखते हुए लगातार तीन महीने तक जारी रखा। इस क्रम में इन चैनलों ने उसे लुटेरी, हत्यारी, चरित्रहीन, ड्रग व्यापारी, साबित करने के लिए किसी भी झूठ या अतिरंजना से गुरेज नहीं किया। उसकी अनुमति के बिना उसके निजी जीवन के फोटोग्राफ अपनी सुविधा के अनुसार संशोधित करके प्रसारित किये, जिनका खबर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। नैतिकता का तकाजा है कि समाचार को समाचार की तरह और विचार को विचार की तरह उचित जगह पर विचारक के नाम के साथ देना चाहिए। अनुमानों और सम्भावनाओं को समाचार के साथ नहीं मिलाना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हर समाचार और विचार की जिम्मेवारी लेने वाला, और भूल के लिए खेद प्रकट करने वाला कोई होना चाहिए। ऐसा खेदप्रकाश, उसी समय पर व उतने ही विस्तार के साथ दिया जाना चाहिए जितने में गलत समाचार दिया गया हो। जिनकी लोकप्रियता से उनका व्यवसाय जुड़ा है, उनके बारे में समाचार देते समय विशेष सतर्कता बरती जाना चाहिए और क्षति के अनुसार ही दण्ड मिलना चाहिए।

विचार विहीन संगठनों को गिरोह तो कह सकते हैं, पर उन्हें राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता। लोकतांत्रिक घोषित हमारे देश में व्यक्तियों या वंशों के नेतृत्व में गठित गिरोह राजनीतिक दलों के रूप में पहचान बनाये हुये हैं, जिन्हें कार्पोरेट घरानों की पूंजी पोषित करती रहती है। जनता को भ्रमित करने के लिए ये कभी पूर्व राजपरिवारों के वंशजों, कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के वंशजों, कभी फिल्मों व टीवी के कलाकारों, लोकप्रिय प्रशासनिक अधिकारियों, सेना व पुलिस में रहे अधिकारियों, धार्मिक वेषभूषा वाले व्यक्तियों, खिलाडियों, साहित्यकारों, गायकों, आदि आदि लोकप्रिय व्यक्तियों को आगे रख, पूंजीपतियों से प्राप्त धन को बांट कर सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं। इसके बाद भी उन्हें दलबदल कराने और तरह तरह के हथकंडों का सहारा लेना पड़ता है। कभी 1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा आज केन्द्र व 19 राज्यों में ऐसे ही हथकण्डों से सत्तारूढ हो चुकी है, और इस सत्ता को भी बनाये रखने के लिए उसे कभी राज्यपाल की मदद से रात के अँधेरे में शपथ ग्रहण कराना होता है तो कभी होटलों में बन्धक बना कर विधायकों की व्यापक खरीद करनी पड़ती है। आगामी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए, भाजपा ने सुशांत सिंह के मामले को ‘आपदा में अवसर’ की तरह लपका व बिहार को छोड़ कर आये उस कलाकार को, बिहार का सपूत और शहीद बनाना चाहा जिसने बिहार के नाम पर ना तो शिव सेना की ज्याद्तियों का विरोध किया ना लाकडाउन में प्रवासी मजदूरों की वापिसी में मदद की। इस योजना के लिए उसे सुशांत सिंह की लगभग स्पष्ट आत्महत्या को हत्या बताना पड़ा, मुम्बई की सबसे अच्छी मानी जाने वाली पुलिस को षड़यंत्रकारी बताना पड़ा व ऐसा करने का कारण गढने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पुत्र का नाम घसीटना पड़ा। और यह सब उन्होंने बिहार के चुनावों में भावनाओं का छोंक लगाने के लिए रचा। इससे बात नहीं बनी तो मृतक के पिता से बिहार में इस आधार पर रिपोर्ट दर्ज करा दी कि मुम्बई पुलिस ठीक से जाँच नहीं कर रही। फिर इसी बहाने बिहार सरकार ने सीबीआई की जाँच का अनुरोध किया जिससे सीधे केन्द्र सरकार के नियंत्रण में मामला चला गया। आजकल सीबीआई की कार्यप्रणाली से सब परिचित हैं। एक कहानी यह भी गढी गयी कि सुशांत की लिव इन पार्टनर रही रिया ने उसके सत्तरह करोड़ रुपये हड़प लिये हैं, इस बहाने से केन्द्र सरकार की एक और जाँच एजेंसी ईडी [एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट] को दखल का मौका मिल गया जिसने सूत्र तलाशने की कोशिश की, और पाया कि लिव इन पार्टनर जो कि लगभग पत्नी का दर्जा रखता है के बाबजूद रिया ने सुशांत के पैसे का कोई दुरुपयोग नहीं किया। अगर उसने कुछ पाया भी होगा तो वह सुशांत के हिस्से की ही अनियमितताएं पायी होंगीं, जो किसी भी कला के व्यवसाय के अनिश्चित आय वाले व्यक्ति के खातों में देखी ही जा सकती हैं। इतना ही नहीं उन्होंने नार्कोटिक्स वालों का प्रवेश भी इसमें करा दिया क्योंकि सुशांत सिंह ड्रग एडिक्ट था और लाकडाउन के दौरान अपने मित्र की आदत को पूरा करने के लिए रिया ने अपने भाई से मदद करने के लिए कहा था और अपने पास से पैसे दिये थे।

अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए किसी भी हद तक गिरने वाले इन लोगों ने बालीवुड जैसी साम्प्रदायिक सौहार्द वाली जगह में साम्प्रदायिकता का प्रवेश कराने की कोशिश की और भाईभतीजावाद जैसा हास्यास्पद आरोप लगाया। कोई पक्षपात कराके अपने रिश्तेदार को एक बार मौका तो दिला सकता है किंतु कला की दुनिया में सफलता प्रतिभा से ही मिलती है। इन्होंने अधकचरे कलाकारों द्वारा बेढंगे आरोप ही नहीं लगवाये अपितु नोएडा में हिन्दी फिल्म उद्योग स्थापित करने जैसा हास्यास्पद विचार भी सामने ले आये। यह स्पष्ट संकेत था कि भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार इन सारी घटनाओं में एक पक्ष की तरह काम कर रही हैं।

रिया को भले ही जमानत बहुत सारे किंतु परंतुओं के बाद ही मिली है और कई शर्तें लगायी गयी हैं किंतु उसकी जमानत के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश भर में फैले ड्रग के जाल के प्रति आँखें मूंद लेने वाली केन्द्र सरकार किसी थानेदार की तरह किसी निर्दोष को गिरफ्तार करने के लिए गांजे की पुड़ियां सुरक्षित रखती है।

इस तरह यह मामला केवल एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी की स्वतंत्र विचारों वाली माडल बेटी का ही मामला नहीं है अपितु राजनीति के लिए किसी भी स्तर तक गिरने का मामला भी है। आज जो दल चुनावों में पराजित हो कर विपक्ष में बैठे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि किसी चुनावी प्रबन्धक को पार्टी अध्यक्ष पद तक पहुंचाने वाले इस दल की गतिविधियों को समय पूर्व पहचानने और षड़यंत्रों को निर्मूल कर देने पर ही उनकी सुरक्षा है। कभी आगे बढ कर हमला कर के भी सम्भावित हमले के नुकसानों को रोका जा सकता है। काश तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गणेशजी को दूध पिलाने वाली अफवाहों की जाँच करा ली होती या दो हजार के नोट में चिप बताने वाले टीवी चैनलों के झूठ बोलने को उजागर कर दिया होता तो झूठ की इतनी व्यापक एजेंसियां नहीं खुल पातीं। अभी भी समय है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि तीन महीने तक हैडलाइन बनने वाली रिया को जमानत मिलने की खबर पिछले पृष्ठों पर कम जगह में क्यों छपी है?

 वीरेन्द्र जैन

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