शनिवार, अगस्त 26, 2023

श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय

इकला चलने वाले

वीरेन्द्र जैन


मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना के अंतर्गत बैंक की नौकरी से सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने का फैसला लिया था तो सोच में साहित्य सृजन और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने का विचार था। इसी क्रम में साहित्यकारों से मुलाकात का सिलसिला प्रारम्भ हुआ और आग्नेय जी से मिलना हुआ जो उस समय साहित्य परिषद के सचिव और उसकी साक्षात्कार पत्रिका के सम्पादक थे। वे उस कविता के बड़े कवियों में गिने जाते थे जो कविता मेरी समझ में कम आयी किंतु साहित्य जगत की मान्यता के अनुसार सैकड़ों अन्य लोगों की तरह मैं इसमें अपनी समझ का ही दोष मानता था और सम्मान का भाव रखता था।

वे वामपंथी आन्दोलन से जुड़े रहे थे और किसी ने बताया था कि वे कम्युनिष्ट पार्टी के अखबार जनयुग में काम कर चुके थे किंतु अब आन्दोलन के प्रति क्रिटीकल थे। मैं जब उनसे मिला तब तक किसी ने मेरे बारे में उन्हें बता दिया था कि मैं मैंने कम्युनिष्ट पार्टी में काम करने के लिए बैंक की नौकरी छोड़ी है, जबकि सच यह था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैंने कम्युनिष्ट पार्टी के समर्थक के रूप में कार्य करना चाहा था। किंतु ना तो उन्होंने कभी सीधे सीधे इस विषय में कभी पूछा और ना ही मैंने उनकी धारणा बदलने की कभी कोशिश की। वे जब भी मिलते थे तब वामपंथी आन्दोलन से अपनी सारी शिकायतें उड़ेल देते थे। मुझे इसमें उनकी आत्मीयता दिखती थी जो घटनाओं को विचलन मान कर शिकायत के रूप में सामने आती थी। मुझे इसी बात का संतोष रहता था कि वे मुझे पहचानते हैं। मिलने पर उपलब्ध होने पर अपनी पत्रिका ‘सदानीरा’ भेंट करते थे।

वे किसी भी तरह का विचलन सहन नहीं कर पाते थे व  अपनी बेलिहाज साफगोई के कारण ना तो  कोई गुट बना पाते थे और ना ही दोस्त। इस जमाने में एक दम परिपूर्ण लोग कहाँ मिलते हैं, जैसे वे चाह्ते थे। उनके व्यवहार से नाराज लोग तो बहुत मिले किंतु उन पर बेईमानी या पक्षपात का आरोप लगाने वाला कोई नहीं मिला। वे हमेशा मुझे अकेले मिले अकेले लगे। उनके निधन की खबर पर जब उनके वर्तमान पते की जानकारी चाही तो किसी को भी सही जानकारी नहीं थी। बाद में किसी ने बताया कि उनका बेटा विदेश में था और कुछ दिन उसके पास रहने के बाद वे लौट आये थे व किसी सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम में रह रहे थे। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो –

उनने तमाम उम्र अकेले सफर किया

उन पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही

विनम्र श्रद्धांजलि।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

बुधवार, अगस्त 23, 2023

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

 

फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2

एक व्यावसायिक उत्पाद की नकल

वीरेन्द्र जैन



जब भी व्यावसायिक रूप से सफल किसी फिल्म के नाम को दूसरा क्रम देकर कोई मूवी बनाई जाती है तो वह पहली फिल्म से अच्छी नहीं होती। ऐसी फिल्म को दूसरा क्रम इसीलिए दिया जाता है ताकि पहली सफल फिल्म के प्रभाव का लाभ उठा कर व्यावसायिक लाभ उठाया जा सके। यह एक तरह से पहली फिल्म के दर्शकों के साथ ठगी होती है। अगर अच्छी होती तो उसे नये नाम से बनायी जा सकती थी। दृश्यम -2 आदि में हम ऐसी ही ठगी देख चुके हैं।

पहले फिल्में कहानियों पर बनती थीं, फिर घटनाओं व खबरों पर बनने लगीं और ‘ओह माई गाड -2” जैसी फिल्में किसी अखबार या पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर बनने लगी हैं। इसमें कथानक नहीं है अपितु विचार और उसके पक्ष मे तर्क वितर्क होते हैं। फिल्म में पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा की जरूरत के पक्ष को रखने और उस विषय की पक्षधरता के लिए एक अदालती बहस खड़ी कर दी गयी है। यह फिल्म उन लोगों को कुछ जानकारी दे सकती है जो अखबारों के सम्पादकीय पेज नहीं पढते या पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर प्रकाशित सामग्री नहीं देखते। फिल्म के अंत में जो जनमत बनता दिखाया गया है वह नकली लगता है क्योंकि सदियों से निर्मित धारणाओं को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता जितनी आसानी से इसे टूटता दिखाया गया है। बिना सामाजिक आन्दोलन चलाये हमने संविधान के सहारे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव आदि बदलने की जो कोशिशें की हैं वे अदालती फैसलों तक सीमित होकर रह गयी हैं और उन्हें ज़मीन पर उतरना बाकी है। किशोर अवस्था में यौन शिक्षा की जानकारी केवल सूचना भर नहीं रह जाती अपितु यौन संवेदना भी पैदा करती है और उसके शमन का कोई उपाय नहीं सुझाया गया है।

फिल्म का विषय महत्वपूर्ण है जिसे और अच्छी तरह से कहानी में पिरो कर एक अधिक अच्छी फिल्म बनायी जाना चाहिए थी या कहें कि बनाई जा सकती थी किंतु निर्माता निर्देशक की दृष्टि एक धर्मस्थल पर जनता की आस्था को भुनाना, और इसी नाम से सफल हो चुकी फिल्म के दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचना भर थी। फिल्म पर विवाद खड़े करके उसे चर्चित कराना भी एक हथकंडा बन चुका है, जिसका स्तेमाल इस फिल्म के लिए भी किया गया था और सेंसर से ‘ए’ सार्टिफिकेट प्राप्त कर लिया गया था। इसमें कथा नायक के दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाने के बाद पुनर्जीवित होने को छोड़ दें तो दूसरा कोई चमत्कारी दृश्य नहीं है। बाल कलाकारों का अभिनय अच्छा है व सहयोगियों की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव व अरुण गोविल की भूमिकाएं संतोषजनक हैं। इसे कामेडी फिल्म की तरह प्रचारित किया गया है किंतु कामेडी ना के बराबर है। इस फिल्म में स्टार अक्षय कुमार का नाम प्रमुखता से दिया गया है किंतु फिल्म के नायक पंकज त्रिपाठी हैं, जो अक्षय कुमार की तुलना में अपेक्षाकृत अच्छे अभिनेता हैं। अक्षय कुमार की बहुत सीमित भूमिका है। वकील के रूप में यामी गौतम ने सुन्दर दिखने की भूमिका भर निभायी है।

किसी सन्देश को लेकर बनायी गयी फिल्मों को दर्शक तक पहुंचाने की योजना भी बनायी जाना चाहिए थी, जिससे सम्बन्धितों तक बात पहुंचे और कार्यांवयन हो सके।    

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

रविवार, अगस्त 13, 2023

संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर

वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे

वीरेन्द्र जैन

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एक समय मैं कुछ पारिवारिक परेशानियों में फंस गया था और उसी समय [1985] मुझे बैंक में मैनेजर के पद से बदल कर आडीटर [इंस्पेक्टर] बना दिया गया था। तब मैं एक अराष्ट्रीयकृत ए क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में कार्य करता था। मानसिक दबाव बहुत ज्यादा था और मुझे आडिट हेतु नगर दर नगर भटकना पड़ रहा था। उन दिनों दैनिक भत्ता कुल बीस रुपये था जिसमें होटल का किराया और भोजन भी शामिल था। आम परम्परा यह थी कि जो आडीटर जिस शाखा का निरीक्षण करता था उसके प्रबन्धक द्वारा उसके रहने खाने की व्यवस्था की जाती थी, जो मुझे स्वीकार नहीं थी| हर स्थान पर उन दिनों रहने खाने के होटल नहीं पाये जाते थे। अपनी जिद के कारण कई बार मुझे भूखा भी रहना पड़ता था। बार बार नौकरी छोड़ने का विचार आता था किंतु परिस्तिथियों के दबाव ने इसे कार्यांवित नहीं होने दिया। संयोग से 1986 में मेरे बैंक का पंजाब नैशनल बैंक में विलय किये जाने का फैसला हुआ और मुझे यायावरी से मुक्ति मिली। किंतु उस समय पिछले बैंक में जो इंस्पेक्टर या मैनेजर थे उन्हें एक ग्रेड कम करके नियुक्ति दी गयी और अलग अलग जगह पोस्टिंग दी गयी। मुझे अमरोहा में पोस्टिंग मिली। पंजाब नैशनल बैंक में एक नियम था कि जब भी किसी को असिस्टेंट मैनेजर के रूप में पोस्ट किया जाता था तो उससे पोस्टिंग वाले स्टशन पर जाने की स्वीकृति ली जाती थी। मुझे अमरोहा में ही पोस्ट करने के बाद उसी शाखा में ही असिस्टेंट मैनेजर का पद स्वीकार करने के लिए पूछा गया और दूरदृष्टि से मैंने प्रस्ताव को नकार दिया। परिणाम स्वरूप मुझे जे एम जी –वन में ही आफीसर के रूप में वहीं पदस्थ कर दिया गया जिससे मैं चाबियां रखने के चक्कर से बच गया। अब सवाल दतिया ट्रांसफर का था। मैंने इसके लिए लगातार प्रयास करने शुरू किये और अपने सभी सम्पर्कों को पत्र लिखे। बड़े से बड़े लेखक सम्पादक राजनेता आदि जिनको मैं जानता था, सबको लिखा और सबने पंजाब नैशनल बैंक के प्रबन्धन को मेरे दतिया ट्रांसफर की अनुशंसा की। उस दौर के दो वित्त मंत्रियों, जनार्दन पुजारी, और नारायण दत्त तिवारी ने सांसद बालकवि बैरागी के पत्र के उत्तर में लिखा कि बैंक के विलय की शर्तों के अनुसार विलय के दो वर्ष बाद ही स्थानांतरण सम्भव है। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि दो वर्ष पूरे होते होते मेरा ट्रांसफर दतिया के लिए होगया और मुझे किसी शाखा की जगह लीड बैंक आफिस में पोस्ट किया गया। उस समय लीड बैंक आफीसर श्री एम एन नायर थे।

लीड बैंक आफिस का काम किसी जिले में कार्यरत समस्त बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों और सरकारी ऋण योजनाओं के लिए लक्ष्य निर्धारित करना और इसके कार्यांवयन की जानकारी जुटाना होता है। इस जानकारी को समन्वित करके विभिन्न बैठकों में इससे सम्बन्धित समिति के समक्ष प्रस्तुत करना और समीक्षा कर कम प्रगति वाले बैंकों की समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना होता है। इस कार्य सम्पादन के लिए जिले के सभी शासकीय वरिष्ठ अधिकारियों से और बैंक प्रबन्धकों के साथ सम्पर्क रखना होता है। इस आफिस में पोस्ट होने के बाद मुझे पहली बार बैंक की नौकरी में मुनीमगीरी से मुक्ति मिली थी। मैं अपने गृहनगर में आ गया था और आफिस में मन का काम मिला था। इसलिए मैंने अपने पूरे मन और क्षमताओं से काम शुरू कर दिया।

किसी शाखा की मैनेजरी करने के बाद मुझे जब भी जूनियर के रूप में कार्य करना पड़ा तो कार्यनीति पर मेरा अपने वरिष्ठों से टकराव होता रहा था। लीड बैंक आफिस में नायर साहब के साथ काम करने में कोई समस्या नहीं आयी। नायर साहब इतने लोकतांत्रिक व उदार विचारों के थे कि उनके स्वभाव में अफसरी दूर दूर तक नहीं थी। वे वरिष्ठ से कनिष्ठ सभी से दोस्ताना सम्बन्ध रखते थे, सभी की सुनते थे। उन दिनों निजी टेलीफोन मिलने में बहुत कठिनाइ होती थी। मैंने बरसों पहले आवेदन दे रखा था इसलिए सेवाओं का विस्तार प्रारम्भ होते ही मेरे घर पर टेलीफोन लग गया था, इससे मैं आफिस टाइम के अलावा भी सम्पर्क द्वारा काम कर सकता था। अपने गृह नगर दतिया में, मैं कभी लेखन, पत्रकारिता व छात्र राजनीति में सक्रिय रहा था इसलिए अपने नगर में मेरा परिचय क्षेत्र विस्तारित था। नायर साहब ने बहुत सारी जिम्मेवारी मुझे सौंप दी और अपने पद के अधिकारों का उपयोग करने की भी खुली छूट दे दी। हमारे साथ कार्यालय में एक और कुशल अधिकारी जुड़ गये थे श्री आर के गुप्ता जो आंकड़े जुटा कर उनको चार्ट का रूप देने में कुशल थे और समान रूप में निःस्वार्थ भाव से लगन पूर्वक काम करते थे। उनकी आंकड़ागत तैयारी के साथ मेरा काम पत्र व्यवहार और सम्पर्क कर नियत समय पर बैठकें आयोजित करना था। नायर साहब पूरी तरह से मुक्त हो अपनी जीप और ड्राइवर के साथ नगर के प्रमुख लोगों समेत अधिकरियों से मिलने जुलने, नगर भर के सरकारी, गैरसरकारी आयोजनों में भाग लेने के लिए स्वतंत्र थे। यह काम उन्हें अच्छा भी लगता था व बैंक के हित में भी था। वे हम दोनों लोगों पर इतना भरोसा करते थे कि उनकी दखलन्दाजी के बिना भी सारा काम सही और उचित समय पर हो जायेगा। ऐसा हुआ भी। हमें यह भी विश्वास था कि कभी कोई भूल हो जाने पर वे जिम्मेवारी खुद लेंगे, वैसे ऐसा अवसर कभी नहीं आया। इस दौरान जो भी जिलाधीश व अन्य उच्च अधिकारी जिले में थे वे नायर साहब के मुरीद थे। आफिस में पदस्थ हम दोनों ही अधिकारी मितव्ययी स्वभाव के थे और ऐसी युक्तियां तलाश लेते थे कि कम से कम खर्च में अपनी बैठकें कर लेते थे।

नायर साहब बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे और हर उम्र के लोगों के साथ खेलते हुए वे छात्रों के साथ भी खेल भावना से मित्रता कर लेते थे। उनका परिचय क्षेत्र इतना अधिक हो गया था कि हर कोई उनसे बैंकिंग काम में मदद मांगने आ जाता था और यथा सम्भव उसका काम कराने को तत्पर रहते थे। अनेक जिलाधीश गैर सरकारी कामों मे उनसे सहयोग की अपेक्षा करते थे और वे उनकी सहायता कर देते थे। एक बार अति वृष्टि के कारण निचले क्षेत्र के लोगों की मदद करने में उन्होंने अपने परिचय क्षेत्र से भरपूर सहयोग जुटाया। वे कुछ समाजसेवी संस्थाओं से भी जुड़ गये थे और स्वास्थ सम्बन्धी कैम्प लगाने में मदद करते थे और मुझे भी इन संस्थाओं से जोड़ लिया था। दतिया में मिले स्नेह के कारण उन्होंने दतिया में ही अपना मकान बनवा लिया था और यहीं बसने का इरादा था किंतु बड़े बेटे के आकस्मिक निधन के बाद उन्होंने इरादा बदल लिया। केरल लौटे किंतु वहाँ भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में उनके छोटे बेटे का निधन हो गया।

वे दतिया को हमेशा याद करते रहे और दतिया में साथ काम किये लोगों के साथ मिलते रहने के लिए एक ग्रुप बनाया था जो सोशल मीडिया के साथ साथ सम्मिलन भी आयोजित करता था। उसका तीसरा आयोजन इसी अक्टूबर में केरल में ही प्रस्तावित था जिसकी तैयारी चल रही थी कि यह दुखद घटना घट गयी। 11 अगस्त 2023 को नायर साहब नहीं रहे।

मेरी नौकरी के सबसे सुखद वर्ष वे ही रहे जो मैंने उनके नेतृत्व में बिताये। वे हमेशा याद रहेंगे। इकबाल मजीद साहब ने सही फर्माया है-

कोई मरने से मर नहीं जाता

देखना, वह यहीं कहीं होगा    

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

रविवार, जुलाई 23, 2023

पीड़ा रहित मृत्यु की तलाश में समाज

 

पीड़ा रहित मृत्यु की तलाश में समाज

वीरेन्द्र जैन

जब यह खबर आयी कि गोष्ठी में बैठे एक साथी के मित्र के बड़े भाई की मृत्यु आज सुबह हो गयी है, और थोड़ी ही देर में उनकी शवयात्रा शमसान घाट पहुँच जायेगी तो सब लोग वहाँ जाने को तैयार हो गये। हम लोग जहाँ बैठे थे वह जगह शमसान घाट के निकट ही थी और मृतक के घर जाने की जगह सीधे पहुंचना सुविधाजनक था, सो वही किया गया।  वैसे मृतक के परिवार से मेरे बहुत गहरे रिश्ते नहीं थे किंतु ऐसी स्थिति में मना भी नहीं कर सकता था। एक मेरे जैसे ही दूसरे साथी ने कहा कि हम लोग केवल विचार ही कर रहे थे सो वह तो शमसान घाट में भी जारी रहता है।

ऐसे मौके पर आम तौर पर कुछ सामान्य सी बातचीत होती है। क्या हुआ था?, कहाँ इलाज चला? उम्र क्या थी? बच्चे कितने हैं? वे क्या करते हैं? घर , मकान आदि के बारे में भी पता होने पर भी लोग चर्चा कर लेते हैं, उनके जीवन की किसी यादगार घटना और मृतक की किसी प्रतिभा को भी याद कर लिया जाता है।

हम लोग शवयात्रा के पहुंचने से पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। कुछ परिचित और कुछ अपरिचित लोग आ चुके थे जो सब एक ही काम के लिए एकत्रित हुये थे इसलिए उनमें एक रिश्ता बन रहा था। बातचीत में पता लगा कि मृतक 75 से 80 के बीच के रहे होंगे। सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे, और उम्र के अनुरूप होने वाली शिकायतों के वाबजूद स्वस्थ व नियमित दिनचर्या वाले सज्जन पुरुष थे। कल रात ठीक तरह से सोये किंतु रोज की तरह ही जब सुबह समय पर नहीं उठे तो घर के लोगों ने पाया कि वे हमेशा के लिए सो चुके थे। डाक्टर को बुलवाया गया जिसने रात में आये किसी साइलेंट अटैक की सम्भावना व्यक्त करते हुये उन्हॆं मृत घोषित कर दिया था।

इतना सुनते ही उनके एक हमउम्र व्यक्ति संतोष की साँस लेते हुए बोले, ऐसी मौत अच्छी है। उन्होंने किसी को कोई तकलीफ नहीं दी, किसी से कोई सेवा नहीं करायी, ना ही जाते जाते अस्पताल का कोई बड़ा बिल भुगतान के लिए छोड़ गये।

मैंने देखा कि उनकी इस बात पर उपस्थितों के बीच व्यापक सहमति थी जिसका मतलब था कि सब मृत्यु के पूर्व होने वाली बीमारियों की पीड़ाओं, रिश्तेदारों की उपेक्षा, और अस्पतालों के जायज नाजायज बिलों, के प्रति आशंकित थे और इनसे बचने के लिए मृतक जैसी मृत्यु को ईर्षा के भाव से देख रहे थे। भले ही कोई तुरंत नहीं मरना चाहता हो किंतु सोच रहा था कि मृत्यु हो तो ऐसी। 

आर्थिक स्थितियों और सामाजिक सम्बन्धों में आये बदलावों, कभी भगवान समझे जाने वाले डाक्टरों और उनके अस्पतालों की व्यावसायिकता ने व्यक्तिओं को मृत्यु के ढंग में चयन करने वाला अर्थात चूजी बना दिया है। वह मृत्यु पर दुखी होने की जगह ईर्षालु हो रहा था। गौर करने पर पाया कि आत्महत्याओं के प्रकरणों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, कभी आत्महत्या करने वालों में महिलाओं के संख्या अधिक होती थी किंतु अब पुरुष आगे निकल गये हैं। आत्महत्या के लिए जहर का प्रयोग अधिक होने लगा है जो शायद कम पीड़ा वाली मौत मानने के कारण चुना जाता हो।  

समाज शास्त्रियों को इसका अध्ययन करना चाहिए कि आखिर क्यों मृत्यु इतने लोगों को आकर्षित कर रही है।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

रविवार, जुलाई 02, 2023

मेरे गुरु – जिनसे जीवन में सीखा

 

मेरे गुरु – जिनसे जीवन में सीखा

वीरेन्द्र जैन

गुरु पूर्णिमा, अपने गुरुओं को याद करने के दिन के रूप में जाना जाता है। वर्षों से लोगों को ऐसा करते हुए देख रहा हूं, जिसे देख कर लगता रहा है कि मुझे भी उन सब को याद करना चाहिए जिनसे मैंने जीवन में कुछ सीखा है। अब तक मैं यह मानता रहा हूं कि ऐसा करने का अधिकार केवल उन लोगों को है जो गुरुओं से सीख कर कुछ उल्लेखनीय काम कर चुके हैं। बिना कुछ महवपूर्ण किये अपने गुरुओं को याद करना उनकी क्षमता को कम करके बताना ही होगा। इसलिए इस स्मरण को मैं निजी दस्तावेज में दर्ज करने के लिए ही लिख रहा हूं, इसका कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है [शायद] ।

जैसा कि परम्परावादी लोगों का होता है, वैसा मेरा कोई एक गुरु नहीं रहा जिस पर अपनी अच्छी बुरी निर्मिति का सारा बोझ डाल दिया जाये। यह शायद गुरुकुलों के जमाने की परम्परा रही हो जहाँ एक बार कच्चा माल डाल देने के बाद ढला हुआ माल ही बाहर निकलता होगा। आज के समय में हिन्दी का अध्यापक अलग होता है, गणित का अलग, खेलकूद का अलग तो विज्ञान का अलग। और ये भी कक्षा दर कक्षा बदलते रहते हैं। हमारे समय में फिल्में, नाटक, धार्मिक कथाएं, साहित्य, राजनीतिक आम सभाएं, कवि सम्मेलन भी कुछ ना कुछ सिखाने लगे थे, वही काम बाद में सैकड़ों चैनलों वाला टीवी और थ्रीजी,फोरजी मोबाइल, कम्प्यूटर और लेपटाप आदि करने लगे। बिना गुरू की पहचान के आन लाइन क्लासेज चलने लगे हैं, अब किसी बच्चे से यह नहीं पूछा जा सकता कि ये गन्दी आदतें तुम्हें किसने सिखायी हैं, तुम्हारे मम्मी-पापा या टीचर से शिकायत करेंगे।

“जैक आफ आल, मास्टर आफ नन “ जैसे लोगों में से एक मैं उन सब लोगों को याद करना चाहता हूं, जिन से कुछ सीखा। माता पिता तो सबके ही पहले गुरु होते ही हैं जिनसे हम प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते हैं और पहली शिक्षा यह पाते हैं कि बिस्तर में पेशाब कर देना बुरी बात होती है, दूसरी यह कि दूध को बोतल या कटोरी चम्मच से पीना सीखना चाहिए। नंगे रहना बुरी बात होती है, इसलिए जल्दी से चड्डी पहिन लेना चाहिए। फिर कुछ ऐसा सीखते हैं जो बाद में झूठ साबित होता है, जैसे कि पढोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब।

स्कूल में अक्षर ज्ञान से लेकर अंक ज्ञान तक विभिन्न कक्षाओं के भिन्न टीचर या ट्यूटर पढाते रहे हैं जिन्हें सरकार या घर के लोग वेतन अदा करते हैं, शायद इसी लिए किसी भी गुरुभक्त को इनके प्रति आभार व्यक्त करते नहीं देखा, सो मैं भी नहीं करूंगा। करना भी चाहूं तो उनके नम और चेहरा याद नहीं। जूनियर कक्षाओं तक कक्षा में जो पढता था वही परीक्षा में लिख कर पास हो जाता था। सर्व प्रथम आने जैसा भाव कभी मेरे मन में नहीं भरा गया, सो मैं आया भी नहीं। नवीं कक्षा से विज्ञान का विद्यार्थी हो गया था इसलिए पढाई में मेहनत करनी पड़ रही थी, कक्षा की पढाई से काम नहीं चल रहा था। दसवीं तक आते आते एक सामूहिक ट्यूटर श्री राम स्वरूप गोस्वामी जी के यहाँ पढने जाने लगा। वे हर तरह से देशी व्यक्ति थे, विज्ञान को बुन्देली भाषा में समझाते थे जो आसानी से समझ में आ जाती थी जिससे पढना अच्छा लगता था। डिवीजन तब भी सेकिंड ही रही क्योंकि और भी विषय थे और स्कूल के टीचर भी ट्यूशन करते थे व उसी के अनुसार नम्बर देते थे। कभी कभी किसी खाली क्लास को भरने के लिए एक लाल साफे वाले सरदार जी कक्षा लेने आ जाते थे जो अन्धविश्वासों के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करते थे जो बहुत अच्छी लगती थी। भूत प्रेतों और धार्मिक पाखंडों के खिलाफ उनके तर्क अच्छे लगते थे। उनका नाम तब भी पता नहीं था इसलिए अब याद न आना स्वाभाविक है। इसे दौरान हिन्दी के अध्यापक श्री राम रतन अवस्थी, श्री आर आर वैद्य और श्री घनश्याम कश्यप भी थे जो अध्यापन से इतर साहित्यिक सम्वाद से शिक्षित करते थे। चीन के साथ इसी दौर में सेमा विवाद हुआ और समारोहो में वीर रस की अनेक कविताओं से प्रेरित हुआ। इसी के प्रभाव में खुद भी लिखने की प्रेरणाएं मिलीं।

कालेज में आने के बाद फिजिक्स, कैमिस्ट्री, जूलौजी, बाटनी के विभिन्न प्रोफेसर्स रहे और सबने अपना कर्तव्य पूरा किया। मेडिकल में कुछ अंक कम होने के कारण प्रवेश न मिल पाने से निराश मैंने अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर बीएससी किया और फिर अर्थशास्त्र में एम ए किया। इस पढाई में कोई गम्भीरता नहें थी। इसी दौरान आवारगी, बेरोजगारी, में राजनीतिक सम्वाद और सामाजिक विषयों पर बहस का चश्का लगा। एक बोहेमियन जिन्दगी जीने का इरादा पैदा हुआ। संयोग से इसी दौरान मैंने रजनीश को पढना शुरू कर दिया था जो बहुत भा रहे थे। चाय के होटल हमारे जैसे लोगों के अड्डे थे जिसमें एक वरिष्ठ अध्यापक श्री वंशीधर सक्सेना से मित्रता हुयी जो पहले से ही वैसा जीवन जी रहे थे जैसी प्रेरणा रजनीश साहित्य से मिल रही थी\ उम्र के अंतर के बाबजूद वे मित्र बन गये थे और रजनीश को पढने वाली पूरी मित्र मण्डली उन्हें गुरूजी मानने लगी थी। उनके परम्परा विरोधी विचार और आचरण हमें बहुत भाता था। वे अपने हम उम्रों और सहकर्मियों से अलग युवाओं के मण्डली के गुरु के रूप में जाने जाने लगे थे। उनके जीवन भर उन्हें हमारे गुरु के रूप में सम्मान मिला। वे अभी भी याद आते हैं क्योंकि उन्होंने हमारे प्रगतिशील विचारों को पुष्टि देकर बल दिया था। उन्होंने अपनी कोई बात हम पर नहीं थोपी।

1971 में मैं नौकरी में आ गया व शैक्षिणिक आवारगी के दिनों में जो आलोचनात्मक पढने का शौक लगा था वह और बढ गया। अब मैं ढेर सारी पत्रिकाएं और अखबार मंगाता था, नौकरी पूरी ईमानदारे किंतु बेमन से करता था। इस दौरान रजनीश साहित्य व साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ कर बहुत अध्ययन सम्पन्न हो गया क्योंकि दोनों ही जगह बहुत पढे हुए लोग सार संक्षेप प्रस्तुत कर देते थे। कई पत्रिकाओं के कमजोर लेखन के प्रकाशन से मुझे लगा कि ऐसा या इससे अच्छा तो मैं भी लिख सकता हूं और मेरी लेखनी चल पड़ी। इसी दौरान मेरी मित्रता दतिया के ही एक ऐसे मित्र शिवमोहन लाल श्रीवस्तव से हुयी जो खूब छपता था। पहले मुझे अपनी रचनाओं की वापिसी पर बहुत क्षोभ होता था किंतु जब मैंने देखा कि उसकी प्रकाशित रचनाओं से कई गुनी रचनाएं वापिस भी होती हैं तो यह सब एक खेल लगने लगा। पत्रिकाओं को पढते पढते मुझे समझ में आ गया कि किस पत्रिका के लिए कौन सी रचना उपयुक्त होगी, जिसके परिणाम स्वरूप मैं लोकप्रिय पत्रिकाओं में खूब छपा। शिवमोहन के जीते जी तो यह मानने में संकोच होता था किंतु अब यह कह सकता हूं कि प्रकाशन के मामले में मैं उसका एकलव्य था। नामी गिरामी लोगों से पत्र व्यवहार करने की प्रेरणा भी उसी से मिली।

मैं नौकरी नहीं करते रहना चाहता था और विकल्प के रूप में कवि सम्मेलन के मंचों पर रचना पाठ से जीवन यापन की सोचने लगा था क्योंकि पत्रिकाओं में प्रकाशन से मेरा नाम जाना जाने लगा था। एक सुधी श्रोता के रूप में कवि सम्मेलनों में जाने का जो अनुभव था, उससे मुझे यहाँ भी लगा कि अगर मौका मिले तो मैं यहाँ भी बहुत सारे स्थापित लोगों से अच्छा कर सकता हूं। अनेक मंचों पर मैं ठीक ढंग से सुना भी गया और प्रमुख कवियों की आँखों में प्रशंसा भाव भी देखा। मैंने कवि सम्मेलनों के कवियों से अपने प्रकाशन का सन्दर्भ देते हुए पत्र व्यवहार करना शुरू किया और बिना किसी सौदे के अनेक मंचों पर जाकर खुद को आजमाया। अपनी गा न पाने की अक्षमता और उच्चारण दोष के कारण मैं सफल तो नहीं हो सका किंतु मौलिक विचारों के कारण सराहा गया। इस बीच में इस क्षेत्र में प्रतियोगिता व स्तरहीनता बहुत बढ गई थी।  कवि सम्मेलनों के कवियों में मुझे मुकुट बिहारी सरोज के व्यंग्य गीत बहुत पसन्द आते थे। वे मेरे द्रोणाचार्य बनते गये। इस प्रभाव को अन्य लोगों ने भी महसूस किया। घोषित गुरु तो नहीं किंतु जब जहाँ वे मिल जाते मैं उनका गुरु तुल्य ही सम्मान करता था। कह सकता हूं कि वे मेरे काव्य गुरु थे।

मैं सोच में वामपंथी था, मेरे बैंक की ट्रेड  यूनियन सीपीआई से जुड़ी थी इसलिए मैं सीपीआई के नेताओं के सम्पर्क में रहा किंतु 1977 में जब मैं भरतपुर पदस्थ था तब इमरजैंसी में सीपीआई का इन्दिरा गाँधी को समर्थन देना हजम नहीं हुआ। इसी दौरान में पहले सीपीएम के कामरेड राम बाबू शुक्ल और फिर उनके माध्यम से सव्य साची के सम्पर्क में आया। रामबाबू जी ने मुझे मार्क्सवाद समझाया और वामपंथी पार्टियों की व्याख्या की। सच तो यह है कि मार्क्सवाद के मेरे पहले गुरु रामबाबू शुक्ल ही रहे जिसे बाद में कामरेड सव्यसाची की अनेक क्लासिज ने परिपक्व किया। मार्क्सवाद समझने के बाद ही दुनिया और दुनियादारी समझ में आयी। इस समझ ने चित्त को प्रसन्नता से भर दिया। सव्यसाची तो हजारों लोगों को मार्क्सवाद पढा चुके थे जिनमें इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर चमक रहे अनेक नाम हैं। उन्हें गुरु कह सकता हूं, वैसे भी वे मास्साब के रूप में जाने जाते रहे।

हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों ने मुझे राजनीति पर प्रतिक्रिया देना सिखाया। परसाईजी को मैंने एक विद्यार्थी की तरह भरपूर पढा और सीखा। यहाँ तक की कि जब व्यंग्य लेखों की मेरी पहली किताब आयी तो उस पर एक टिप्पणी यह भी थी कि ये परसाई की गैलेक्सी के सितारे हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी थी। मैंने उन्हें कल्पना से लेकर नई दुनिया, जनयुग से लेकर करंट तक निरंतर पढा, यहाँ तक कि करंट में तो परसाईजी, कमलेश्वर, डा. राही मासूम रजा आदि के स्तम्भों के साथ मुझे भी व्यंग्य कविताएं लिखने का अवसर मिला। मेरी किताबों को प्रकाशन तक लाने में सुप्रसिद्ध कहानीकार से.रा. यात्री ने बड़े भाई जैसे स्नेह के साथ मदद की। मुझे भोपाल में नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, प्रभाष जोशी, मैनेजर पांडे, डा. के बी एल पांडे आदि के विद्वतापूर्ण भाषणों से सैकड़ों पुस्तकों का ज्ञान मिला। प्रेमचन्द के सम्पादकीय लेखों के बाद कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के सम्पादकीय लेखों ने मुझे भरपूर तर्क सम्पन्न किया। अमृता प्रीतम की कहानियों और नीरज के गीतों ने मेरे मर्म को छुआ।

सच तो यह है कि परम्परागत रूप से मेरा गुरु तो कोई नहीं रहा किंतु मैं अनेक लोगों का एकलव्य रहा और किसी को अंगूठा मांगने का मौका नहीं दिया। वैसे किसी ने कहा कि बादाम खाने से अकल नहीं आती, ठोकर खाने आती है, सो इसमें कोई कमी नहीं रही।

दुष्यंत के शब्दों में कह सकता हूं कि -

हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया

हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

गुरुवार, मार्च 30, 2023

पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह

 

पुस्तक समीक्षा ; ज़िन्दा है अभी सम्भावनाएं

जय चक्रवर्ती का नवगीत संग्रह


वीरेन्द्र जैन

किसी ऐसे नवगीत संग्रह पर लिखने की गुंजाइश ही कहाँ बचती है जिसकी भूमिका नवगीत के प्रमुख कवि यश मालवीय ने लिखी हो, कवर पर नचिकेता, इन्दीवर, डा, ओम प्रकाश सिंह, डा. अनिल कुमार की टिप्पणी हो, तथा प्राक्थन में गीतकार ने अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तार से अपनी बात कही हो। जय चक्रवर्ती का संग्रह ‘ज़िन्दा हैं अभी सम्भावनाएं ‘ पाकर अच्छा लगा और समीक्षा के आग्रह पर कृष्ण बिहारी नूर की वह पंक्ति याद आ गयी “ मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नही “ ।

साथी जय चक्रवर्ती पत्र पत्रिकाओं में खूब छपते हैं और पढे जाते हैं, क्योंकि वे अपने समय को लिखते हैं। नवगीत इसी आधार पर अपने को गीत से अलगाता है कि वह अतीत को नहीं वर्तमान को गाता है। नचिकेता जी उसे समकालीन गीत कहते हैं। वे एक गीत में खुद ही अपने संकल्प को घोषित करते हुए कहते हैं कि –

लिखूं कि मेरे लिखे हुए में

गति हो यति हो लय हो

पर सबसे ऊपर मेरे हिस्से का लिखा समय हो

प्रस्तुत संग्रह में उन्होंने अपने समय की दशा को बहुत साफ साफ चित्रित किया है और ऐसा करते हुए उन्होंने प्रकट किया है कि लेखक सदैव विपक्ष में खड़े होकर देखता है जिससे उसे व्यवस्था की कमियां कमजोरियां नजर आ जाती हैं। जूलियस फ्यूचक ने कहा है कि लेखक तो जनता का जासूस होता है।

सत्ता के झूठ और पाखंडों को कवि अपनी पैनी दृष्टि से भेद कर देखता है-

ढोंग और पाखंड घुला सबकी रग रग में

आडम्बर की सत्ता, ओढे धर्म-दुशाले

पूर रही सबकी आँखों में भ्रम के जाले

पसरा है तम ज्ञान- भक्ति के हर मारग में

धूर्त छली कपटी बतलाते, खुद को ईश्वर

बिना किये कुछ बैठे हैं, श्रम की छाती पर

बचा नहीं है अंतर अब साधू में, ठग में

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धर्म गुरुओं के साथ साथ यही काम राजनेता भी कर रहा है-

झांकता है हर समय हर पृष्ठ से, बस एक मायावी मुखौटा

बेचता सपने, हकीकत पर मगर,  हरगिज न लौटा

निर्वसन बाज़ार, आडम्बर पहिन कर रोज हमको चूमता है

थाहता जेबें हमारी, फिर कुटिल मुस्कान के संग झूमता है

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नगर में विज्ञापनों के घूमने का अब हमारा मन नहीं करता

आजकल अखबार पढने को हमारा मन नहीं करता 
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व्यंजना में लिखे कुछ गीत , खुद के बहाने सामाजिक दुष्प्रवृतियों पर चोट करते हैं-

झूठ हम आपादमस्तक, झूठ के अवतार हैं हम            

झूठ दिल्ली, झूठ पटना, झूठ रोना झूठ हँसना

बेचते हैं रोज हम जो झूठ है हर एक अपना

आवरण जनतंत्र का ओढे हुए अय्यार हैं हम

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बात बात पर करते यूं तो मन की बातें

मगर जरूरी जहाँ, वहाँ हम चुप रहते हैं

मरते हैं, मरने दो, बच्चे हों किसान हों, या जवान हों

ये पैदा होते ही हैं मरने को, हम क्यों परेशान हों

दुनिया चिल्लाती है, हम कब कुछ कहते हैं

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भागते रहते सदा हम, चैन से सोते न खाते

रात दिन आयोजकों के द्वार पर चक्कर लगाते

छोड़ कर कविता हमारे पास है हर एक कविता

भात जोकर भी, हमारे कारनामों से लजाते

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तुमने जैसे दिखलाए हैं, क्या बिल्कुल वैसे होते हैं

अच्छे दिन कैसे होते हैं?  

तब भी क्या कायम रहती है अँधियारों की सत्ता

क्रूर साजिशों में शामिल रहता, बगिया का पत्ता पत्ता

याकि परिन्दे हर डाली पर आतंकित भय से होते हैं?  

*****************

वर्तमान की समीक्षा करते हुए हमारे पास भविष्य की वैकल्पिक योजनाएं होनी चाहिए किंतु कभी कभी हम वर्तमान की आलोचना में अतीत में राहत देखने लगते हैं, या नगर की कठिनाइयों से दो चार होते हुए उस गाँव वापिसी में हल ढूंढने लगते हैं जहाँ से भाग कर हमने नगर की ओर रुख किया था। गाँव लौटे लोगों को जिन समस्याओं से सामना करना पड़ता है उसके लिए भाई कैलाश गौतम का गीत ‘ गाँव गया था, गाँव से भागा” सही चित्रण करता है। जय चक्रवर्ती के गीतों में ऐसा पलायन कम ही देखने को मिलता है, पर कहीं कहीं मिल जाता है। वर्तमान राजनीति और उससे पैदा हुयी समस्याओं पर भी वे भरपूर लिखते हैं और ऐसा करते हुए वे रचना को अखबार की कतरन या नेता का बयान नहीं बनने देते, उसमें गीत कविता को बनाये रखते हैं। इस संकलन में उनके बहुत सारे गीत इस बात पर भी केन्द्रित हैं कि इस फिसलन भरे समय में वे अपने कदम दृढता से जमा कर संघर्षरत हैं। ऐसे संकल्प का अभिनन्दन होना ही चाहिए।     

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

रविवार, मार्च 26, 2023

फिल्म समीक्षा भीड़- कोरोना त्रासदी के बहाने व्यवस्था की पर्तें उघाड़ती फिल्म

 

फिल्म समीक्षा

भीड़- कोरोना त्रासदी के बहाने व्यवस्था की पर्तें उघाड़ती फिल्म 



वीरेन्द्र जैन

‘भीड़’ सोद्देश्य सामाजिक फिल्में बनाने वाले प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म है। यह ’ कोरोना जैसी आपदा के आतंक में सरकार द्वारा बिना ज्यादा सोचे समझे लाक डाउन करने के दुष्परिणामों की कहानी है। ये वही अनुभव सिन्हा हैं जिन्होंने ‘मुल्क’ ‘थप्पड़’ और ‘आर्टिकल 15’ जैसी बहु चर्चित फिल्में बनायी हैं। 

इस फिल्म को देख कर मुझे हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि मुकुट बिहारी सरोज की कविता ‘असफल नाटकों का गीत’ याद आया। सरोज जी के अनेक गीतों में सांगरूपक अलंकार का प्रयोग देखने को मिलता है। उक्त गीत में उन्होंने असफल नाटक का रूपक लेकर पूरी व्यवस्था और उसकी कमियों को चित्रित किया है। इसमें ही एक पद है-

नामकरण कुछ और खेल का खेल रहे दूजा

प्रतिभा करती गयी दिखायी लक्ष्मी की पूजा

अकुशल, असम्बद्ध निर्देशन दृश्य सभी फीके

स्वयं कथानक कहता है, अब क्या होगा जी के

पात्रों की सज्जा क्या कहिए, जैसे भिखमंगे

एक ओर पर्दों के नाटक, एक ओर नंगे

राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जायें दंगे

       अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म में लाकडाउन में रोजगार खो चुकने के बाद, नगरों में प्रवास कर रहे मजदूरों और उनके परिवारों की गाँव वापिसी के प्रयासों को मुख्य कथानक के रूप में लिया है| उनमें से ज्यादातर के पास न समुचित खाना है, न पानी है, न कपड़े हैं, न पैरों में चप्पल है, न आवागमन के साधन हैं, न पैसा है और फिर भी वे अपने उस गाँव वापिस जाना चाहते हैं जिसे बेरोजगारी के कारण छोड़ कर शहर में आये थे। त्रासदी यह है कि शासन प्रशासन के पास न विवेक है, न संवेदनशीलता और बीमारी ऐसी है जिसमें बचाव के लिए उचित दूरी बनाये रखने की जरूरत है। बीमारी, उपचार और इंतजाम के बारे में सूचना का कोई उचित माध्यम नहीं है इसलिए सभी रेलें बन्द हो जाने के भ्रम में पैदल चलते हुए कुछ मजदूर रेल पटरी पर चलते हुए वहीं सो जाते हैं और मालगाड़ी उन्हें रौंद कर चली जाती है। अफवाहें फैलाने के लिए व्यवस्था द्वारा पोषित सोशल मीडिया यह भ्रम फैला रहा है कि सरकार उनके बारे में चिंतित है और बैठक कर रही है। जबकि सच यह है कि किंकर्तव्यविमूढ प्रशासन ने उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया है। दूसरी ओर बीमारी को फैलने से रोकने के लिए दूरी बनाये रखने की जिम्मेवारी पुलिस को सौंपी गयी है जिनके काम करने का अपना तरीका है। वे हर काम डंडे के सहारे करना चाहते हैं और हर काम में अतिरिक्त कमाई की सम्भावनाएं तलाशते रहते हैं। इस दौरान चर्चा में आयी अनेक सच्ची घटनाओं को भी कहानी में पिरोया गया है जिसमें सीमेंट मिक्सर में ठूंस कर लाये गये मजदूरों की दारुण दशा हो या किसी लड़की द्वारा साइकिल पर अपने बीमार शराबी पिता को ढोने और भोजन व रास्ता तलाशने के जीवट की घटना हो। इन यात्रियों को सेनेटाइज करने के नाम पर वस्तुओं या जानवरों की तरह सेनेटाइजर से शावर का प्रयोग रोंगटे खड़े कर देता है।

विभुक्षं किं न करोति पापं की तर्ज पर पहले तो मजदूर पुलिस से उन्हें जाने देने की अनुयय विनय करते हैं किंतु जब बच्चे भूख से बिलबिलाने लगते हैं, अपने बीमार साथी को बीमार न बताते हुए उसका इलाज भी कराना है तो मजदूर उत्तेजित हो जाते हैं। जब उन्हें पता चलता है सोशल मीडिया के द्वारे फैलाये जा रही बातें झूठ हैं और ना तो कोई बैठक चल रही है और ना कोई इंतजाम हो रहा है तो वे उत्तेजित हो जाते हैं व ऐसे हर बेचैन विद्रोही व्यक्ति के लिए पुलिस अधिकारी के पास एक ही गाली है कि नेतागीरी चढ गयी है या नक्सलाइट हो रहा है।

सरकार का वर्गीय़ चरित्र बताने के लिए कहानी में उस चैक पोस्ट के पास जहाँ मजदूरों को रोका गया है और वे भूख से बिलबिलाने लगे हैं, एक माल खड़ा है जिसे भी लाकडाउन में बन्द कर दिया गया है। मजदूरों के बीच एक व्यक्ति [पंकज कपूर ] जो सेक्योरिटी गार्ड का काम करता रहा है, बन्दूक चलाना भी जानता है, वह अपने साथ आये मजदूरों का नेतृत्व करता है और उनकी बात को पुलिस अधिकारियों के सामने रखता है। वह कहता है कि उसने एक माल में भी सेक्युरिटी गार्ड का काम किया है। वह जानता है कि माल के फूड कोर्ट में रखा सामान खराब हो जायेगा इसलिए उसे भूखे मजदूरों और बच्चों के लिए ले आने की अनुमति दी जाये। प्रशासनिक अधिकारी को उनकी चिंता नहीं है किंतु माल की सुरक्षा की चिंता है इसलिए वह अनुमति नहीं देता है व और बन्दूकधारी पुलिस बुलवा लेता है। वह गार्ड एक पुलिस वाले की बन्दूक छीन कर माल में घुस जाता है तो पुलिस उसे माल में घेर लेती है। एक जूनियर इंस्पेक्टर [राजकुमार राव ] है जो दलित है और चैक पोस्ट का इंचार्ज बनाया गया है, वह अपने गाँव की एक डाक्टरी पढ रही लड़की [ भूमि पेंडेकर ] से प्रेम करता है जो सवर्ण परिवार से है और चोरी छुपे उससे मिलने आती रहती है। इस समय आकर वह  इस लाकडाउन में फंस जाती है जो गरीब मजदूरों और बीमारों की सेवा में जुट जाती है।

       प्रेम मनुष्य को ज्यादा सम्वेदनशील और मानवीय बनाता है। 

मजदूरों का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति वैसे तो मानवीय है किंतु जति से ब्राम्हण है और गाँव के मुसलमानों द्वारा बांटे जा रहे खाने के पैकिटों को लेने से इंकार कर देता है और बस में भी किसी को नहीं लेने देता है। इस तरह साम्प्रदायिकता के बन्धन को रेखांकित किया गया है। एक स्थानीय नेताजी के भाई उस दलित सब इंस्पेक्टर को नाम के कारण ठाकुर समझता है और जातिवाद का दुरुपयोग करते हुए कुछ अपने लोगों को जाने देने की अनुमति चाहता है किंतु इंस्पेक्टर उसे बता देता है कि वह सरकार के आदेश का ही पालन करेगा, और कि वह उनकी जाति का नहीं है इसलिए यह कार्ड न खेले।

इसी समय एक पैसे वाली महिला [ दिया मिर्जा ] अपनी फार्च्यूनर गाड़ी से लकडाउन के कारण किसी हास्टल में फंस गयी अपनी बेटी को लेने के लिए निकली है किंतु उसे भी निकलने नहीं दिया जाता। उसे मजदूरों की कोई चिंता नहीं है, वह तो किसी तरह केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहती है। जब साइकिल से अपने पिता को ढोकर ले जाने वाली लड़की एक कच्चे रास्ते से निकलने की कोशिश करती है तो वह अपने ड्राइवर को उसके पीछे पीछे चलने को कहती है ताकि वह निकल सके। जब एक गड्ढे से निकलते हुए वह लड़की गिर जाती है तो उस पैसे वाली महिला का ड्राइवर अपने वर्गीय सहानिभूति में गाड़ी रोक कर उसे उठाने उतर जाता है तो उसके इस व्यवहार पर वह [दिया मिर्जा] बहुत चिल्लाती है। ड्राइवर उसकी बिल्कुल परवाह नहीं करता किंतु मानवीय सोच के कारण लौट आता है और इसे जता भी देता है।

एक अधिकारी के रूप में [ आशुतोष राणा ] अपने माँ बाप के कोरोना पीड़ित होते हुए भी उन्हें अस्पताल के फर्श पर सोने के लिए छोड़ कर माल की सुरक्षा के लिए लौट आता है जो प्रशासनिक अधिकारियों के बुर्जुआ चरित्र को प्रकट करता है। फिल्म की कास्टिंग भूमिका के अनुसार बहुत सही है। छोटी छोटी भूमिकाएं, पीपली लाइव फेम नत्था, और वीरेन्द्र सक्सेना को भी दी गयी हैं। सारे अभिनेताओं ने मिल कर निर्देशक की टीम को उनकी मंशा पूरी करने में मदद की है। पंकज कपूर, राजकुमार राव, और आशुतोष राणा तो निर्विवाद रूप से अमरीश पुरी, ओम पुरी, नसरुद्दीन शाह, नवाजुद्दीन, रवीन्द्र त्रिपाठी की परम्परा के कलाकार हैं जो भूमिका में जान डाल देते हैं।

फिल्म ब्लैक एन्ड व्हाइट बनायी गयी है जिस विचार के लिए निर्देशक की दृष्टि की प्रशंसा की जानी चाहिए। कुल मिला कर यह एक अच्छी फिल्म है जो इसे नहीं समझ पाये उनकी समझ पर तरस ही खाया जा सकता है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023