शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

भारतीय जिन्ना पार्टी


.................और अब सुदर्शन हुये ज़िन्ना के नये प्रशंसक
वीरेन्द्र जैन
यदि संघ परिवार इसी दिशा में बढता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को अपना नाम भारतीय ज़िन्ना पार्टी रख्र देना पड़े।
इस बात को बहुत दिन नहीं बीते जब भाजपा के दूसरे नम्बर के बड़े नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को पाकिस्तान की संसद में ज़िन्ना के 11 अगस्त 1947 को दिये एक भाषण की प्रशंसा करने के कारण पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था। उनको यह पद छोड़ने का दबाव उनकी पार्टी के किसी नेता की ओर से नहीं आया था अपितु इसका निर्देश उन्हें आर एस एस की ओर से मिला था। अपने इस बयान पर आडवाणीजी ने नागपुर जाकर सफाई भी दी थी किन्तु जिस संगठन में भावनात्मक मुद्दों के आधार पर राजनीतिक व्यापार चलता हो तो वहां सत्य और तर्क की गुंजाइश नहीं होती। आडवाणीजी को ज़िन्ना के जिस भाषण की प्रशंसा करने पर आर एस एस के प्रकोप का सामना करना पड़ा था वह भाषण सचमुच ही महत्वपूर्ण था, प्रशंसनीय था और ज़िनना की प्रचलित छवि को बदलने वाला था। आडवाणी ही नहीं, कोई भी समझदार और सम्वेदनशील व्यक्ति उसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकता, विशेष रूप से जब उसे एक मन्दिर का उदघाटन करने के लिये राज्य अतिथि के रूप में बुलाया गया हो और उसे ज़िन्ना के मज़ार पर फूल चढाने के लिये ले जाया गया हो।
उसके बाद भाजपा के बेहद कद्दावर नेता और आडवाणी के सही वारिस जसवंत सिंह को ज़िन्ना के ऊपर किताब लिखने के कारण् बेहद अपमानजनक तरीके से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और वह भी बिना सफाई का मौका दिये और बिना किताब पढे। राजनीतिक क्षेत्र में जसवंत सिंह का बहुत सम्मान था और वे साम्प्रदायिक हिन्दूवादी पार्टी में एक माडरेट चेहरा थे जिसे मुखौटे की तरह स्तेमाल किया जा सकता था। कुछ ही वर्ष पूर्व उन्हें श्रेष्ठ सांसद के रूप में सम्मानित किया गया था तथा उनका नाम अपनी प्रतिभा और वरिष्ठता के कारण आडवाणीजी के रिटायरमेंट के बाद सदन में विपक्ष के नेता के रूप में सामने आना था। पर वे आर एस एस से नहीं थे व पार्टी में संघ के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करते थे इसलिये संघ उन्हें उक्त पद पर नहीं देखना चाहता था।
पर ऐसा लगता है कि संघ परिवार में अनेक लोगों को निरंतर ज़िन्ना का भूत परेशान कर रहा है और वे समझने लगे हैं कि उनके बुरे दिनों में ज़िन्ना ही उनका उद्धार करेंगे। एक के बाद दूसरे को ज़िन्ना की प्रशंसा का दौरा पड़ रहा है। ताज़ा मामला पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन द्वारा ज़िन्ना की प्रशंसा करने को लेकर है। मध्य प्रदेश में अपना डेरा जमा चुके सुदर्शनजी ने प्रदेश के हरदा जिले की टिमरनी तहसील में एक व्याख्यानमाला के दौरान कहा कि पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली ज़िन्ना उदारवादी नेता थे और गान्धीजी ने शौकत अली जैसे कट्टर मुसलमानों का सहयोग लेकर ज़िन्ना की उपेक्षा की थी और उन्हें केवल मुसलमानों का नेता बताया था जिससे नाराज होकर ज़िन्ना कट्टर मुसलमान बन गये थे।
सवाल उठता है कि भाजपा नेताओं को अस्सी साल पुराना यह इतिहास अचानक ही अब क्यों याद आने लगा है। ये सारी समझ उन्हें तब भी नहीं आयी जब वे सत्ता में रहे और अपने पालतू इतिहास लेखकों से ऐतिहासिक तोड़मरोड़ कराते हुये इतिहास को अपने अनुरूप बदलवाने के ढेरों प्रयास किये। असल में उन्हें अब यह समझ में आने लगा है कि इस देश में मुसलमानों का विश्वास अर्जित किये बिना वे कभी भी सत्ता नहीं पा सकते और किसी जोड़तोड़ से पा भी लें तो उसे बनाये नहीं रख सकते। अब तक उन्होंने अपना आधार ही मुसलमानों को देशतोड़क और देशद्रोही कहते हुये ही बनाया था और जब उन्हें मुसलमानों का विश्वास अर्जित करने का दूसरा कोई रास्ता नहीं मिला तो उन्होंने ज़िन्ना की स्तुतियाँ गाना शुरू कर दीं। पर उनका यह कदम भी कुछ काम आने वाला नहीं है क्योंकि भारतीय मुसलमान कभी भी ज़िन्ना का समर्थक नहीं रहा। बँटवारे के समय वे ही मुसलमान हिन्दुस्तान में रह गये थे जिन्हें भारत के नेताओं, और उनकी धर्म निरपेक्षता की नीति पर् भरोसा था। जो मुसलमान ज़िन्ना पर भरोसा करते थे वे सब पाकिस्तान चले गये थे। संघ परिवार के इन कदमों से इतना होगा कि उनके हिन्दू समर्थक भी उनसे नाराज हो जायें और उनके प्रचारकों के सामने धर्म संकट खड़ा हो जाये।
इन सारी समस्याओं के मूल में राजनीतिक विचारधारा विहीन लोकतंत्र का विकास होना है जिस कारण से दूसरे दूसरे हथकण्डों से राजनीति की जाती है जिनमें से साम्प्रदायिकता भी एक है। साम्प्रदायिकता के लिये एक दुश्मन ज़रूरी होता है भले ही वह बनावटी ही क्यों न हो। भाजपा का मुस्लिम विरोध भी इसी कूटनीति का हिस्सा था और जब श्रीमती सोनिया गान्धी कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयीं तब से उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर चर्चों पर हमले करना शुरू कर दिये थे। इस इक्कीसवीं शताब्दी में वे कब तक इस तरह के हथकण्डों से काम चला पाते हैं यह देखना होगा।
वीरेन्द्र जैन
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