मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

क्या भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन किसी परिणाम तक पहुँचेगा?पहुँचेगा?


क्या भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन किसी परिणाम तक पहुँचेगा ?
वीरेन्द्र जैन
पूरे देश में इस समय भ्रष्टाचार पर सबसे अधिक ध्यान केन्द्रित हो रहा है। इसका कारण केवल इतना ही नहीं है कि एक साथ ही कुछ बड़े मामले उजागर हो गये हैं, अपितु यह भी है कि देश का मुख्य विपक्षी दल जिस आतंकवाद को केन्द्रीय मुद्दा बना कर अपनी राजनीति कर रहा था वह दल स्वयं ही उसमें शामिल दिखायी देने लगा है, और यह भी साफ होने लगा है कि उसके संगठन स्वयं घटनाएं करके उसे दूसरे के नाम पर मढने का खेल खेलते रहे हैं इसलिए उसने उस मुद्दे को दरी के नीचे छुपा कर अपना ध्यान इस ओर कर दिया है।
पर, क्या भ्रष्टाचार के विरोध में उठा यह ज्वार किसी परिणति तक पहुँच सकेगा या दूसरा कोई मुद्दा इसे दबा देगा जैसा कि पहले भी कई बार हो चुका है। दुर्भाग्यपूर्ण आशंका यह है कि इसमें अंततः कुछ भी नहीं होगा क्योंकि भ्रष्टाचार का इतना अधिक विस्तार हो गया है कि सजा देने दिलाने से लेकर नियम कानून बनाने और उसका पालन कराने वाले सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी कर रहे हैं। भले ही मिश्र, ट्यूनेसिया, आदि के जनविद्रोह को देखकर ये भी सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं कि भारत भी इसी दिशा में बढ रहा है। पर ऐसा तब सम्भव था जब भारत में भ्रष्टाचार का कोई एक केन्द्र होता, यहाँ तो यह एक शिखर बनाने की जगह छोटे छोटे टीलों में उभर आया है। स्मरणीय है कि सेवा निवृत्त होने के अगले ही दिन मुख्य सतर्कता आयुक्त ने कहा था कि देश में हर तीसरा आदमी भ्रष्ट है।
अभी पिछले ही दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त ने आशंका व्यक्त की अगर सही दिशा में सुधार नहीं हुए तो जनता ऊब कर तख्ता पलट सकती है। हमारे मुख्य चुनाव आयुक्त की आशंकाएं इसलिए सच साबित नहीं होंगीं क्योंकि दुर्भाग्य से जनता का एक बड़ा हिस्सा जाने अनजाने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वयं ही भ्रष्टाचार में भरोसा करने लगा है और भ्रष्टाचारी से नफरत रखने और उसका विरोध करने की जगह उसके प्रति ईर्षालु होकर उसका प्रतियोगी होने लग गया है।
भ्रष्टाचारी इसी देश और समाज का हिस्सा हैं, वे हमारे आस पास ही रहते और फलते फूलते ही नहीं हैं, अपितु हमसे सम्मान भी पाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आम लोग यह मान कर चलने लगे हैं कि काम पड़ने पर वे हमारे साथ रियायत बरतेंगे। आइए देखें कि कहीं हम स्वयं तो भ्रष्टाचारी नहीं-
• क्या हमने कभी किसी परिचित व्यक्ति को उसके भ्रष्टाचार के बारे में चेताया या समझाया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी व्यक्ति के यहाँ से आये निमंत्रण या उपहार को लौटाने का साहस दिखाया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी परिवार में रिश्ता जोड़ने की जगह किसी कम सम्पन्न परिवार में रिश्ता जोड़ने को प्राथमिकता दी है?
• क्या हमने किसी बड़े पद पर बैठे भ्रष्टाचारी को सम्मान न देने का फैसला लिया है?
• क्या हमने उन तथाकथित सामाजिक संगठनों, धर्मस्थलों, आश्रमों, आदि के संचालन और उनकी आर्थिक स्तिथि की जानकारी रखने का प्रयास किया है जहाँ आपको ज्ञात भ्रष्टाचारी जाया करते हैं और वहाँ सम्मान के साथ स्थान पाते हैं?
• क्या हमें भ्रष्टाचार तभी, और उन्हीं स्थलों पर बुरा लगता है, जब और जहाँ हम स्वयं उसके शिकार होते हैं, और बाकी जगहों पर इसके चलने से हमें कोई शिकायत नहीं रहती?
• क्या रास्ते में या यात्राओं में किसी अपरिचित के साथ हो रहे भ्रष्टाचार का हमने विरोध किया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी की शिकायत की है, या उसके खिलाफ होने वाली जाँच में जाँच अधिकारियों को सहयोग किया है?
• क्या हमने मतदान करते समय उम्मीदवारों की हैसियत और उसके बनने के समय और साधनों पर गौर करने का प्रयास किया है?
• क्या हमने किसी मतदाता को लालच देने वाले चुनाव प्रचारक की शिकायत की है?
• क्या ट्रैफिक नियम तोड़ने या अपूर्ण टिकिट पर यात्रा करते समय पकड़े जाने पर हमने पूरा जुर्माना दे कर गलती मानने का प्रयास किया है या उसे कम पैसे देकर निबटाने का प्रयास किया है?
• क्या हम चाह्ते हैं कि हमारा काम दूसरों से पहले हो जाये भले ही हम बाद में आये हों?
• क्या हम जानते हैं कि परस्पर सौदे के आधार पर चल रहा भ्रष्टाचार भी परोक्ष में हमें प्रभावित करता है इसलिए हम रिश्वत लेने वाले के साथ ऐसे रिश्वत देने वालों को भी उसी भ्रष्टाचारी की श्रेणी में रखना चाहिए? अपनी दुकान के बाहर सामान रख कर अतिक्रमण करने वाला परोक्ष में नगर निगम कर्मचारी को भ्रष्ट बनाने का चारा डाल रहा होता है। विकल्प होने पर यदि हम ऐसी दुकानों या रास्ते को जाम कर देने वाले चलित विक्रेताओं से सामान न खरीदने का फैसला करें तो यह भी भ्रष्टाचार रोकने का कदम हो सकता है!

संस्कृत में कहा गया है- उद्यमेन ही सिद्धंते, न हि कार्याणि मनोरथै न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रवशंति मुखे मृगः [अर्थात जिस प्रकार सोते हुए शेर के मुँह में मृग अपने आप नहीं चल जाते वैसे ही कुछ करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं न कि केवल मनोकामना से।] इसलिए जरूरी हो जाता है कि हर स्तर पर हर दिन यह काम किया जाये तब ही सार्थक परिणामों की उम्मीद की जा सकेगी।
सच तो यह है कि भ्रष्टाचार इसलिए फल फूल रहा है क्योंकि हमने क्रमशः ऐसा व्यक्तिवादी समाज बना लिया है जो दूसरों के अधिकारों को अतिक्रमित करते हुए अपने लिए वह लाभ और सुविधाएं चाहता है जिसका वह अधिकारी नहीं है। भ्रष्टाचार के कुल प्रकरणों में से केवल दो तीन प्रतिशत ही पकड़ में आते हैं और उनमें से भी कुल चार प्रतिशत में दण्ड मिल पाता है। दुर्भाग्य यह है कि रिश्वत देने वालों को सजा मिलने का प्रतिशत लगभग शून्य है, जबकि सारे बड़े भ्रष्टाचार परस्पर लेनदेन पर आधारित हैं और ऐसे अधिकांश मामलों में रिश्वत देने वाला स्वयं ही आगे आकर प्रस्ताव देता है। जाँच में लगने वाला लम्बा समय और जाँच के बाद दिया जाने वाला मामूली दण्ड जो अवैध ढंग से कमाये गये धन की तुलना में इतना मामूली होता है कि इससे न तो आरोपी ही दण्डित महसूस करता है और न ही समाज के दूसरे भ्रष्टाचारियों में कोई भय व्याप्तता है। भले ही चीन की तरह भ्रष्टाचारियों को मृत्यु दण्ड न दिया जाये किंतु दिल्ली डेवेलपमेंट अथौरिटी बनाम स्किपर कंस्ट्रक्शन कम्पनी प्राईवेट लिमिटेड मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी सलाह के अनुसार उन्हें उनकी सारी सम्पत्ति से वंचित करने हेतु कानून तो बनाया ही जा सकता है जिससे यह संकेत जायेगा कि भ्रष्टाचार सुख ही नहीं दुख भी देता है। जब सारे व्यापारियों, उद्योगों के खाते प्रतिवर्ष तैयार हो जाते हैं तो आर्थिक अनियमिताओं वाले अपराधों में एक साल के अन्दर फैसला क्यों नहीं लिया जा सकता? उच्च न्यायालय में अपील से पहले इतनी बड़ी राशि जमा करा लेने का कानून भी बनना चाहिए ताकि आवेदक स्वयं ही फैसले के लिए जल्दी करे।
यदि एक बार जनता अपने हिस्से का काम प्रारम्भ कर दे तो इसका प्रभाव ऊपर तक पहुँचने में देर नहीं लगेगी। गान्धीजी के आन्दोलनों की सफलता का राज यही था कि वे सबसे पहले स्वयं करते थे तब किसी को कहते थे।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें