शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

सोनिया गान्धी अडवाणी का निशाना क्यों बनीं


सोनिया गान्धी अडवाणी का निशाना क्यों बनीं
वीरेन्द्र जैन
असम की राजधानी गौहाटी में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अवसर पर भाजपा के वरिष्ठतम नेता अडवाणी ने जिस भाषा और काल्पनिकता का प्रयोग करते हुए अपनी बात कही वह नरेन्द्र मोदी और हाल के सुदर्शनजी के बयानों जैसी ही थी, किंतु जब ये बात आडवाणी जैसे वरिष्ठ और गम्भीर नेता के मुँह से निकली तो ऐसा लगा कि पूरा का पूरा संघ परिवार ही इन दिनों बौखलाया सा फिर रहा है और किसी का भी वाणी पर नियंत्रण नहीं रहा। भाजपा का मुख्य राजनीतिक लक्ष्य ऎन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा जमाना है और इसके लिए वह अवैध, अनैतिक कोई भी रास्ता अपनाने के लिए सदैव ही उतावली रहती है। गत वर्षों में बाबरी मस्जिद को ध्वंस कर राम मन्दिर बनाने के अभियान के बहाने उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत में बहुत विस्तार कर लिया था और लोकसभा में दो की संख्या से दो सौ तक पहुँच गये थे। अभी भी वे लोकसभा में 140 के आस पास सदस्यों की ताकत रखते हैं। वैध अवैध गैर राजनीतिक तरीकों से जुटाये इस संख्या बल के आधार पर वे संसद का दूसरा सबसे बड़ा दल बन जाने में सफल हो चुके हैं और अपने नेतृत्व में गठबंधन बना छह साल सत्ता का सुख भी भोग चुके हैं। उनके सत्ता सुख की राह में सबसे बड़ी वाधा कांग्रेस है जो भूतपूर्व राजा महाराजाओं की तरह अभी तक अपना किला बचाये हुए है, भले ही उस किले की रंगत फीकी पड़ गयी हो, और दरवाजे जर्जर हो गये हों। सारी जोड़ तोड़ के बाद भी उम्र के अंतिम पायदान पर सफर करने वाले आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की ह्सरतें निरंतर जोर मारती रहती हैं किंतु उनकी पार्टी की साम्प्रदायिक एवं पूंजी परस्त नीतियों के कारण उन्हें जनता से सीधे पूर्ण व स्पष्ट समर्थन मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। यही कारण है कि वे नकारात्मकता के आधार पर कांग्रेस को ध्वस्त करके विकल्प हीनता का लाभ लेकर अपने सपने प्राप्त करना चाहते हैं। भाजपा द्वारा कांग्रेस के ध्वस्तीकरण के इस प्रयास को समझने के लिए उनके निशाने पर रखी हुयी कांग्रेस के ताजा स्वरूप को समझना बहुत जरूरी है। 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हो गया तब श्रीमती इन्दिरा गान्धी के नेतृत्व वाले गुट के पास सत्ता और संगठन दोनों ही आ गये तथा इमरजैंसी काल तक आते आते पार्टी में एक ही पक्ष रह गया तथा एमरजैंसी हटने के बाद बाबू जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, और विद्या चरण शुक्ल जैसे कुछ बचे खुचे वरिष्ठ नेता भी काँग्रेस छोड़ जनता पार्टी में सम्मलित हो गये। इस अभूतपूर्व स्तिथि में कांग्रेस की एकमात्र नेता श्रीमती गान्धी हो गयीं और अखबारी भाषा में कांग्रेस [आई] का नाम इन्दिरा कांग्रेस हो गया। श्रीमती गान्धी के कद और लोकप्रियता का कोई दूसरा नेता पार्टी में नहीं होने के कारण कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र एकदम घट गया, जिसके परिणाम स्वरूप हाईकमान और उनके आस पास रहने वालों का कथन ही पार्टी का कथन बन गया। यही समय था जब पार्टी में काँग्रेसजन का कार्यक्रम राजनीतिक न होकर हाईकमान की हाँ में हाँ मिलाना और उसके सहारे सत्ता में घुसपैठ करना भर होकर रह गया। सत्ता में दुबारा लौटने के बाद श्रीमती गान्धी को अधिक समय नहीं मिला क्योंकि इसी दौरान न केवल संजय गान्धी की ही मृत्यु हो गयी अपितु अमेरिका इंगलेंड और कनाडा आदि में बैठे कुछ लोगों के इशारे पर सिख आतंकवादियों ने अलग खालिस्तान के नाम पर एक हिंसक अलगाववादी आन्दोलन छेड़ दिया जिसकी काट के लिए पूरे देश की कांग्रेस समितियों में सिखों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसके परिणाम स्वरूप पूरी कांग्रेस ही अस्थायी समितियों के माध्यम से संचालित होने लगी जिसकी डोरियां दिल्ली के हाथ में रहती थीं। श्रीमती गान्धी की हत्या के बाद राजनीति में रुचि न रखने वाले, प्रशासनिक अनुभवों के प्रशिक्षु, सरल स्वभावी राजीव गान्धी के हाथ में देश की सर्वोच्च सत्ता आ जाने से भी पार्टी संगठन की स्तिथि नहीं बदली अपितु स्वार्थी तत्व पार्टी को और अधिक व्यक्ति केन्द्रित बना कर अपना स्वार्थ हल करने लगे। बीच में वीपी सिंह जैसे लोगों ने असहमति दिखाने की कोशिश की तो खुद उन्हें ही बाहर जाने को विवश होना पड़ा। कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गयी और जब पुनः प्राप्त होने वाली थी तब आम चुनाव के बीच में राजीव गान्धी की हत्या के बाद कांग्रेस संगठन में नेतृत्व का एक शून्य पैदा हो गया। गान्धी परिवार की भक्त पीढी किसी दूसरे परिवार के व्यक्ति को नेता मानने को तैयार नहीं थी। उन्होंने श्रीमती सोनिया गान्धी को नेतृत्व में लाने की कोशिश की किंतु उन्होंने उस समय सहमति नहीं दी तो अस्वस्थ नरसिम्हा राव को सरकार बनाने का अवसर मिला। उनकी अल्पमत सरकार भले ही पाँच साल खिँच गयी किंतु इस दौरान उनकी सरकार के सोलह मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे व उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया जिसे दलबदल के सहारे पास होने से रोकना पड़ा। उसके बाद अगले दस साल तक कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से बाहर रही और सत्ता के बिना कांग्रेस हो कर रह गयी। गुटों में विभाजित कांग्रेसजन की जान में जान तब आयी जब श्रीमती गान्धी ने कांग्रेस का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। यह वह समय था जब केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबन्धन की सरकार केन्द्र में थी जिसे कई छोटे दल बेमन से समर्थन दे रहे थे। उस समय ही भाजपा ने समझ लिया था कि उसे शासन करने के लिए कांग्रेस को कमजोर करना चाहिए और गुटों में बँटी कांग्रेस को कमजोर करने के लिए उसकी एकमात्र गैरविवादित नेता सोनिया गान्धी को कमजोर करना होगा।
इसके बाद का इतिहास स्वयं ही प्रकट है, लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी श्रीमती गान्धी की राष्ट्रीयता को लेकर जोर शोर से सवाल उठाया गया, और विदेशी महिला को प्रधानमंत्री न बनाने देने के नाम पर लोगों की राष्ट्रीय भावनाओं को भड़काया गया। भाजपा की सुषमा स्वराज और उमा भारती ने उनके प्रधानमंत्री बनने की दशा में भारतीय विधवाओं के लिए नियत आचरण अर्थात चने खाकर रहना, भूमि पर शयन करना, और सिर घुटा लेने आदि की घोषणा कर दी, भले ही लोकतांत्रिक ढंग से चुने किसी नेता के खिलाफ ऐसे आचरण कितने भी अलोकतांत्रिक क्यों न हों। यह वही समय था जब धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई मिशनरियों और चर्चों पर हमले किये जाने लगे तथा सोनिया गान्धी को ईसाइयत का प्रतीक सिद्ध किया जाने लगा। यहाँ तक कि मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह जैसे ईमानदार और कर्मठ अधिकारी के खिलाफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गन्दी से गन्दी भाषा में आरोप लगाये और उन्हें श्रीमती गान्धी के साथ जोड़ कर द्विअर्थी भाषा बोली गयी। पतन की इंतिहा यह थी कि नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जर्सी गाय जैसी उपमाएं तक दीं। इसके बाद तो किसी भी कान्ग्रेसजन की गलती को सोनिया गान्धी के इशारे पर किया गया बतलाया जाने लगा। यह सोचा समझा प्रयास इस हद तक किया गया कि अगर कभी भूले से भी वे सोनियाजी का नाम लेना भूल जाते थे तो अखबारों के कार्टूनिस्ट उन्हें याद दिलाते थे कि इस आरोप में सोनियाजी के इशारे का तो जिक्र ही नहीं है। गुजरात, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ आदि में एक ही समय में सैकड़ों चर्चों को जला दिया गया और उड़ीसा में कुष्ट रोगियों की सेवा में कार्यरत एक आस्ट्रेलियन मिशनरी को उसके दो मासूम बच्चों समेत जिन्दा जला दिया गया। ये सारे हमले परोक्ष में सोनिया गान्धी के ऊपर हो रहे थे।
जब 2004 के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और सोनिया गान्धी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाएं बनीं तो भाजपा की बौखलाहट अपनी सारी सीमाएं तोड़ गयी। इस अवसर पर समझदारी से काम लेते हुए श्रीमती गान्धी ने चुने जाने के बाद अपनी जिम्मेवारियां श्री मनमोहन सिंह पर सौंप कर भाजपा की रणनीति को एक पटकनी दे दी। यद्यपि भाजपा जानती थी कि लोकतंत्र में नेता पद से नहीं अपितु जन विश्वास से बनता है और वह सोनिया गान्धी के पास था। यह सच श्री लाल कृष्ण आडवाणी के उस बयान से भी प्रकट हुआ जब यूपीए-1 के बारे में उन्होंने कहा था कि एक पीएम है, तो उसके ऊपर सुपर पीएम है और उसके ऊपर सीपीएम है। पर उन्होंने यह नहीं बताया था कि जब ऐसा होना ही था तो उन्होंने बहुमत द्वारा चुने जाने वाले पीएम का विरोध करके परोक्ष में लोकतांत्रिक नैतिकता का उल्लंघन क्यों किया था। हाल के भ्रष्टाचार के उद्घाटनों के बाद जब मध्याविधि चुनाव की पदचापें महसूस की जाने लगी हैं तब आडवाणीजी को एक बार फिर से उस धागे को कमजोर करने की याद हो आयी है जिसमें काँग्रेस गुंथी हुयी है। सोनिया के परिवार और क्वात्रोची के सम्बन्धों के बारे में पहले भी चर्चाएं उठी हैं किंतु उसके लिए आडवाणी जैसे कद के नेता द्वारा ऐसी दादा कोंडके वाली भाषा का प्रयोग पहले नहीं हुआ था, जैसा कि गौहाटी में हुआ। सच तो यह है कि जब भाजपा छह साल सत्ता में रही तब उसने इस दिशा में खुद कुछ भी हासिल नहीं किया जबकि इसी नाम पर उनके अरुण जैटली ने कितनी मँहगी यात्राएं कीं और 64 करोड़ के लिए अब तक ढाई सौ करोड़ फूंके जा चुके हैं। वे यह भी जानते थे कि सोनिया गान्धी जिन्हें तब केवल घरेलू महिला भर समझा जाता था, का इस काण्ड से कुछ भी लेना देना नहीं था पर इस बहाने केवल राजनीतिक स्वार्थ हल किए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्तिकेन्द्रित पार्टी में व्यक्ति की चरित्र हत्या कर के पार्टी को कमजोर करने का कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629

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