फिल्म
समीक्षा के बहाने
गैंग वासेपुर-2 , गोबरपट्टी की
राजनीति पर चुटीला व्यंग्य
वीरेन्द्र जैन
दुर्भाग्य
से हमारे यहाँ फिल्मों जैसे बहुआयामी माध्यम को साहित्य से कमतर आँका गया है और
यही कारण रहा कि टीवी आने से पूर्व लम्बे समय तक इस प्रभावशील माध्यम को लोगों ने
ऐसी गणिका की तरह लिया जिससे केवल छुप कर ही मिला जा सकता है, और सार्वजनिक रूप से
बुराई की जाती है। जब तक इस माध्यम से पैसों की बरसात नहीं होने लगी तब तक तथाकथित
भले घर के लोगों ने अपनी महिलाओं को इसमें भूमिका निभाने की अनुमति देना तो दूर
दिखाना भी गुनाह समझा। स्मरणीय है कि प्रारम्भ में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष
पात्रों को करना पड़ती थी और रामलीला जैसे धार्मिक नाटकों तक में सीता जैसे पवित्र
पात्र की भूमिका भी लड़कों को निभाना पड़ती थी। फिल्म कला का सबसे सशक्त माध्यम है
जिसमें न केवल साहित्य है, संगीत है, नाटक है, अपितु ज्ञान और मनोरंजन भी है। एक
अच्छा कला माध्यम सभी तरह के विषयों को संवेदनशील और सुस्पष्ट ढंग से लोगों तक
सम्प्रेषित होता है व दूरगामी प्रभाव छोड़ता है। जहाँ तक फिल्मों के दोषों का सवाल
है तो सभी पुस्तकें भी अच्छी नहीं होतीं और चुनाव हमेशा ही करना पड़ता है। इसमें
माध्यम दोषी नहीं होता।
फिल्म
गैंग वासेपुर-2 देखते हुए मुझे सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी
याद आयी जो आजादी के बाद के गाँव मैं पैदा हुए सरकारी धन को चरने वाले दो पाये पशुओं
को बहुत ही रोचक तरीके से सामने लाता है। वासेपुर गैंग-2 भी ऐसा ही एक प्रयास है
जिसमें गोबरपट्टी अर्थात काऊ बैल्ट स्थित बीमारू राज्यों में पल बढ रही कुत्सित
राजनीति, सामाजिकता, और अपसंस्कृति को दिखाते हुए यह सवाल खड़ा करता है कि आखिर ऐसा
क्यों हो रहा है और इसे दूर करने का रास्ता किधर से जाता है। फिल्म व्यंग्यात्मक
है इसलिए इसमें अतिरंजना स्वाभाविक है, पूरी फिल्म में गालियों और गोलियों का
भरपूर प्रयोग है और यथार्थ के नाम पर इनसे बचने की कोई कोशिश नहीं की गयी है।
यद्यपि वासेपुर नाम का एक शहर झारखण्ड में स्थित है और फिल्म में बिहारी बोलियों
का प्रयोग किया गया है किंतु यह ‘वासेपुर’ राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ,
उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखण्ड तक फैला हुआ है। फिल्म प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट
कर देती है कि इस कथा के वासेपुर का झारखण्ड के वासेपुर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं
है, भले ही फिल्म विभिन्न सच्ची घटनाओं के आधार पर रचित कहानी पर बनी है।
यह
फिल्म उस समय आयी है जब भ्रष्टाचार के विरोध के नाम किये जा रहे आन्दोलनों की
असफलता से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि मूलतयः व्यवस्था ही दोषपूर्ण है और इसे
आमूलचूल बदले बिना भ्रष्टाचार से मुक्ति का लक्ष्य नहीं पाया जा सकता। फिल्म में
बेखौफ हिंसा करते हुए खानदान हैं जिनकी पुलिस गुलामी करती है या जो सरे-आम उस
पुलिस को मारते पीटते रहते हैं जिनके नाम से आम आदमी की घिघ्घी बँधी रहती है। उसकी
गिरफ्त में आये प्रतिद्वन्दी को ये मार देते हैं पर इनके खिलाफ कोई गवाही नहीं
देता। अदालत को सजा देने के लिए गवाही चाहिए जिसके अभाव में ये हर बार छूट कर बाहर
आ जाते हैं। सरकारी खरीद और ठेकों में लूट करने वाले ठेकेदार इनके सहारे दूसरे
किसी को टेंडर नहीं भरने देते और वे खोज कर इन लोगों के पास पहुँचते हैं और इनकी
ही शर्तों पर सौदा करते हैं। सौदे में बेईमानी करने वालों के दफ्तरों को बम से उड़ा
देते हैं। बदले की भावना में हत्याओं का दौर चलता रहता है और इन खानदानों की माँएं
स्वयं ही अपने बेटों को खानदानी दुश्मन से बदला लेने के लिए उकसाती रहती हैं
जिसमें जान जाने और जेल जाने का खतरा सदैव ही बना रहता है। घर में खाना खाते समय
भी लड़कों से कहती हैं कि अपने पिता की हत्या के मामले में बदला लिए बिना तुम्हारे
गले से निवाला उतर कैसे जाता है। नगर में पुलिस अधिकारी स्थानीय विधायक या मंत्री
की इच्छानुसार तैनात किया जाता है जो उसके निर्देशानुसार ही काम करते हैं। यही
कारण है कि अपराधी येन केन प्रकारेण जन प्रतिनिधि बनने की कोशिश करता है। चुनावों
को दूषित करके लोकतंत्र की भावना को निर्मूल करने का काम यही अपराधी कर रहे हैं और
यही कारण है कि देश में 39% जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मुकदमे लम्बित हैं जिनका
सहारा लेकर अन्ना हजारे टीम या बाबा रामदेव पूरी संसद का अपमान करते रहते हैं। इन
इलाकों में पुलिस से शिकायत करने में कोई भरोसा नहीं करता, सब अपने अपने न्याय
स्वयं करने में भरोसा रखते हैं। यही कारण है कि डकैतों को नायक बनाने वाली फिल्में
बहुत बड़ी संख्या में बन रही हैं और पान सिंह तोमर जैसी फिल्म में नायक कहता है कि
यहाँ डाकू नहीं होते बागी होते हैं, डाकू तो संसद में बैठते हैं।
उक्त फिल्म हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर ही व्यंग्य नहीं करती अपितु उससे विकृत होती जा रही सामाजिक व्यवस्था पर भी व्यंग करती है। बिहार में बोलियों में अंग्रेजी शब्दों का घाल मेल करके उसे उन बोलियों के व्याकरण के साथ मिला कर खूब बोला जाता है जिसे इस फिल्म में एक गाने के साथ मिलाकर अच्छा व्यंग्य किया गया है। - फ्रस्टाओ नहीं मूरा, नर्भसाओ नहीं मूरा- जैसे शब्दों को मिला कर एक गाना है तो बच्चों के नाम परपेंडुकलर और डेफिनेट जैसे हैं, जो बेखौफ होकर अपराध करते हैं और किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ्त में खाते या उठाते रहते हैं। अपराधी नायक प्रेम की भावुकता में घिरने की जगह अपनी प्रेमिका से सीधे पूछता है कि वह उसके साथ सेक्स करना चाहता है, और नायिका भी उसे सीधे जूते खाने की धमकी देती है। जन्म से महानगरों और राजधानियों में रहने वाले लोग ऐसी कानून विहीनता वाली स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जो बीमारू राज्यों के गाँवों, कस्बों वालों को झेलना पड़ती है, और नागों साँपों जैसे प्रतिद्वन्दियों में से किसी एक के शरणागत होने को विवश कर देती है। अपने कला माध्यमों को हम जिस भाषा और गालियों से मुक्त रखते चले आये हैं वे गालियां हमारी माँ बहिन बेटियां प्रतिदिन बाजार में, बसों में, या गली मुहल्ले में सुनती रहती हैं पर हम अपने कला माध्यमों में इनका प्रयोग न करके कला की एक बनावटी दुनिया रचने की कोशिश करते हैं जबकि जरूरत अपनी उस व्यवस्था को सुधारने की है जो इन्हें जन्म देती है। फिल्मों में धड़ल्ले से दी गयी ये गालियां दर्शक को कल्पना लोक से निकाल कर अपने कटु यथार्थ में कहीं कुछ बदलने की बेचैनी देती हैं।
अपराधियों को तकनीकी ज्ञान का अभाव उनका पैसा पूरा कर देता है और सम्बन्धित विशेषज्ञ स्वयं ही उनके पास आकर उनकी कमी को पूरा करने की पेशकश करते हैं। बाजरवादी व्यवस्था में हथियारों और ताकत के भरोसे अर्जित सम्पत्ति सारे तकनीकी ज्ञान को अपने साथ लाने में सक्षम हो जाती है। फिल्म में बेतरतीब ढंग से फलफूल रहे कस्बे हैं जिनमें अनियंत्रित ढंग से बढती भीड़ है, बेढंगे जाल की तरह बुनते बिजली, टेलेफोन या डिस्कों के तार हैं, अतिक्रमणों से संकरे होते रास्ते हैं और एक दम्भ के साथ निकलते धार्मिक जलूस हैं, रिक्शे वाले हैं, धुआँ उड़ाते वाहन हैं, रंग फीके पड़ते पुराने मकान हैं जिनकी पलस्तर उखड़ी दीवारें हैं, पुरानी परम्पराओं में पैर गड़ाये आधुनिकता है जो एक विचित्र सा दृश्य रचती है। पतले होने की तुलना बिजली के तार से करते हुए ‘लोकगीत’ हैं। पेजर से लेकर मोबाइल तक का उपयोग करते अपराधी हैं और लाठी के सहारे भैंस का मालिकत्व प्राप्त करती जंगली व्यवस्था है, जिसकी जेब में कानून पड़ा रहता है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि जिस तरह कभी कभी महानगरों में अपनी क्षेत्रीय भाषा में बोलने वाला व्यक्ति सहज हास्य पैदा करते हुए भी हमें अपनी मौलिक दुनिया का आभास देता है वैसा ही अभास यह फिल्म अपने यथार्थ को व्यंग्यात्मक ढंग से देती है। सारी सभ्यताएं झूठ और बनावट के आधार पर खड़ी की जाती हैं जो प्राकृतिक को असभ्य मानती हैं। ऐसी फिल्में उस तरह की निन्दा के साथ साथ व्यावसायिक खतरे उठाते हुए भी रची जाती हैं, जो कहीं गहरे में असर करती हैं। प्रेमचन्द ने साहित्य को समाज का दर्पन कहा है और कृष्ण बिहारी नूर कहते हैं-
उक्त फिल्म हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर ही व्यंग्य नहीं करती अपितु उससे विकृत होती जा रही सामाजिक व्यवस्था पर भी व्यंग करती है। बिहार में बोलियों में अंग्रेजी शब्दों का घाल मेल करके उसे उन बोलियों के व्याकरण के साथ मिला कर खूब बोला जाता है जिसे इस फिल्म में एक गाने के साथ मिलाकर अच्छा व्यंग्य किया गया है। - फ्रस्टाओ नहीं मूरा, नर्भसाओ नहीं मूरा- जैसे शब्दों को मिला कर एक गाना है तो बच्चों के नाम परपेंडुकलर और डेफिनेट जैसे हैं, जो बेखौफ होकर अपराध करते हैं और किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ्त में खाते या उठाते रहते हैं। अपराधी नायक प्रेम की भावुकता में घिरने की जगह अपनी प्रेमिका से सीधे पूछता है कि वह उसके साथ सेक्स करना चाहता है, और नायिका भी उसे सीधे जूते खाने की धमकी देती है। जन्म से महानगरों और राजधानियों में रहने वाले लोग ऐसी कानून विहीनता वाली स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जो बीमारू राज्यों के गाँवों, कस्बों वालों को झेलना पड़ती है, और नागों साँपों जैसे प्रतिद्वन्दियों में से किसी एक के शरणागत होने को विवश कर देती है। अपने कला माध्यमों को हम जिस भाषा और गालियों से मुक्त रखते चले आये हैं वे गालियां हमारी माँ बहिन बेटियां प्रतिदिन बाजार में, बसों में, या गली मुहल्ले में सुनती रहती हैं पर हम अपने कला माध्यमों में इनका प्रयोग न करके कला की एक बनावटी दुनिया रचने की कोशिश करते हैं जबकि जरूरत अपनी उस व्यवस्था को सुधारने की है जो इन्हें जन्म देती है। फिल्मों में धड़ल्ले से दी गयी ये गालियां दर्शक को कल्पना लोक से निकाल कर अपने कटु यथार्थ में कहीं कुछ बदलने की बेचैनी देती हैं।
अपराधियों को तकनीकी ज्ञान का अभाव उनका पैसा पूरा कर देता है और सम्बन्धित विशेषज्ञ स्वयं ही उनके पास आकर उनकी कमी को पूरा करने की पेशकश करते हैं। बाजरवादी व्यवस्था में हथियारों और ताकत के भरोसे अर्जित सम्पत्ति सारे तकनीकी ज्ञान को अपने साथ लाने में सक्षम हो जाती है। फिल्म में बेतरतीब ढंग से फलफूल रहे कस्बे हैं जिनमें अनियंत्रित ढंग से बढती भीड़ है, बेढंगे जाल की तरह बुनते बिजली, टेलेफोन या डिस्कों के तार हैं, अतिक्रमणों से संकरे होते रास्ते हैं और एक दम्भ के साथ निकलते धार्मिक जलूस हैं, रिक्शे वाले हैं, धुआँ उड़ाते वाहन हैं, रंग फीके पड़ते पुराने मकान हैं जिनकी पलस्तर उखड़ी दीवारें हैं, पुरानी परम्पराओं में पैर गड़ाये आधुनिकता है जो एक विचित्र सा दृश्य रचती है। पतले होने की तुलना बिजली के तार से करते हुए ‘लोकगीत’ हैं। पेजर से लेकर मोबाइल तक का उपयोग करते अपराधी हैं और लाठी के सहारे भैंस का मालिकत्व प्राप्त करती जंगली व्यवस्था है, जिसकी जेब में कानून पड़ा रहता है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि जिस तरह कभी कभी महानगरों में अपनी क्षेत्रीय भाषा में बोलने वाला व्यक्ति सहज हास्य पैदा करते हुए भी हमें अपनी मौलिक दुनिया का आभास देता है वैसा ही अभास यह फिल्म अपने यथार्थ को व्यंग्यात्मक ढंग से देती है। सारी सभ्यताएं झूठ और बनावट के आधार पर खड़ी की जाती हैं जो प्राकृतिक को असभ्य मानती हैं। ऐसी फिल्में उस तरह की निन्दा के साथ साथ व्यावसायिक खतरे उठाते हुए भी रची जाती हैं, जो कहीं गहरे में असर करती हैं। प्रेमचन्द ने साहित्य को समाज का दर्पन कहा है और कृष्ण बिहारी नूर कहते हैं-
चाहे सोने के फ्रेम में मढ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
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