शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

पुस्तक समीक्षा -- झोले से झांकती हरी पत्ती

पुस्तक समीक्षा
झोले से झांकती हरी पत्ती- नरेन्द्र गौड़ का कविता संग्रह
वीरेन्द्र जैन

मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी से रामविलास शर्मा पुरस्कार प्राप्त काव्य संग्रह ‘गुल्लक’ के बाद नरेन्द्र गौड़ का दूसरा कविता संग्रह ‘इतनी तो है जगह’ के नाम से आया था। ‘झोले से झांकती हरी पत्ती’ उनका तीसरा कविता संग्रह है। कई समाचार पत्रों के साहित्य सम्पादक होने के अनुभवों से सम्पन्न नरेन्द्र गौड़ की रचनाएं 1969 से ही देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उन्होंने कविताओं के अलावा संगीत पर भी आलेख लिखे हैं।
इस कविता संग्रह में उनकी चालीस कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं अपने आस पास के दृष्य उकेरती हैं और अपने समय के साथ टकराती हुयी लगती हैं। बहुत सारी कविताओं वे अपने ज़िये स्थानों, व्यक्तियों, और वस्तुओं को याद करते हुए गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों को रेखांकित करते हैं। ‘माँ का सन्दूक’ नामक कविता में वे लिखते हैं-
मायके जाते-आते समय
खो न जाएं इस भय से
पिता लिख गये थे आइल पेंट से
टेड़े मेड़े अक्षरों में
सन्दूक पर माँ का नाम
और माँ के नहीं रहने पर इसी सन्दूक में से जो वस्तुएं निकलती हैं उनमें से वह कुछ नहीं मिलता जिसकी तलाश आज की पीढी को रहती है, क्योंकि-
ठुस्सी, बिछिया, करधन झूमर
अँगूठी, मंगल सूत्र तक गिरवी रखे गये
तुम लोगों [बच्चों] की पढाई लिखाई में ..
...... पल्लू पकड़ मचलने, रूठने, पैर पटकने की
हमारी ढेरों ज़िदें माँ के सन्दूक में मिलीं
आँसुओं के समुन्दर में डूबे सन्दूक में
माँ की आँखें मिलीं
इसी तरह  ‘सबसे छोटी थी मैं’ कविता में घर की सबसे छोटी लड़की सबको बड़ा होने और बनने को याद करते हुए उनके ‘तितर बितर’ होने तक की गवाह है, जिसकी उपलब्धि केवल अनगिनित चोट के निशान हैं। ‘बहुत छोटी सी खुशी’ में बचपन की सखी के सब्जी मंडी में मिलने पर यादों का कौंधना है जिसकी प्रतीति उसके साथ खरीदी मूली के की झोले के बाहर से झाँकती हरी पत्ती कराती है, जो खुशी की तरह बाहर फूट रही है। ‘शहर से दूर पुलिया’ में नगरों के काफी हाउसों या क्लबों की तरह कस्बों की पुलियाओं का जो महत्व है, उसे याद किया गया है। गाँवों, कस्बों के आस पास ऐसी असंख्य पुलियाएं हजारों स्मृतियों की गवाह बनी हुयी हैं।
व्यतीत स्मरण [नास्टेलजिया] के रूप में अपने पुराने मित्रों को सम्बोधित करते हुए कई कविताएं हैं जिनमें राम प्रकाश त्रिपाठी, भगवत रावत, विष्णु नागर, चन्द्रकांत देवताले, रतन चौहान, नवीन सागर, आदि साहित्यकार मित्रों को बहुत भावुकता से याद किया गया है। इनके अलावा वे मांगूड़ी की बाई, कबूड़ी बाई, और कस्बे की महादेवी, को कविता के विषय बनाते हैं। लोकप्रिय और बहुचर्चित व्यक्तियों [सेलिब्रिटीज] को भी वे कविता में लाते हैं और उनके बहाने अपने समय की विसंगतियों को उकेरते हैं। ‘अमिताभ नहीं होकर ठीक किया मैंने’ ‘मधुबाला [बीस कविताएं]’, ‘बराक ओबामा से मेरी मुलाकात’, ‘योगाभ्यास[बाबा रामदेव]’, आदि कविताओं के द्वारा वे सेलिब्रिटीज के पीछे अन्धे होकार भागने वालों को थोड़ा वैचारिक होने के लिए झकझोरते हैं।
आम आदमी के रूखे सूखे जीवन में खुशियां कैसे कभी कभी, गाहे-बगाहे, कौंध जाती हैं इसकी झलक  ‘झोले से झाँकती हरी पत्ती’ में बचपन की सखी के अचानक सब्जी मंडी में मिलने से मिलती है, या किसी मधुर कंठी का किसी कांता प्रसाद के नाम आये गलत काल से मिलती है। कभी कभी थोड़ी देर को खुशी करोड़पति बन जाने के सपने से भी मिल जाती है, या बरसात में जींस पहिन कर जाने की मजबूरी में हम उम्र मित्रों से मिली ईर्षा जगाती प्रतिक्रिया से मिल जाती है।
आदमी इस दौर में निरंतर भयग्रस्त होते जाने को विवश हो गया है क्योंकि हादसों पर हादसों ने उसे भौंचक्का कर दिया है-
लावारिस वस्तुओं से सावधान
इन दिनों इतना अधिक प्रचारित है
कि पहले जहाँ आदमी को आदमी पर शक था
अब वस्तुएं भी शक के दायरे में शुमार हैं
सहयात्री मेरी तरफ समोसा बढाता है
फ़िर यह कहते हुए मठरी कि उसकी
माँ के हाथ की बनी है
मैं लेने से मना कर देता हूँ
कितना बुरा ज़माना है
समोसे मठरी बराबर भी नहीं रहा
आदमी का आदमी पर विश्वास
कई कविताओं में अपने समय के कवियों के चरित्रों, संस्थाओं, पुरस्कारों आदि में आयी गिरावट पर असंतोष व्यक्त करती हुयी अनेक कविताओं के साथ यह संग्रह खट्टे मीठे संस्मरणों में ले जाने में सक्षम है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629


       

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