कुमार विश्वास प्रसंग
और मंच के कवियों का मूल्यांकन
वीरेन्द्र जैन
जब
साठ के दशक में चीन के साथ सीमा पर विवाद हुआ तब जनता में राष्ट्रभक्ति और देश
प्रेम की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए बड़े पैमाने पर कवि सम्मेलन आयोजित किये
गये थे। उस दौर से हिन्दी की गीत कविता के सरल सहज रूप का तेजी से विकास हुआ। इन
कवि सम्मेलनों से कवियों को मार्गव्यय व स्वागत सत्कार के अलावा कुछ पारश्रमिक
मिलना भी प्रारम्भ हो गया था जिसका परिणाम यह हुआ कि यश के साथ धन के आकांक्षी अनेक
लोग हिन्दी कविता के इस उद्यम से जुड़ने लगे। इस घटना विकास ने हिन्दी साहित्य के
महारथियों को सीधे सीधे दो भागों में बाँट
दिया और मंच के कवि दोयम दर्जे के साहित्यकार माने जाने लगे। बच्चन जी के बाद मंच
पर जाने वालों और मंच के अनुकूल रचनाएं लिखने वालों को कवि की जगह कलाकार माना
जाने लगा जिनसे अपने श्रोता और दर्शक समुदाय को संतुष्ट करने वाली कविताएं सुनाने
की अपेक्षा की जाती थी। यह एक वाचिक परम्परा थी इसलिए स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण के
साथ कविता गायन ही नहीं उसकी वेषभूषा भी कवि को विशिष्ट बनाती थी। इन मंच के
कवियों ने अपनी गीत कविता के अनुरूप कविता वाचन की अनेक शैलियां विकसित कीं। मंच
की कविता के श्रोताओं में समझ और संवेदना के कई स्तरों के लोग बैठे होते थे और कवि
के लिए जरूरी होता था कि वह ऐसी सतही संवेदना का समावेश करे जिसे ग्रहण करने में
अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं होती। यही कारण रहा कि इन कविताओं में सतही श्रंगार,
भावुक वीरता, व सहज हास्य की कविताएं चल पड़ीं। इनसे ऊब कर साहित्यिक रुचि वाले सुधी
श्रोताओं ने भी मंचीय कविता से दूरी बना ली और मंच की कविता के श्रोता और कलाकार
कवि एक ही स्तर के हो गये। इन मनोरंजक कार्यक्रमों में नवधनाड्य लोगों ने भी रुचि
ली और वे अपनी पसन्द के इन कवि-कलाकारों को अधिक पारश्रमिक देकर बुलवाने लगे।
सेठों की तौंदों को गुदगुदाने और क्षणिक मादकता पैदा करने वाली कथित कविता ऊंचे
दामों पर बिकने लगी तो उसका उत्पादन भी भरपूर होने लगा व प्रतिद्वन्दता भी बड़ने
लगी। भारी पारश्रमिक के साथ कवि हवाई जहाज में यात्रा करने और अच्छे होटलों में
रुकने लगे व अभिजात्य वर्ग के क्लबों में अपनी प्रस्तुतियां देने लगे जिससे उनके
सम्पर्क समाज के सम्पन्न वर्ग के साथ हो गये। दूसरी ओर गम्भीर साहित्य के
समीक्षकों ने मंचीय कवियों को साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया,
पाठ्यक्रमों से उन्हें दूर रखा व वे साहित्यिक पत्रिकाओं तक में प्रकाशित होने से
वंचित रहे।
नाम,
नामा, और उच्चवर्ग से निरंतर सम्पर्क कुछ लोगों में इतनी महात्वाकांक्षाएं जगा
देता है कि वे भ्रमित हो जाते हैं और बहुत जल्दी अपनी क्षमता से अधिक पा लेना
चाहते हैं। कुमार विश्वास भी ऐसे ही लोगों में से एक हैं। वे मंच के एक सफल
कवि-कलाकार थे जो किशोर वर्ग के युवाओं या उम्रदराज किशोरों में लोकप्रिय थे और
इसी लोकप्रियता की सीढियां चढते हुए वे एक कविसम्मेलन का पारश्रमिक एक लाख के आस
पास तक माँगने लगे थे। अन्ना आन्दोलन को मिली लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर वे
अपने कविता व्यवसाय की सफलता को और बढाना चाहते थे कि इस बीच घटे घटनाक्रम में वे
अरविन्द केजरीवाल के अधिक निकट हो गये और दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की पार्टी
की जीत ने उन्हें देश की सबसे बड़ी पार्टी के अघोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी
राहुल गान्धी के विरुद्ध खड़े होने की घोषणा करने को उत्साहित कर दिया। इसके साथ वे
दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को
भी उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ने की चुनौती देने लगे। कहा जाता है सूप बोले तो बोले
पर छलनी क्या बोले जिसमें सौ छेद, सो कुमार विश्वास को उनके कद का अहसास कराने के
प्रयास शुरू हो गये। कवि सम्मेलनों के मंच पर लुत्फगोई के अन्दाज़ में की गयी उनकी
टिप्पणियों को यूट्यूब पर देखा गया व उसके आधार पर उनके द्वारा केरल के रंगरूप पर
की गयी खराब टिप्पणियों और दलितों को मिले आरक्षण पर की गयी टिप्पणियों के आधार पर
उनकी वैचारिक पहचान की गयी। केरल में नर्सों के संगठन ने विरोध प्रदर्शन किया व
उनसे माफी मांगने की मांग रखी। किसी कलाकार द्वारा अभिनीत कुछ भूमिकाएं भी उस
कलाकार के व्यक्तित्व की पहचान बन जाती हैं। रामायण में दीपिका चिखलिया द्वारा की
गयी सीता की भूमिका उन जैसी गैरराजनीतिक अभिनेत्री को संसद सदस्य चुनवा देती है।
अपने बचाव में कुमार विश्वास को वह सच बोलना पड़ा जिसे मंच के कवि अब तक छुपाते आ
रहे थे और गम्भीर साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपेक्षा को ईर्षा बतला रहे थे।
उन्होंने कहा कि मंच पर वर्षों पूर्व निर्वाह की गयी भूमिका के लिए क्या किसी
कलाकार को सजा दी जा सकती है जैसे कि ‘इंसाफ का तराजू’ फिल्म में निभाये गये
बलात्कारी की भूमिका के लिए राज बब्बर को सजा नहीं दी सकती, उसी तरह मंच पर की गयी
उनकी भूमिका को उनका विचार नहीं माना जा सकता। इस तरह उनका तर्क इस बात की पुष्टि
करता है कि मंच के कवियों की कविता में उनका विचार नहीं होता अपितु वह क्षणिक मनोरंजन
भर होता है व उसके लिए उन्हें दण्डित नहीं किया जा सकता। इसी तर्क के आधार पर
उन्हें पुरस्कृत न किया जाना भी ठीक लगने लगता है।
कुमार
विश्वास के नाम से जाने जाने वाले विकास कुमार शर्मा के कथन से यदि यह तय होता है
कि वे कविता के मंच पर केवल भूमिकाओं का ही निर्वहन करते हैं तो वे यह स्पष्ट क्यों
नहीं करते कि आप पार्टी में उनकी सक्रियता को उनकी भूमिका ही क्यों न समझा जाये।
इस पार्टी के उदय से पूर्व उनकी राजनीतिक सक्रियता और राजनीतिक विचारधारा के कोई
प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं और देश के सबसे बड़े पद के सम्भावित उम्मीदवार के खिलाफ
अपनी उम्मीदवारी घोषित करने के लिए उनके पास एक लोकप्रिय मंचीय कवि-कलाकार होने के
अलावा क्या पात्रता है? वे पिछले दिनों बाबा रामदेव की राजनीतिक महात्वाकांक्षा और
उनकी व्यावसायिक कमियों से उत्पन्न विसंगतियों के साक्षी रहे हैं। राजनीति में
काँच के मकानों में रह कर दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने वालों के साथ यह होना
अस्वाभाविक नहीं है। उल्लेखनीय है कि 1969 में [कुमार विश्वास के जन्म से एक वर्ष
पूर्व] जब जगजीवन राम ने कांग्रेस के विभाजन के समय श्रीमती इन्दिरा गान्धी की नई
कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की थी तो मंत्रिमण्डल से बाहर किये गये मोरारजी
देसाई ने याद दिला दिया था कि उन्होंने पिछले दस सालों से टैक्स नहीं भरा है।
राजनीति में आने वालों को अपनी पिछली भूलों का प्रायश्चित करने में संकोच नहीं
करना चाहिए तब ही उनकी भूलें अपराध की परिभाषा से बाहर आ सकती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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