गुरुवार, मई 12, 2016

उत्तराखण्ड प्रकरण - यह काँग्रेस की जीत भी है हार भी है

उत्तराखण्ड प्रकरण -  यह काँग्रेस की जीत भी है हार भी है
वीरेन्द्र जैन
पहले हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के प्रकाश में उत्तराखण्ड की रावत सरकार ने सदन में बहुमत साबित कर दिया है जिसे काँग्रेस के नेता लोकतंत्र की जीत बता रहे हैं।
पर क्या सचमुच ऐसा है?
यह सच है कि षड़यंत्रों, शगूफों, सत्य को तोड़-मरोड़ करने के साथ जोड़-तोड़ करने, कैलाश विजयवर्गीय को चार्टर्ड प्लेन से चक्कर लगवाने वाली भाजपा की राजनीति सफल नहीं हो सकी है। राज्यों की सत्ता पर अधिकार जमाने की उसकी फूहड़ जल्दबाजी की सर्वत्र निन्दा हो रही है व न्यायालयों ने उसके इन प्रयासों पर कठोर टिप्पणियां की हैं। केन्द्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार चलाते हुए भी वह विपक्ष की तरह बचकाने व्यवहार कर रही है व चुनाव में कमजोर साबित हो चुके विपक्षी दल को ऎन केन प्रकारेण और कमजोर करने की अनावश्यक प्रशासकीय कोशिशें कर रही है। इन कोशिशों की असफलता से भाजपा का सीधे सीधे कोई राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ है और नैतिकता की उसने कभी चिंता नहीं की। अगर नैतिकता की चिंता की होती तो अपने इतिहास में अब तक कई बार डूब मरी होती। अमित शाह को निर्विरोध अध्यक्ष स्वीकार कर लेने वाले भाजपा के प्रमुख सदस्यों में से किसी में भी यह साहस नहीं बचा है कि वह अनैतिक कदमों का वैसा विरोध कर सके जैसा कि उनके गठबन्धन साथी शिवसेना वाले कर रहे हैं।
सत्ता के लाभ पाने को ही राजनीति मानने वाले काँग्रेसी सदन के पटल पर बहुमत मिलने पर, भले ही फूले नहीं समा रहे हों किंतु यह बहुमत तो उन्हें चुनाव से ही प्राप्त था जिसे उनके ही कारनामों ने खतरे में डाला था। मूल समस्या तो यह थी कि मुख्यमंत्री ने अपने कुछ सदस्यों का विश्वास खो दिया था। खुशी केवल इस बात की हो सकती है कि किसी तरह उनकी सरकार फिर से बन गई। काँग्रेसियों को यह सोचने की फुरसत नहीं है कि ऐसी नौबत क्यों आई, और क्यों उसके अपने ही वरिष्ठ विधायकों ने विद्रोह  किया। घोषित नीतियों के अनुसार काँग्रेस और भाजपा ऐसे दो ध्रुवों पर खड़े हैं जो कभी मिल नहीं सकते किंतु अपने नेता और संगठन से नाराज होकर काँग्रेसी भाजपा की ओर ही भागते हैं। अपने काँग्रेसी होने के कार्यकाल में वे जिन बातों के लिए भाजपा की निन्दा करते रहते हैं उससे लगता है कि अपने नेता, संगठन और गुट से उन्हें कितना भी असंतोष हो किंतु वे भाजपा में कभी नहीं जायेंगे। किंतु होता इसका उल्टा ही है, काँग्रेसी, जहाज के चूहों की तरह मौका देख कर कूद जाता है और सीधे भाजपा में दिखाई देता है। भाजपा को भी उसे जस का तस ले लेने में कोई नैतिक संकट महसूस नहीं होता। विधायक को विधायकी और केबिनेट मंत्री को केबिनेट मंत्री का पद वहाँ भी दे दिया जाता है। संसद में भाजपा के 116 सदस्य ऐसे हैं जो किन्हीं दूसरे दलों से आये हैं।  
काँग्रेस के सामने संकट यह है कि उसकी अपनी कोई पहचान नहीं रह गयी है। न पोषाक में, न रहन सहन में, न खान-पान में। किसी भी अन्य बाहरी स्वरूप को देख कर किसी के काँग्रेसी होने की पहचान नहीं बनती। भाजपाइयों के भगवे गमछे की नकल में तिरंगा गमछा भी कुछ ही कांग्रेसी कभी कभी डालते हैं। टोपियों की वपिसी तो अन्ना आन्दोलन के बाद हुयी जिसमें छुपे भाजपाइयों ने भी सफेद टोपी लगाई थी जो बाद में केवल आम आदमी वालों तक सीमित होकर रह गई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में तो भाजपाइयों तक को नकल में भगवा टोपी पहिनना पड़ी थी पर उसका कोई लाभ नहीं हुआ सो उन्होंने उतर दी फिर बिहार विधानसभा चुनाव में नहीं पहनी। जो भी व्यक्ति अपने निजी स्वार्थ के लिए सत्ता से जुड़ना चाहता है या पूरे हो रहे स्वार्थ में वृद्धि के लिए अपनी ही पार्टी के समकक्ष लोगों से टकरा रहा होता है वह ‘काँग्रेसी’ होता है। पुस्तिकाओं में लिखे गये विचारों का न तो उन्हें पता होता है, न ही उन पर अमल करने की कोई बाध्यता होती है। धर्म निरपेक्षता केवल संघ से भयभीत मुस्लिम वोट बटोरने हेतु दिखावा है। साम्प्रदायिक दंगों के समय काँग्रेसी हिन्दू या मुसलमान हो जाता है। दंगे रोकने के लिए जान न्योछावर करने वाले काँग्रेसियों की कहीं कोई खबर नहीं मिलती, जबकि अपने उस्ताद नेता के लिए पट्ठों की जान कभी कभी जाती भी रहती है। न आप किसी की बैठक [ड्राइंग रूम] से उसके काँग्रेसी होने का पता चला सकते हैं और न ही फर्नीचर आदि से। शादी ब्याह आदि में भी उनकी कोई अलग पहचान नहीं बनती जबकि अपने अंतिम वर्षों में गाँधीजी ने सिर्फ अंतर्जातीय विवाहों में ही भाग लेने का फैसला लिया था व उसे निभाया भी था। आज का काँग्रेसी वोटों की खातिर दहेज विवाह से लेकर बालविवाह तक सब में भाग लेता है। जातियों के सम्मेलन में जाता है और विवादास्पद पाखंडी साधु संतों के आश्रमों में भी दिखाई दे जाता है। 
विधानसभा चुनाव के बाद जब उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्री का चयन हुआ था तब भी उसका फैसला दिल्ली में हुआ था। मंत्रिमण्डल का गठन भी निर्विवाद नहीं था तथा इससे शुरू हुआ विवाद लगातार पलता रहा था। लोकसभा चुनावों में काँग्रेस पाँचों सीटें भाजपा से हार गयी थी। जब ताजा असंतोष सामने आया तब भी असंतोष का कोई स्पष्ट मुद्दा नहीं अपितु वैसे ही अस्पष्ट आरोप थे जैसे कि आम तौर पर सभी मुख्यमंत्रियों के खिलाफ लगते रहते हैं। हरीश रावत की कुर्सी के बचाव में विधानसभा अध्यक्ष की चतुराई पूर्ण समझदारी की भी बड़ी भूमिका रही है व निष्पक्ष न्यायधीशों के मजबूत सही फैसले भी उनके मददगार हुये। कहा जाता है कि भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोशियारी की सहानिभूति हरीश रावत के साथ रही है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि हार दोनों तरफ है पर हरीश रावत कुछ और दिनों तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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