शुक्रवार, मई 20, 2016

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम ; उर्फ अन्धों का हाथी

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम ; उर्फ अन्धों का हाथी
वीरेन्द्र जैन
बहुत सावधानी और सुरक्षा के लिए दो महीनों तक खींचे गये पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुना परिणाम तय तिथि पर घोषित हो गये। यद्यपि चुनाव सर्वेक्षण सामने दिखाई दे रहे माहौल से लगाये जा रहे अनुमान से अधिक कुछ नहीं होते हैं, सो लगभग वैसे ही परिणाम सामने आये जैसी सम्भावना सूंघी जा रही थी। ये चुनाव इस विशाल और विविधिताओं से भरे देश के उत्तर पूर्व से लेकर धुर दक्षिण तक के राज्यों में हो रहे थे और परिणाम भी वैसे ही आये। इन परिणामों से देश के मिजाज का कोई अनुमान निकालना नामुमकिन है।
चुनावों में छह मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दल और अनेक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल चुनाव लड़ रहे थे, जिनमें से असम में भाजपा, पादुचेरि [पाण्डुचेरी] में काँग्रेस, केरल में सीपीएम-सीपीआई के नेतृत्व वाला वाममोर्चा सरकार गठित करने जा रहा है तो दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस और तामिलनाडु में एआईडीएमके की सरकार बनने जा रही है जो राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त व्यक्ति केन्द्रित दल हैं। इन सभी दलों की विचार धाराओं और संगठनों में कोई साम्य नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि जनता ने इसके पक्ष में, या उस विचार या कार्य के विरोध में अपना मत व्यक्त किया है।
भाजपा इसलिए खुशी का मुखौटा लगा रही है क्योंकि उसे पहली बार उत्तरपूर्व के किसी राज्य में सरकार बनाने का मौका मिला है और देश के पश्चिमी राज्यों की पार्टी होने की उसकी पहचान में बदलाव आया है। अब वह तकनीकी आधार से बाहर जाकर भी खुद को राष्ट्रीय पार्टी कह सकती है, भले ही उसके आलोचक कह रहे हों कि यह उसकी विचारधारा की जीत नहीं अपितु यह अवसर काँग्रेस के कुछ महात्वाकांक्षी विधायकों के दल बदलने से उसे मिल पाया है। आंकड़े वाले लोग कह रहे हैं कि उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों में ही 36.5% मत मिल चुके थे पर इन विधानसभा चुनावों में 29.8% रह गये। इसी प्रतिशत के आधार पर भाजपा पश्चिम बंगाल और केरल में सीटों की संख्या में पिछड़ने के बाद भी अपने दल का विकास दिखा रही है। जीत के इस अहंकार में कोई नहीं देख रहा कि असम में दूसरे साम्प्रदायिक और अलगाववादी दलों ने भी अपना समर्थन और सीटों दोनों में वृद्धि की है। एआईयूडीएफ ने 12.4% प्रतिशत मत लेकर 12 सीटें जीती हैं, तो बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने भी 3.8% प्रतिशत मत लेकर 12 सीटें जीती हैं। भाजपा ने केरल में एक सीट से प्रवेश कर के बंगाल में दो सीटें जीती हैं। गुजरात के एक् उपचुनाव में भी भाजपा ने ही जीत हासिल कर ली, भले ही काँग्रेस ने बराबर की टक्कर दी।
वाम मोर्चा बंगाल में 26 सीटों तक सिमिट कर रह गया जबकि उसके चुनावी सहयोगी काँग्रेस को 45 सीटें मिल गयीं। दूसरी ओर वह इस बात से खुश है कि उसने सबसे शिक्षित, सबसे प्रगतिशील राज्य केरल में दुबारा से सत्ता प्राप्त कर ली है। वहीं तमिलनाडु में 10% से भी अधिक मत पाकर भी पिछली विधान सभा में जीती अपनी 20 सीटें नहीं बचा सकी। उसकी ऐसी क्षति उसकी राष्ट्रीय मान्यता पर भी खतरा ला सकती है। वामपंथी दल भारतीय राजनीति के सबसे अधिक संवैधानिक नियमों का पालन करने वाले, अनुशासित और ईमानदार दल हैं जो अपने अध्य्यन और वैज्ञानिक चिंतन व व्यवहार से लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखे हुए हैं। उनकी कमजोर उपस्थिति भी महत्वपूर्ण होती है।
तामिलनाडु में व्यक्ति केन्द्रित दो दलों ने अपना वर्चस्व बना रखा है। इस इक्कीसवीं शताब्दी के लोकतंत्र में भी ऐसी अन्धभक्ति अचम्भित करती है जिसमे जयललिता के जेल जाने पर वैकल्पिक मुख्यमंत्री साष्टांग दण्डवत करता नजर आता हो और उनके जेल से बाहर आने के बाद रामकथा के भरत की तरह अपना राज पाठ जस का तस सौंप देने में रत्ती भर संकोच न करता हो। उल्लेखनीय है कि भाजपा में जब जब किसी मुख्यमंत्री को बदलने की कोशिश हाई कमान ने की वह विद्रोही हो गया व दूसरा दल बना लिया। कल्याण सिंह, उमा भारती, येदुरप्पा, मदनलाल खुराना, जैसे अनेक उदाहरण हैं। वसुन्धरा राजे ने हाई कमान की लाख कोशिशों के बाद भी पद नहीं छोड़ा था। पुराणों में वर्णित भगवानों की भूमिका करने वाले फिल्मी अभिनेता की पहचान ही दक्षिण की राजनीति का प्रवेश द्वार माना जाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाने के बाद भी सस्ता चावल व उपहार देने वाली पूर्व अभिनेत्री जयललिता का जादू बरकरार है भले ही वैसे ही आरोपों वाले उनके प्रतिद्वन्दी ने बराबर की टक्कर दे कर् ठीक ठाक सीटें प्राप्त कर लीं।
काँग्रेस भले ही सब ओर से पराजित नजर आ रही हो किंतु आंकड़ों के चश्मे से देखने पर वह भी आत्मसंतोष का घूंट पी सकती है। भले ही 30 सीटों वाले एक छोटे से राज्य में सरकार बनाने का अवसर मिला हो किंतु जो कभी सबसे बड़ी पार्टी रही हो उसे शून्य से मुक्ति तो मिल ही गयी है। भले ही काँग्रेस ने असम की सत्ता खो दी हो किंतु उसने अकेले चुनाव लड़ कर 31.1% मत प्राप्त किये जबकि उसकी प्रतिद्वन्दी भाजपा को कुल 29.8% मत ही मिले हैं जिसने असम गण संग्राम परिषद से समझौता करके चुनाव लड़ा था। काँग्रेस गर्व के साथ कह रही है कि उसने साम्प्रदायिक माने जाने वाले एआईयूडीएफ के आग्रह के बाद भी समझौता नहीं किया। आज के आंकड़े बता रहे हैं कि ऐसा करके वह चुनाव जीत सकती थी। बंगाल में उसने लेफ्ट फ्रंट से अधिक सीटें जीत कर विरोधी दल का हक प्राप्त कर लिया। केरल में उसके कुल 5% वोट ही कम हुये हैं, ये बात अलग है कि वहाँ एक सीट के अंतर से ही उसने पिछली सत्ता पायी थी।
सास भी कभी बहू थी की तरह तृणमूल काँग्रेस भी कभी काँग्रेस ही थी और उसी से निकली ममता बनर्जी ने काँग्रेसियों के आचरणों से अलग अपने अथक संघर्ष और कम्युनिष्टों जैसी सादगी के स्वरूप से ऐसी लोकप्रियता प्राप्त कर ली कि गुरु गुड़ ही रह गया और चेला शक्कर हो गया। वामपंथ के शासन काल में काँग्रेस की जगह तृणमूल काँग्रेस ने विपक्ष का पद हथिया लिया और एंटी इंकम्बेंसी का लाभ भी उसे ही मिला। भक्ति अन्धी ही होती है इसलिए शारदा घोटाले में उसके नेताओं के जेल जाने, और स्टिंग आपरेशन में पकड़े जाने के बाद भी उनके समर्थन में कमी नहीं आयी। माल्दा जैसी हिंसक घटनाएं भी उनका समर्थन कम नहीं कर सकीं, भले ही भाजपा ने फिल्मी कलाकारों, सुभाष बोस की फाइलों का तूमार बाँध कर उनके पड़पोते को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया हो। संघर्षशील बौद्धिक बंगाल में ममता बनर्जी ने अपना जो स्थान बनाये रखा है वह अचम्भित करता है, पर सच है।  
चुनाव परिणामों में किसी के हाथ में हाथी का कान आया है और किसी के हाथ में उसका पांव आया है। वे उसी आधार पर अपने निष्कर्ष निकाल रहे हैं जबकि सच तो यह है कि ये चुनाव परिणाम आगे की ओर नहीं ले जाते।   
वीरेन्द्र जैन
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