सोमवार, जुलाई 22, 2024

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

 

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज

शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

वीरेन्द्र जैन


लापता लेडीज यथार्थवादी फिल्म नहीं है। निर्माता को कुछ सन्देश देना थे इसलिए उसने बेतरतीब ढंग से जोड़ी हुयी एक कहानी पर मनोरंजक घटनाओं से भरे सन्देशों के वस्त्र पहना दिये। कहानी पुराने तरह की एवीएम प्रोडक्शन की फिल्मों जैसी है। कुछ लोग मानते हैं कि यह रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ” नौका डूबी “ पर बनी दिलीप कुमार की ‘मिलन [1948]’ या “घूंघट [1960]” की तरह है, पर यह सही नहीं है। उपरोक्त दोनों ही  फिल्मों से केवल इतनी समानता है कि तीनों में घूंघट के कारण दुल्हिनें बदल जाती हैं और इस भूल का पता बाद में चलता है। किंतु इस फिल्म में मुख्य समस्या घूंघट नहीं है, यह केवल संयोग भर है।

कहानी में ढेरों झोल हैं और अगर तार्किक दृष्टि से देखें तो मोबाइल फोन स्तेमाल करने वाली दुल्हिनें और फैक्स वाले थानों के दौर में दुल्हिनें बदल जाने वाले घूंघट नहीं डाले जाते। इस जमाने की बालिग दुल्हिनें अपने ससुराल के गाँव के नाम से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं और किसी भी परिस्तिथि में अपने पति का नाम ना बताने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकतीं। गाँव में रहने वाली कम शिक्षित नायिका की ननद  बेहद अच्छी चित्रकार हो सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि कहानी के माध्यम से निर्माता निर्देशक ने समाज व्यवस्था की जिन दुष्प्रवृत्तियों को रेखांकित करने की कोशिश की है उन्हें वह कर पाया है।

दृष्य माध्यम की विशेषता यह होती है कि वह कम से कम समय में पुस्तक के दर्जनों पेजों में वर्णित दृश्य को बता देता है। रंग बिरंगे फूल पत्ते, बहती हवा, आकाश, नदी, पहाड़, पात्रों के मनोभाव आदि सैकिंडों में सम्प्रेषित हो जाते हैं। इसके माध्यम से कथाकार निर्देशक बता देता है कि हमारे गाँवों और कस्बों की पुलिस व्यवस्था कैसे काम करती है व वहाँ से न्याय मिल पाना कितना मुश्किल होता है। एक आम आदमी के लिए रेल परिवहन की दशा कैसी है, रेलवे स्टेशनों पर चल रही खानपान की दशा कैसी है। इत्यादि।

विवाह, हिन्दी फिल्मों का ऐसा समस्या मूलक विषय है जिस पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं। प्रसिद्ध लेखक पत्रकार और फिल्मों से जुड़े प्रितीश नन्दी एक लेख में लिखते हैं कि वे एक विदेशी मित्र को एक हिन्दी फिल्म दिखाने ले गये तो उसने फिल्म देखने के बाद पूछा कि क्या हिन्दुस्तान में विवाह अब भी इतनी बड़ी समस्या है। कनाडा में रहने वाले मेरे एक सिख मित्र ने अपनी भांजी से पूछा कि वह कनाडा निवासी सिख से व्याह करना पसन्द करेगी या भारत में रहने वाले किसी सिख से, तो उसका उत्तर था कि भारत में तो व्याह किसी व्यक्ति से नहीं, पूरे परिवार के साथ होता है इसलिए वह कनाडा निवासी से ही व्याह करना पसन्द करेगी। इस फिल्म की पटकथा में घूंघट के कारण जो दुल्हिनें बदल जाती हैं, उनमें से एक अपने थोपे हुए दूल्हे से शादी करने की इच्छुक नहीं है और वह जैविक खेती की पढाई करके उसमें अपना कैरियर बनाना चाहती है और देहरादून में प्रवेश के लिए भाग जाना चाहती है। जैविक खेती जन महत्व का विषय है किंतु यहाँ यह प्रसंग थेगड़े की तरह कहानी में अलग से चिपकाया हुआ दिखता है।

फिल्म के निर्माता निर्देशकों में आमिर खान और किरन राव के नाम से समानांतर सिनेमा के दर्शकों को भ्रम हो जाता है कि यह कला फिल्म होगी किंतु यह साधारण मनोरंजक फिल्म निकल कर उन्हें निराश करती है। कुल मिला कर यह एक मनोरंजक फिल्म ही है जिसमें रविकिशन की भूमिका और अभिनय जानदार है, शेष कलाकार नये हैं किंतु निराश नहीं करते।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

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